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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (अट्ठाईसवां)




खत्म होनेवाला है हमारा इस साल का सफ़र।  2020 अपनी गुनगुनी,कुनकुनी आहटों के साथ खड़ा है दो दिन के अंतराल पर। 
चलिए इस वर्ष को विदा देते हुए कुछ बातें कहती चलूँ  ... 
यूँ तो ब्लॉग,फेसबुक के माध्यम से मैं रहती हूँ आपके बीच, लेकिन सच कहूँ तो बड़ी थकान सी लगती है।  जाने कितने एहसास सांता की तरह शब्दों की खनखनाती, सिसकती पोटली लिए मेरे पास आ बैठते हैं, और सागर की लहरों की तरह मुझे छूते हैं।  ज़ोर से झिंझोड़ते हैं, लिखो न  ... चौंक उठती हूँ, कोई और काम करती हुई कहती हूँ, "रुको थोड़ी देर" और उस थोड़ी देर को मैं भूल जाती हूँ, अनमनी सी सोचती हूँ, कुछ तो लिखना था, लेकिन क्या ??? इस तरह कितने खास एहसासों को भूल जाती हूँ या फिर कभी कभी लिखते हुए बीच में ही सोच की दिशा भटक जाती है, ऐसी हतप्रभ,आधी अधूरी जाने कितनी रचनाएं ड्राफ्ट में पड़ी रहती हैं किसी रद्दी कागज़ की तरह । और कई बार की साफ सफाई में उसे हटा देती हूँ ।
लिखना, उसे पोस्ट करके अपनी उपस्थिति दिखाना शायद मेरे जीने का एक उपक्रम है, ठीक उसी तरह जिस तरह मैं ऑनलाइन चीजें देखती हूँ, सेव करती हूँ ... फिर हटा देती हूँ या कभी बेजरूरत ऑर्डर कर देती हूँ ।
आपने देखा होगा, संभवतः शिकायत भी हुई होगी, मैं पोस्ट पढ़ती हूँ, लाइक का बटन दबाती हूँ, कुछ लिखती नहीं । पर यकीन कीजिये, बदहवास खानाबदोश की तरह इधर-उधर घूमते हुए उस लाइक का बहुत अर्थ है । 
आधे पुराने गीत सुनती हूँ, आधी पुरानी-नई फिल्म पर अटकती हूँ - मंथन करती हूँ और अचानक निर्विकार हो जाती हूँ । 
ये कहने का सिर्फ इतना ही मतलब है कि वर्षों इतना कुछ घटित हुआ है वजह बेवजह कि इस नए वर्ष में मेरा कोई वादा नहीं है - न आपसे,न खुद से । सबकुछ समय पर निर्भर है, ... हाँ, खानाबदोश की तरह दिखती रहूँगी ।
और शायद नहीं, निःसंदेह - यही बहुत है । 
  आज का आखिरी वार्षिक अवलोकन 😊

   प्रीति अज्ञात का ब्लॉग 

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बाबा की बेंत

बाबा की चमचमाती, सुन्दर, गोल घुण्डीनुमा बेंत जाने कितने ही काम आती थी। शैतान बच्चों की टोली इसकी खटखट सुनते ही गद्दों और चारपाई के नीचे साँसें रोक दुबक जाती, फिर इसी बेंत की घुंडी में उनकी टांग फँसाकर उन्हें बाहर निकाला जाता। उसके बाद पूरा घर किलकारियों से घंटों यूँ गूँजता रहता जैसे कि दीवारों ने हँसी ने घुँघरू पहन रखे हों। बच्चे डरते कहाँ थे इस बेंत से, उन्हें तो इसे थामे दादाजी का स्नेह भरा हाथ और भी लम्बा लगता था। वे कभी बाबा की पीठ पर झूला झूलते तो कभी उनकी गोदी में जा बैठते।

उन दिनों ये बेंत सबके लिए बहुत उपयोगी हुआ करती थी। कभी बिल्ली तो कभी बन्दर भगाने के भी खूब काम आती। कौन विश्वास करेगा भला कि तब रेगुलेटर खराब होने पर इससे घुमाकर पंखा तक चल जाया करता था! वैसे इसकी पहुँच दूर-दूर तक थी। पड़ोस वाले अंकल जी के बेटे राहुल को जब-जब बगिया से आम या नींबू तोड़ने होते तो तुरंत आवाज देता, "छोटू, जरा बेंत तो दे यार!"
छोटू अपनी महत्ता देख तुरंत गर्व से भर उठता। दौड़कर दादाजी के पास जाता और अपनी गोल-गोल आँखों में प्रसन्नता के हजार पंख लिए पूछता, "बाबा, ले जाऊँ न?"
यह प्रश्न पूछना एक औपचारिकता भर ही होती थी। बाबा के उत्तर देने की प्रतीक्षा करे बिना ही वह बेंत लेकर भाग उठता। बाबा भी अरे, अरे कह उसे रोकने का नाटक भर करते और दिल में खूब आशीष देते।

छोटू जिस तीव्र गति से जाता, उतनी ही गति से लौट भी आता था। वो हमेशा शर्ट को गोलमोल करता ही लौटता और उन तहों को खोलते ही सब तरफ फल बिखर जाते।
बाबा हमेशा टोकते, "क्यों रे, बेंत देने गया था या फल लेने?"
छोटू सीना चौड़ाकर इतराता, "पता है, राहुल भैया ने दिए हैं। बेंत के हुक में कट से अटकाकर झट से इत्ते सारे फल तोड़ लेते हैं। सारे अकेले कैसे खाएंगे?" उसके भोलेपन और गोल बटननुमा आँखों को मटकाते हुए चहकने के अंदाज़ पर बाबा निहाल हो उठते।

