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सोमवार, 19 मार्च 2018

किस मिट्टी से खुद को गढ़ लिया है ?



वह स्त्री जो बोलती है 
वह मैं नहीं 
 मैं,
चुप रहना चाहती हूँ !
...पर, सहजता का लिबास पहने
वह मौन स्त्री 
जो बोलती ही जाती है ...
बोलने के बाद 
खुद को देखती है हिकारत से 
... "मान गए तुम्हें !
हद हो 
हर दर्द को जूस की तरह पी जाती हो
यूँ तरोताजा दिखने का स्वांग रचती हो 
कि शुद्ध हवा भी अवाक रह जाए !
परेशानी का थोड़ा अभिनय ही कर लो
... किस मिट्टी से खुद को गढ़ लिया है
और ठोस बनाती जा रही हो ! 
कभी देखा है औरों की नज़रों से खुद को 
-कितनी हास्यास्पद लगती हो !
हर कोई सोचता है 
कि यदि तकलीफ होती तो नींद हराम हो जाती 
भूख मर जाती 
...... 
परेशानी है
तो परेशान दिखना चाहिए न 
खाने से पहले सौ बार सोचना चाहिए 
कोई राह दिखे ना दिखे 
उससे पहले,
सभी रास्तों को बंद कर देना चाहिए 
... लेकिन तुम !
नहीं सुधरोगी  ... "


5 टिप्पणियाँ:

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

यदि तकलीफ होती तो नींद हराम हो जाती
भूख मर जाती
......
परेशानी है
तो परेशान दिखना चाहिए न

उम्दा प्रस्तुतीकरण सदा की तरह

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

"वह उठा लाया" को यहाँ तक लाने के लिए आभार !

- कौशल

कविता रावत ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुधरना जरूरी भी नहीं है :)

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

वाणी गीत ने कहा…

हास्यास्पद ही ठीक है....
नहीं क्या!
स्मरण रखने का आभार!

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