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रविवार, 11 सितंबर 2016

ये कहाँ आ गए हम - ब्लॉग बुलेटिन

आज जब धरम के नाम पर सारा दुनिया में आग लगा हुआ है, हर आदमी अपने हिसाब से धरम को समझाने में लगा हुआ है. समझाने तक का बात होता त ठीक था, हर कोई एही होड़ में लगा हुआ है कि भला उसका धरम हमारे धरम से ऊँचा कैसे. नतीजा खून-खराबा, गोला-बारूद अऊर आतंकवाद का बोलबाला. हर आदमी एयर-कंडीसन कमरा में बइठकर एगो थिऊरी बताता है अऊर समझता है कि बस उसको धरम का बारे में सबसे औथेंटिक ज्ञान है. उनका बस चलता त कमरा के अंदर एगो बोधि-बिरिछ का बोनसाई लगाकर खुद को बुद्ध डिक्लियर कर देते.

का बूढा, का जवान सब को है धरम का ज्ञान. गूगल पर पढकर बहुत सा नौजवान लोग भी धरम का औथोरिटी बन जाता है अऊर धरम के नाम पर बहुत सा नौजवान इंजीनियरिंग का पढाई करने के बाद भी बगदादी के धार्मिक संगठन में सामिल हो जाता है.

आज ही के दिन लगभग सवा सौ साल पहिले, बिदेस में एगो नौजवान ई बताने के लिये गया था कि हिंदु धरम का है. बहुत सा लोग ओहाँ आया था अपना-अपना धरम के बारे में बताने के लिये. जैन, बौद्ध, ज़ेन, इसलाम, बहाई, ईसाई सब धरम के संत लोग अपना बात कहने के लिये आए. भारत देस से तीस साल का एगो सन्यासी हिंदु धरम से दुनिया का परिचय कराने गया था.

सात हज़ार लोग से भरा हुआ हॉल में जब ऊ भारतीय सन्यासी के बोलने का बारी आया त सच पूछिये त उसका सम्बोधन में उसके धरम का सार छुपा हुआ था. कमाल ई भी था कि ऊ टाइम का लोग भी सही माने में धार्मिक लोग था, काहे कि जब ऊ नौजबान सन्यासी बोला त सबलोग खड़ा हो गया अऊर ताली बजाने लगा एक साथ.

ऊ सन्यासी थे स्वामी बिबेकानन्द, जगह था अमेरिका का सिकागो सहर, अबसर था बिस्व धार्मिक सम्मेलन का, तारीख था 11 सितम्बर 1893 अऊर ऊ भासन का सुरुआती सम्बोधन जिसपर दू मिनट तक सात हजार लोग खड़ा होकर ताली बजाता रहा, ऊ सम्बोधन था “अमेरिकी बहनो और भाइयो!” हिंदू धरम का एक लाइन में इससे बढकर कोनो ब्याख्या होइये नहीं सकता है. “बसुधैव कुटुम्बकम” का जीवन पद्धति. उनका छोटा सा भासन अनेक ग्रंथ के सिच्छा से कहीं बढकर है. उस भासन को आज सवा सौ साल बीत चुका है, मगर आज के टाइम में भी अच्छर-अच्छर सही है ऊ भासन.

पेस है ऊ भासन का अनुबाद आपके लिये:

“अमेरिका के बहनो और भाइयो
 
आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। 

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है: जिस तरह अलग-अलग स्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं। 

सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज की हठधर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा.”

उस युवा सन्यासी के बात को याद करके आज सवा सौ साल बाद हम दुनिया का दुर्दसा देखते हैं तो तरस आता है. कहाँ से कहाँ आ गये हम!
                  
                                     - सलिल वर्मा

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