इधर घर की बहुएँ भी इसकी ठकठक सुन 'बाबूजी आ गए' कह सहज ही घूँघट खींच खुसपुस ख़ूब चुहलबाज़ियाँ करतीं। उनके लिए ये बाबा की उपस्थिति की सूचक थी, सम्मान थी।
दरअस्ल ये बेंत, बस बेंत भर नहीं थी और न बाबा का सहारा थी। उन्हें तो इसकी आवश्यकता तक न थी पर दादी के गुजर जाने के बाद इससे एक रिश्ता-सा जोड़ लिया था उन्होंने। इसे खूब चमकाकर रखते। जहाँ भी जाते, हमेशा साथ ले जाते। उनके जीवन का जरुरी हिस्सा बन गई थी ये।

बाबा अब बीमार रहने लगे थे। लेकिन अपनी बेंत को सिरहाने रख सोना कभी न भूलते। कभी रह भी जाती तो तुरंत ही किसी न किसी को आवाज़ दे पास रखवा लेते, तब ही उन्हें चैन की नींद आती। छोटे बच्चे गुदगुदाते हुए कहते कि "बाबा, ये बेंत लोरी भी सुनाती है क्या? जैसे दादी हमें सुनाया करती थीं?" दादी का ज़िक्र आते ही बाबा की आँखें
भर आतीं और रुंधे गले से हमेशा एक ही उत्तर देते, "बेटा, तेरी दादी  सा कोई न हो सकेगा। चकरघिन्नी सी लगी रहती थी दिन-रात। न जाने फिर भी इतना हँस कैसे लेती थी!" बाबा की उदासी देख बच्चे उनसे लिपट जाया करते थे। यूँ वो इन गहरी बातों का मर्म ज्यादा समझ तो नहीं पाते थे।

बेंत थी, तो जैसे ऊर्जा थी घर में! घर दिन-रात चहकता। बड़ा मान, बड़ा रौब था इसका। इससे जुड़ी शैतानियाँ थीं, अनगिनत किस्से-कहानियाँ थीं।
फिर एक दिन बाबा ऐसे सोये कि उठे ही नहीं! बाबा गए तो जैसे बेंत की आत्मा भी चली गई। बच्चों को तोड़फोड़ में मजा कम आने लगा। छोटू को अब फल तोड़ने में कोई आनंद नहीं आता था। बहुएँ चुपचाप अपनी-अपनी रसोई बनातीं और कमरे में चली जातीं। धीरे-धीरे हर बात पर लड़ाई-झगड़े होने लगे और कभी किलकारियों से गूँजता ये घर अब गहन उदासीनता से भर सायं-सायं कर काटने को दौड़ता।

एक दिन वसीयत पढ़ी गई। हर वस्तु का बँटवारा हुआ।
लेकिन उसके बाद सीढ़ियों के नीचे बने खाँचे में उपेक्षित पड़ी, वर्षों धूल खाती रही ये बेंत। 
फिर एक दिन माली काका ने इसे भुतहा घोषित कर दिया गया। 

 

रविवार, 29 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (सत्ताईसवां)




डॉ. मोनिका शर्मा का ब्लॉग

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आपसी रंजिशों से उपजी अमानवीयता चिंतनीय


अमानवीय सोच और क्रूरता की कोई हद नहीं बची है अब | छोटी-छोटी बातों से उपजी रंजिशें रक्तपात की घटनाओं का कारण बन रही हैं | हाल ही में अलीगढ़ के टप्पल इलाके में  तीन साल की बच्ची की नृशंस हत्या इसी की बानगी है |  गौरतलब है कि  हाल ही में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में  महज 10 हजार रुपए के लिए इस घटना को अंजाम दिया गया। यह रकम बच्ची के पिता से उधार ली गई थी और आरोपी उसे वापस नहीं कर पाया था।  जिसके चलते आरोपी और बच्ची के पिता के बीच बहस हुई थी |  सवाल है इस पूरे प्रकरण में उस मासूम की क्या गलती है ?  उसे किस बात की सजा दी गई ? जबकि उधार चुकाने को लेकर   परिवारजनों से बहस करने वाले आरोपी ने अपने  साथी के साथ मिल कर  बच्ची का अपहरण किया और फिर हत्या कर कूड़े में फेंक दिया | पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक, मौत का कारण दम घुटना  है | लेकिन मौत से पहले  बच्ची को बहुत ज़्यादा पीटा गया है |  आत्मा को झकझोर देने वाले इस मामले में मासूम बच्ची का सड़ा-गला देखकर शव पुलिसवालों का  ही नहीं  पोस्टमार्टम करने वाले चिकित्सकों का भी दिल दहल गया |

 दरअसल, आपसी रंजिश, बेवजह का आक्रोश और नैतिक पतन ऐसी अमानवीय घटनाओं को अंजाम देने वाले अहम् कारण बनते जा रहे हैं |  दुःखद है कि ऐसी अमानवीय वृत्तियाँ अब इंसानी मन पर कब्ज़ा जमाकर बैठ गई हैं | नतीजनतन,  ना सही गलत सोचने की सुध बची है और ना ही इंसानियत  का मान करने का भाव | ऐसे में मन को झकझोर  देने वाली इन  घटनाओं की पुरावृत्ति इनका सबसे दुखद पहलू है | छोटी बच्चियों के साथ बर्बरता की बात हो या आपसी रंजिश के चलते  जान ले लेने का मामला | ऐसी घटनाएं आये दिन हो रही हैं |  आस-पड़ोस हो,  रिश्तेदारी हो या कोई सड़क पर चलता कोई अनजान इंसान | जाने कैसा आक्रोश  है कि जान  ले लेने की बर्बर घटनाएं बहुत आम हो गई हैं  ?  इस मासूम बच्ची की हत्या की  जड़ में  भी मात्र दस हजार रुपये की उधारी ही है |

