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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

अपनी मानवता को छोड़ हम सब जानवर हो गए - ब्लॉग बुलेटिन

नमस्कार साथियो,
गुरुवार की बुलेटिन के साथ आपके पास पुनः आये हैं. इधर दरिया में बहुत सा पानी बह गया. इसमें क्या-क्या बह गया, क्या-क्या किनारे लग गया, ये कहने-सुनने में बहुत समय निकल जायेगा. कोई अपना होकर भी अपना न हुआ, कोई गैर होकर भी अपना सा हो गया. कोई गाय खाने को आतुर दिखा, कोई गाय बचाने को व्याकुल हुआ. सफेदपोश शिकारियों के बहकावे में आकर अपनी मानवता को छोड़कर हम सब कब जानवर हो गए ये पता ही नहीं चला. कहने को तो हम इक्कीसवीं सदी में आ गए किन्तु ज्यों ही हैवानियत दिखाने का अवसर मिलता है तो हम उस युग में पहुँच जाते हैं जहाँ न वस्त्र थे, न तकनीक, न शिक्षा, न संस्कार. कब किस बिन्दु पर हम अपनी इंसानियत त्याग जानवर हो जाएँ, हमें खुद नहीं मालूम पड़ता है. क्या कहा जाये इसे, कि शिक्षा की कमी है या संस्कारों की? अपनत्व की कमी है या फिर प्रेम-स्नेह की?

बहरहाल, कितनी बार, कितनी तरह से इस बारे में कहा जाये? सबकी सुनते हैं, ज्ञान की बातें करते हैं, मुहब्बत की चर्चा करते हैं और अवसर पड़ते ही सबको विस्मृत कर देते हैं. आइये, हम संकल्प करें कि अब न कुछ विस्मृत करेंगे, न विस्मृत होने देंगे. समाज में सौहार्द्र बना रहे, अमन-चैन बना रहे, इसके लिए आवश्यक है कि हम किसी के बहकावे में न आयें, किसी तरह की साजिश का शिकार न बनें, किसी के लिए हत्या-आतंक का हथियार न बनें.

अपनी चार पंक्तियों के साथ बुलेटिन आपके समक्ष-

“दिन को काली रात बना रहे हैं सफेदपोश,
उगते सूरज को आँख दिखा रहे हैं सफेदपोश.
इंसान की तरह रहना इन्हें गंवारा नहीं,
अपने को सबका खुदा बता रहे हैं सफेदपोश.”  

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