आजकल हर छोटी बात में सबक सिखाने या बदला लेने की सोच भी हावी रहने लगी है | इस मामले में भी आरोपी ने स्वीकारा है  कि उसने बेइज्जती का बदला लेने के लिए अपने साथी के  संग मिलकर  इस भयावह  घटना को अंजाम दिया है । अफसोसनाक है कि  प्रशासन-तंत्र की विफलता भी ऐसी बढती घटनाओं के लिए जिम्मेदार है |  जब तक ऐसा कोई मामला  तूल नहीं पकड़ता कोई सक्रियता नहीं दिखाई जाती   इतना ही नहीं हमारी लचर कानून व्यवस्था भी में अपराधियों को दंड का भय नहीं है |

हालिया सालों में रंजिशों के कारण हो रही हत्याओं के आंकड़े तेज़ी से बढ़े हैं | इनमें सियासी रंजिशों से लेकर सामाजिक-पारिवारिक स्तर पर भी प्रतिशोध लेने के मामले शामिल हैं |  हाल ही में सामने आये  दिल्ली पुलिस  के आंकड़ों  बताते हैं कि देश राजधानी में  वर्ष 2017 में 462 के मुकाबले 2018 में 477 लोगों की  हत्या कर दी गई। इनमें सबसे ज्यादा 38 प्रतिशत लोगों को किसी न किसी रंजिश की वजह से जान गंवानी पड़ी। हर दो दिन में औसतन तीन लोगों को किसी न किसी वजह से मौत के घाट उतार दिया गया। कई मामलों में तो बेहद छोटी सी बात पर  किस इंसान की जान ले ली गई है | कभी -कभी बरसों के मनमुटाव के बाद ऐसी घटनाओं को सोच-समझकर अंजाम दिया जाता है |  गाँव-कस्बे हों या महानगर  क्रोध और प्रतिशोध का भाव इस हद तक बढ़ गया  है कि  मामूली रंजिश में भी लोग परायों को ही नहीं अपनों को भी दर्दनाक मौत देने में नहीं चूक रहे | ऐसे  भी मामले हुए हैं जिनमें केवल शक के आधार पर आवेश में आकर अपनों-परायों की जान लेने के अपराध हुए हैं |  निःसंदेह, इन घटनाओं की बढ़ती संख्या बताती है कि अब नैतिकता के कोई मापदण्ड नहीं बचे हैं |   बस, कहीं बदला लेने का भाव बाकी है तो कहीं सबक सिखाने की सोच |

विचारणीय है कि इन मामलों से अब एक और पहलू भी जुड़ गया है | अब मन को उद्वेलित करने वाली इन घटनाओं के प्रति भी जुर्म का विरोध करने का  भाव  नहीं बल्कि चुनी हुई चुप्पी या मुखरता देखने को मिलती है | सवाल यह है कि जिस समाज में जघन्य अपराधों का विरोध भी सलेक्टिव अप्रोच के साथ किया जाये वहां आपराधिक  प्रवृत्ति के लोगों को डर हो भी तो  किसका ?  अब इस बंटे हुए समाज में बेटियों को सुरक्षा का भरोसा दे भी कौन ?  हाँ,  हम भूल रहे हैं कि धर्म, सम्प्रदाय और  जात -पात के खांचे में  बंटकर हम इस अमानवीयता को और  खाद  पानी दे रहे हैं | जबकि इस  भेदभाव का फर्क तक ना समझने वाली  मासूम बच्चियां आये दिन हो रहे बर्बर मामलों में एक इंसान होने की ख़ता की सजा भोग रही  हैं | ऐसी घटनाओं को लेकर दी जा रहीं प्रतिक्रियाएं हों या मौन रहने चुनाव  | समाज के  विद्रूप हालातों के बारे में  तो सोचा  ही नहीं जा रहा है | सार्थक कानूनी बदलावों और सक्रिय कार्रवाई करने का दबाव बनाने के बजाय बहुत कुछ आरोप-प्रत्यारोपों तक सिमट जाता है | जिसका फायदा आपराधिक प्रवृत्ति के लोग उठाते हैं | कानून और प्रशासनिक अमले की लचरता तो  पहले से ही निराश करने वाली है |  ऐसे में समाज का यूँ   बंटना वाकई तकलीफदेह है |

यह एक कटु सच है कि समाज में हर स्तर पर लोगों में असंतोष और अधीरता की भावना पनप रही है।  ऐसी  घटनाएं आक्रोश, असहिष्णुता और मानसिक रुग्णता की  बानगी बन रही हैं  | आज की आपाधापी ने सबसे पहले हमारा धैर्य ही छीना है | जिसके चलते नकारात्मकता और बेरहमी भी हमारे जीवन में घुसपैठ करने में कामयाब हुई है | अफ़सोस कि यह हिंसक व्यवहार अब आम जीवन में  अपनी इतनी दखल रखने लगा है कि ऐसे बर्बर मामले सामने आ रहे हैं | 



शनिवार, 28 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (छब्बीसवां)



मीना भारद्वाज का ब्लॉग

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"दृष्टिकोण"

अक्सर पढ़ती हूँ तीज-त्यौहारों के संबन्धित विषयों
के बारे में..अच्छा लगता है भिन्न- भिन्न प्रान्तों के
रीति-रिवाजों के बारे में जानना । इन्द्रधनुषी सांस्कृतिक विरासत है हमारी ..संस्कृति  की यही तो खूबी है कि
 वह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है । निरन्तरता में नव-पुरातन
घुल-मिल जाता है मिश्री और पानी की तरह मगर
 उसका मूल नष्ट नही होता । इसी संस्कृति से हमारे
 आचार विचार पोषित होते हैं । मगर मन खट्टा हो
जाता है जब इस तरह के क्रिया - कलापों  की
 आलोचनाएँ पढ़ती हूँ  ।   नारी का साज-श्रृंगार
 उसकी सुन्दरता के साथ साथ उसकी सम्पन्नता का
 प्रतीक है । यही नहीं प्राचीनकाल का इतिहास यदि
चित्रों के माध्यम से समझने और देखने का प्रयास
करें तो पुरूष वर्ग भी महिला वर्ग के समान आभूषणों
 से सजा दिखाई देता है ।
  बाहरी आक्रमणकारियों के आने के बाद 'सोने की चिड़िया' हमारे देश की स्वर्णिम व्यवस्था चरमराई और
 फिर रही सही कमी ब्रिटिशसरस् ने पूरी कर दी ।
आधुनिकता के नाम पर पायल , कंगन और अन्य वस्त्राभूषण को गुलामी या परतंत्रता का प्रतीक मानना ,
 व्रत- पूजा पाठ को दकियानूसी विचार मानना  मुझे तो किसी भी नजरिए से तर्क संगत नजर नहीं आता । केवल विरोध करना है तो करना है यह एक अलग पहलू है ।
आज की अधिकांश महिलाएं शिक्षित और परिपक्व सोच रखती हैं यह उनके स्वविवेक पर निर्भर करता है कि
उन्हें क्या करना है ।
व्रत , उपासना , पूजा-अर्चना करना या ना करना उनकी व्यक्तिगत भावना और आध्यात्म से जुड़ाव की भावना है । रीति-रिवाजों के लिए जबरन विचार थोपे जाएँ तो यह अवश्य गलत होगा और इस तरह की बातों का विरोध भी पुरजोर होना चाहिए मगर स्वेच्छा से किये गए सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कार्यों की आलोचना अनुचित है ।  हमारे विचार किसी दूसरे के विचारों से मेल खायें या नहीं  खायें
 यह अलग विषय है लेकिन हमें दूसरों के विचारों का सम्मान अवश्य करना चाहिए ।

★★★★★


शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (पच्चीसवां)




अंशुमाला और उनका ब्लॉग
http://mangopeople-anshu.blogspot.com/


लिफ्ट , घुटनो का दर्द और मर्फी के नियम -------mangopeople
हम दूसरी मंजिल पर रहते हैं इतने सालों में भी लिफ्ट के उपयोग की आदत ना बनी | लिफ्ट का उपयोग तभी करते जब हाथो में भारी सामान हो | दो साल पहले तक जिस आदत को अच्छा मानते थे उसे फिजियोथेरेपिस्ट ने ना केवा ख़राब आदत घोषित कर दिया बल्कि उतरने चढने के लिए लिफ्ट का उपयोग करने की सलाह दे दी | अब अचानक से लिफ्ट के इंतज़ार में खड़े होने की आदत कहाँ से आती , तो सीढ़ियों का उपयोग जारी रहा लेकिन हील की सैंडिल के प्रेम ने लिफ्ट के दरवाजे दिखा दिए और शुरू हुआ हमारी ईमारत के एकमात्र लिफ्ट पर मर्फी का पता नहीं कौन से नंबर का नियम लागू होना |
१- हम अगर बाहर से आये तो लिफ्ट कभी भी ग्राउंड फ्लोर पर नहीं होती | वो सैकेंड से लेकर टॉप फ्लोर पर कहीं भी अटकी रहती हैं |
२- हम सैकेंड फ्लोर पर हैं तो लिफ्ट पक्का वहां नहीं होगी वो ग्राउंड या टॉप पर होगी या हमारे सामने से ऊपर जा रही होगी |
३- हम बाहर से आते हैं और लिफ्ट सामने खड़ी दिखती हैं जैसे ही उसकी तरफ बढ़ते हैं वो हमें लेने से पहले ही ऊपर की और चल देती हैं |
४- अगर हम इंतज़ार करे की चलो वो नीचे आयेगी फिर जायेंगे , तो वो पक्का टॉप फ्लोर तक जायेगी और कभी कभी तो हर फ्लोर पर रुकती हुई जाएगी |
५- ऊपर जाती लिफ्ट को देखकर जिस दिन हम सोचते हैं कि छोडो इंतजार क्या करे सीढ़ी से चढ़ जाते हैं तो लिफ्ट पक्का फर्स्ट फ्लोर पर ही हमारा इंतज़ार कर रही होती हैं |
६- जिस दिन हम सोचते हैं आज तो टॉप फ्लोर से बुला कर लिफ्ट से ही नीचे उतरेंगे चाहे कुछ हो जाये | उस दिन लिफ्ट जब दूसरी मंजिल पर हर मंजिल पर रुकते हुए आती हैं तो इतनी भरी रहती हैं कि उसमे समाया नहीं जा सकता हैं |
७- कई बार तो ऐसा होता हैं बिटिया को दौड़ा कर भेजते हैं जाओ लिफ्ट रोको मैं सामान ले कर आ रहीं हूँ तो उस दिन तो लिफ्ट ही बंद मिलती हैं , या तो ख़राब होगी या फिर मेन्टेन्स हो रहा होता हैं |
८- कभी कभी लिफ्ट के पास पहले से ही इतने लोग खड़े होते हैं और वो भी सबके सब सबसे ऊपरी मंजिल वाले की लगता हैं इनका जाना ज्यादा जरुरी हैं | अपना बोझा सीढ़ी से ही ढोना बेहतर हैं |
९- कभी कभी कचरे वाली अपने कचरे के गंदे डब्बे के साथ खड़ी मिलेगी लिफ्ट की इंतज़ार में | फिर लगेगा नाक बंद करके लिफ्ट से जाने से अच्छा हैं साँस फुला कर सीढ़ियों से चले जाए ज्यादा सही रहेगा |
१०- कभी उत्साहित बच्चों की भीड़ रहेगी और दो चार बुजुर्ग , तो आप को अपने नागरिक कर्तव्यों को याद करना होता हैं , पहले आप जाए , हमारा क्या हैं ईमारत में ये सीढियाँ हमारे लिए ही बनी हैं |
११ - कभी कभी लिफ्ट के बाहर इंतज़ार करती पहली मंजिल पर रहने वाली वो पड़ोसन मिलेगी जिसका वजन सवा सौ किलो से पाव भर भी कम ना होगा | उसके देखते ही वजन बढ़ने की चिंता इतने भयानक होती हैं कि मारों गोली घुटनों को , कम से कम सीढियाँ चढ़ उतर कर सौ दो सौ ग्राम वजन रोज तो बढ़ने से रोक ही सकते हैं | तो सीढियाँ जिंदाबाद |
१२ - फिर कभी सामने से लिफ्ट एकदम से हमारे सामने नीचे आती और रुकती दिखती हैं और हम पूरी तरह से ऊपरवाले को धनबाद , पटना दे ही रहे होते हैं कि उसमे से चिपकू बकबकिया पड़ोसन हमें देखते मुस्कराते निकलेंगी और अरे बड़े दिनों के बाद दिखी से शुरू होती हैं तो खड़े खड़े दस पंद्रह मिनट निकल जाते हैं | उतने के बीच लिफ्ट चार बार ऊपर नीचे कर लेती हैं और जब वो जाती हैं तो लिफ्ट भी उनके साथ ऊपर की और जाते देख मन मसोस हम फिर सीढ़ियों की शरण में होते हैं |

फिर इन तमाम तरह की दुश्वारियों से तंग आ कर हमने तय किया कि बस अब और लिफ्ट को भाव ना दिया जायेगा और उसकी जगह अपनी प्यारी हील के सैंडिलों की ही तिलांजलि दी जायेगी | बहुत जरुरत हुआ तो सैंडिल हाथ में लेकर सीढियाँ उतर जायेंगे और क्या 😁

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (चौबीसवां)



मुकेश कुमार सिन्हा का ब्लॉग, 

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jindagikeerahen.blogspot.com




बचपन में थी चाहतें कि
बनना है क्रिकेटर
मम्मी ने कहा बैट के लिए नहीं हैं पैसे
तो अंदर से आई आवाज ने भी कहा
नहीं है तुममे वो क्रिकेटर वाली बात
वहीं दोस्तों ने कहा
तेरी हैंडराइटिंग अच्छी है
तू स्कोरर बन
और बस
इन सबसे इतर
फिर बड़ा हो गया
जिंदगी कैसे बदल जाती है न

सुर चढ़ा बनूंगा कवि, है न सबसे आसान
पर
हिंदी की बिंदी तक तो लगाने आती नहीं
फिर भी घालमेल करने लगे शब्दों से
भूगोल में विज्ञान का
प्रेम में रसायन का
गणित के सूत्रों से रिश्ते का
रोजमर्रा के छुए अनछुए पहलुओं का
स्वाद चखने और चखाने की
तभी किसी मित्र जैसे, ने मारा तंज़
कभी व्याकरण पढ़ लो पहले
तुकबंदी मास्टर

पर होना क्या था
मृत पड़े ज्वालामुखी से रिसने लगी
श्वेत रुधिर की कुछ बूँदें
जो सूख कर
हो गई रक्ताभ,
खैर न बन पाये तथाकथित कवि
बदलती जिंदगी कहाँ कुछ बनने देता है
कभी दिल से रही करीब, एक खूबसूरत ने
कहा, रहो तुम अपने मूल आधार से करीब
यही अलग करती है तुमको, सबसे
दिमाग का भोलापन ऐसा कि
स्नेह से सिक्त उसके माथे से चुहचुहाती बूंद के
प्रिज़्मीय अपवर्तन में खोते हुए
की कोशिश ध्यान की
की कोशिश मूलाधार चक्र को जागृत करने की

अजब गज़ब पहल करने की ये कोशिश कि
कोशिकाओं की माइटोकॉन्ड्रिया
जो कहलाती है पावर हाउस,
ने लगा दी आग
तन बदन में
जिंदगी फिर भी कहकहे लगाती हुई खुद से कहती है
क्या कहूँ अब जिंदगी झंड ही होती रही
फिर भी बना रहा है घमंड
आखिर खुशियों का ओवेरडोज़
दर्द भरी आंखो मे कैसे बहता होगा
पर बहाव ओवरडोज़ का हो या भावो के अपचन का
लेकिन इंद्रधनुष देखने को भीगापन तो चाहिए ही।

है न।

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (तेइसवां)




अनीता निहलानी का ब्लॉग




वर्तमान का यह पल


घट रहा है जीवन अनंत-अनंत रूपों में
 वर्तमान के इस छोटे से पल में
सूरज चमक रहा है इस क्षण भी
अपने पूरे वैभव के साथ आकाश में
गा रहे हैं पंछी.. जन्म ले रहा है कहीं, कोई नया शिशु
फूट रहे हैं अंकुर हजार बीजों में
गुजर रही है कोई रेलगाड़ी किसी सुदूर गांव से
निहार रही हैं आँखें क्षितिज को किसी किशोरी की जिसकी खिड़की से
वर्तमान का यह पल नए तारों के सृजन का साक्षी है
पृथ्वी घूम रही है तीव्र गति से सूर्य की परिक्रमा करती हुई
यह नन्हा क्षण समेटे है वह सब कुछ
जो घट सकता है कहीं भी, किसी भी काल खंड में
सताया  जा रहा है कोई बच्चा
और  दुलराया भी जा रहा हो
कोई वृक्ष उठाकर कन्धों पर ले जा रहे होंगे कुछ लोग
कहीं तोड़ रहे होंगे फल कुछ शरारती बच्चे
इसी क्षण में रात भी है गहरी नींद भी
स्वप्न भी, सुबह भी है भोर भी
जो जीना चाहे जीवन को उसकी गहराई में
जग जाए वह वर्तमान के इस पल में
जिसमें सेंध लगा लेता है अतीत का पछतावा
भविष्य की आकांक्षा, कोई स्वप्न या कोई चाह उर की
हर बार चूक जाता है जीवन जिए जाने से
हर दर्द जगाने आता है
कि टूट जाये नींद और जागे मन वर्तमान के इस क्षण में...

सोमवार, 23 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (बाईसवां)




साधना वैद का ब्लॉग  -  

Sudhinama





मत करना आह्वान कृष्ण का


जीवन संग्राम में
किसी भी महासमर के लिये
अब किसी भी कृष्ण का
आह्वान मत करना तुम सखी !
किसी भी कृष्ण की प्रतीक्षा
मत करना !
इस युग में उनका आना
अब संभव भी तो नहीं !
और उस युग में भी
विध्वंस, संहार और विनाश की
वीभत्स विभीषिका के अलावा
कौन सा कुछ विराट,
कौन सा कुछ दिव्य,
और कौन सा कुछ
गर्व करने योग्य
दे पाये थे वो ?
जीत कर भी तो
सर्वहारा ही रहे पांडव !
अपनी विजय का कौन सा
जश्न मना पाये थे वो ?
पांडवों जैसी विजय तो
अभीष्ट नहीं है न तुम्हारा !
इसीलिये किसी भी युग में
ऐसी विजय के लिये
तुम कृष्ण का आह्वान
मत करना सखी !
विध्वंस की ऐसी विनाश लीला
अब देख नहीं सकोगी तुम
और ना ही अब
हिमालय की गोद में
शरण लेने के लिये
तुममें शक्ति शेष बची है !

रविवार, 22 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (इक्कीसवां)




राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर का ब्लॉग,

आभासी दुनिया के संबंधों की वास्तविकता

तकनीकी रूप से कई बार आभास होता है कि हम बहुतों से बहुत पीछे हैं, बहुत पिछड़े हैं. हमारे साथ के ही बहुत से लोग हमसे कई सालों पहले से कंप्यूटर का उपयोग करने लगे थे. हमने पहली बार कंप्यूटर का आंशिक उपयोग शायद 1999 में करना शुरू किया था. हालाँकि देखने और छूने को तो सन 1992 में ही मिल गया था. इसके बाद पूरी तरह से उपयोग करना सन 2006-07 में करना शुरू किया था, जबकि एक सेकेण्डहैण्ड कंप्यूटर किसी काम के लिए हमने लिया था. उसके बाद लगातार सीखते रहे, काम करते रहे. इसी सबमें इंटरनेट से, ब्लॉग से, सोशल मीडिया से जुड़ना हुआ. इन सबमें आने के बाद भी एक तरह से अशिक्षित रहे, अनाड़ी ही रहे. जैसे-जैसे लोगों से मिलना-जुलना होता रहा, विचारों का आदान-प्रदान होता रहा तो मालूम पड़ता रहा कि लोग इस क्षेत्र में भी हमसे कई-कई साल पहले आ चुके हैं. अपनी आदत के अनुसार संबंधों का विस्तार करते रहे. संबंधों का बनना लगातार होता रहा. नए-नए लोगों से मिलना होता रहा. ब्लॉग की दुनिया के साथ-साथ सोशल मीडिया की दुनिया में लोगों से मेलजोल बनता रहा. इन सबके बीच लगातार यह आभास बना रहा, एहसास होता रहा कि सोशल मीडिया की दुनिया पूरी तरह से आभासी ही है. लोग माने या न माने मगर ऐसा उन सभी के व्यवहार से भी लगता रहा कि सोशल मीडिया की दुनिया आभासी दुनिया है.

ऐसा इसलिए क्योंकि सोशल मीडिया में या कहें कि इस आभासी दुनिया में सम्बन्ध दो तरह के लोगों से बनते समझ आये. एक तो वे लोग थे जिनसे विशुद्ध सोशल मीडिया के चलते ही सम्बन्ध बने. ऐसे लोगों से पहले किसी भी तरह से कहीं भी मिलना नहीं हुआ था. दूसरे वे लोग आभासी दुनिया में जुड़े जो उससे कहीं पहले से हमारे संपर्क में थे, हमसे जिनके सम्बन्ध थे. ऐसे लोग इन्हीं संबंधों को ए धरातल पर एक नया स्वरूप देने के लिए आभासी दुनिया में एक-दूसरे से जुड़े, सोशल मीडिया पर एक-दूसरे के साथ मित्र रूप में जुड़े. ये सम्बन्ध आभासी दुनिया के मुकाबले जमीनी सम्बन्ध कहे जा सकते हैं, जो बहुत पहले से एक-दूसरे पर विश्वास करके, स्नेह करके ही बने हुए थे. ये ज़मीनी सम्बंध जब आभासी दुनिया में मिले तो उनमें तमाम विरोधों के बाद भी खटास नहीं आई. उनको आभासी दुनिया के पहले से सम्बन्धों का लिहाज़ था, आत्मीयता का एहसास था. ऐसे सम्बन्धों ने किसी कारण से आभासी दुनिया के सम्बन्धों को बंद किया तो भी वास्तविक दुनिया के अपने सम्बन्धों में वही परिपक्वता बनाए रखी, जो कभी थी.

इसके उलट आभासी दुनिया के सम्बन्धों ने जब वास्तविक दुनिया में आकार लेना चाहा तो उनमें तब तक ही आत्मीयता दिखाई दी, जब तक वैचारिक रूप से दोनों तरफ़ से एक जैसी समान बातें होती रहीं. दोनों तरफ़ से एक-दूसरे की तारीफ़ के क़सीदे काढ़े जाते रहे. इससे ज़रा सा भटकते ही रिश्ते ख़त्म. आभासी दुनिए के ऐसे सम्बन्धों में वे तमाम लोग शामिल रहे जिन्होंने अपने को बिलकुल पारिवारिक स्तर पर हमसे जोड़ कर प्रस्तुत किया. ऐसे लोग भी सामने आये जिन्होंने अपनी परेशानियों को आत्मीय रूप में हमसे शेयर किया, उनका समाधान पाया. बहुत से ऐसे लोग सोशल मीडिया के द्वारा हमसे जुड़े जिन्होंने हमसे बहुत कुछ सीखने का दावा किया. जिन्होंने लेखन में, फोटोग्राफी में, व्यवहार निर्वहन में, भाषण देने की कला में हमसे बहुत कुछ सीखने की बात स्वीकारी, मित्र के साथ-साथ हमें अपने गुरुरूप में स्वीकारने का भाव प्रकट किया. इन संबंधों में वैचारिकी महज यहीं तक सीमित नहीं रही. संबंधों का एहसास महज यहीं तक नहीं रहा. आभासी दुनिया के संबंधों को, सोशल मीडिया के आभासीपन को झुठलाने की कोशिश में ऐसे संबंधों का विस्तार इस आभासी दुनिया से बाहर आकर जमीनी रूप में अपना स्वरूप विकसित करने लगा.

बहुत से लोगों का घर आना भी हुआ. रुकना, रहना हुआ, साथ घूमना-फिरना हुआ. हमारा भी बहुत से लोगों के घर जाना हुआ. यदि किसी कारणवश एक-दूसरे के घर आना-जाना नहीं हो सका तो कहीं न कहीं, किसी न किसी कार्यक्रम में मुलाकातों के द्वारा आभासी संबंधों को वास्तविकता का जामा पहनाने की कोशिश की गई. ऐसे प्रयासों के बाद भी, लगातार मिलने-जुलने, बातचीत के बाद भी ये सम्बन्ध तनिक सी वैचारिकी मेल न खाते ही समाप्त हो गए. जमीनी संबंधों के मुकाबले बहुत ही कमजोर आधारभूमि पर बने इन संबंधों ने एक झटके में न केवल अपनी फ़्रेंड लिस्ट से बाहर किया बल्कि कई बार ब्लॉक भी किया. महज इतने से अभी संबंधों का समापन होना शायद आभासी दुनिया को मंजूर नहीं था सो उनको वास्तविकता का जो आँचल ओढ़ाया गया था, उसे भी समाप्त किया गया. न सिर्फ़ ख़त्म बल्कि ऐसे समाप्त किया जैसे कभी मिले नहीं, कभी जाना ही नहीं. आख़िर आभासी से वास्तविकता में जाना और उसे बनाए रखना अत्यंत कठिन होता है.

ऐसी स्थिति कष्टकारी होती है, खासतौर से उस स्थिति में जबकि संबंधों का निर्वहन दिल से करने की बात कही जा रही हो. पिछली कई बार की तरह पुनः निवेदन कि हम भी साधारण से इंसान हैं. हमारे लेखन, किसी कार्य से हमारे प्रति कोई विशेष धारणा न बनाएँ. किसी तरह का आदर्श, मानक हममें न तलाशें. एक पल में हमें आदरणीय बना-बताकर, सम्मानजनक दर्जा देने के बाद अगले ही पल धरती पर पटक देते हैं. कृपया सम्बन्धों को उसी स्थिति तक बनाए रखें, जितने आप हमसे निभा सकें. आभासी दुनिया के बहुत से पुरोधाओं के अतीत को देखते हुए लगता है कि बहुतों से तकनीकी रूप से तो पिछड़े हैं ही, अब कई बार लगता है कि सोशल मीडिया के या फिर आभासी दुनिया के संबंधों का निर्वहन करने में भी हम पिछड़े ही हैं. पता नहीं कब ऐसे संबंधों का निर्वहन करने की योग्यता हममें विकसित हो पायेगी, हो भी पायेगी या नहीं?
 

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (बीसवां)




प्रतिभा सक्सेना का ब्लॉग 

 मुझे नींद से डर लगता है.  


बिलकुल नही सो पाती ,
यों ही बिलखते ,
कितने दिन हो गए !

 झपकी आते ही 

चारों ओर  वही भयावह घिर आता है -
नींद के अँधेरे में अटकी मैं,
पिशााचों का घेरा  .  

बस में खड़ी बेबस  झोंके खाती देह , 

 आगे पीछे,इधऱ से उधर से ,उँगलियाँ कोंचते 
ज़हर भरी फुफकार छोड़ते बार-बार .
सिमटती देह पर .  
अँगुलियाँ नहीं, लपलपाते साँप हैं ये ,
 देह से लटके, नर के प्रतीक.

आँखों में गिजगिजी तृष्णा लिये 

चीथते हैं अंग-अंग.
चीख निकलती नहीं,जीभ काठ, 
हाथ-पाँव सुन्न 
दिमाग़ शून्य.
चारों ओर वही सब ,
कहीं छुटकारा नहीं.

देह नुच-नुच कर चीथड़ा , 

हर साँस ज्यों तीर की चुभन .
  वीभत्स , घोर यंत्रणा ,
 उफ़्फ़ ,कहाँ जाऊँ ?
कैसे पार पाऊँ? 

अरे, कोई काट फेंको 

इन ज़हरीले साँपों को .
डसते-दाघते रहेंगे , 
नारी देह हो बस 
बचपन ,जवानी ,बुढ़ापा 
कोई अंतर नहीं पड़ता इन्हें.

घबरा कर आँखें खोल देती हूँ.

 समय वहीं थम गया है .
 नहीं, नहीं सो सकती,
मुझे नींद से डर लगता है.

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (उन्नीसवां)




शिखा वार्ष्णेय के 

भुक्खड़ घाट Bhukkhad Ghat पर जाना बेहद ज़रूरी है  ... 

क्योंकि भूखे पेट भजन ना होये !

और पेट भरने के लिए चटक मटक तो होना ही चाहिए।  इसी चोखे स्वाद के लिए कह रही हूँ, इस घाट पर पधारो -





बिना दाल और तेल का मेदू वड़ा

सामग्री -

3 ब्रेड के पीस
1/ 2 कप सूजी
1/4 कप चावल का आटा
1/2 कप दही
1 हरी मिर्च बारीक कटी हुई
4 -5 करी पत्ता बारीक कटे हुए
1 मध्यम प्याज बारीक कटा हुआ
1 इंच अदरक बारीक कटा हुआ
एक चुटकी हींग
1 चम्मच तेल
नमक स्वादनुसार

विधि -

ब्रेड पीस को पानी में भिगोकर छोटे टुकड़ों में तोड़ कर एक बड़े बर्तन में रखें.
इसमें सूजी, चावल का आटा और दही डालें.
और अच्छी तरह मिलाकर 10 मिनट के लिए ढक कर रख दें
अब इसमें बाकी सब चीजें डालें और एक मुलायम आटा गूंथ ले
आटा गूंथने के समय आवश्यकता अनुसार कम या ज्यादा दही का प्रयोग किआ जा सकता है
अब इस गिनते हुए मिक्सर के छोटे छोटे गोले लेकर. हथेली पर थोड़ा पानी लगाकर वडे बनाएं और एयर फ्रायर के ऊपर वाले शेल्फ पर रखें.
वड़ों के दोनों तरफ ब्रश से थोड़ा थोड़ा तेल लगा दें
अब इन्हें पहले 8 मिनट के लिए रखें. फिर पलट कर 8 मिनट के लिए रखें .
बस ... आपके हेल्थी, तुरत फुरत मेदू वडे तैयार हैं... इसे बेशक नारियल की चटनी के साथ खाएं या किसी कैचप से... स्वादिष्ट लगेंगे.

* आप इन्हें एयर फ्रायर की जगह अप्पे पैन में भी बना सकते हैं. 

बुधवार, 18 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (अठारहवां)







मीना शर्मा का ब्लॉग 
  प्रतिध्वनि  
https://rwmeena.blogspot.com/

काश - प्रतिध्वनि




काश !

"माँ, नदी देखने चलोगी ?"

मेरे बीस वर्ष के बेटे ने ये सवाल किया तो लगा सचमुच वह बड़ा हो गया है । वह अच्छी तरह जानता है मुझे नदी देखना कितना अच्छा लगता है।

बारिश के मौसम में उफनती नदी को देखना ऐसा लगता है मानो किसी ईश्वरीय शक्ति का साक्षात्कार हो रहा हो । रेनकोट पहनकर मैं तुरंत तैयार हो गई । तेज बारिश हो रही थी। दस मिनट में हम पुल पर थे जिसके नीचे से उल्हास नदी अपने पूरे सौंदर्य और ऊर्जा के साथ प्रवाहमान हो रही थी ।

"बाबू , चल ना दो मिनट किनारे तक चलें, कोई रास्ता है क्या
नीचे उतरने का ?" मैंने पूछा।

"हाँ , है तो । लेकिन सिर्फ दो मिनट क्योंकि इस समय काफी सुनसान रहता है वहाँ नीचे। पुल के ऊपर से आप चाहे जितनी देर देख लो ।"

पुल से नीचे उतरने वाली ढलान पर गाड़ी रोक कर लॉक की और हम नीचे उतर कर नदी के किनारे खड़े हो गए ।

उस वक्त नदी में कल-कल का संगीत नहीं था, घहराती हुई गर्जना थी .. तभी कुछ दूरी पर किनारे बैठे युवक की ओर ध्यान खिंच गया । वह घुटनों में सिर छुपाए बैठा था । दीन - दुनिया से बेखबर !

मैंने बेटे की ओर देखा लेकिन मेरे कुछ कहने से पहले ही मेरा समझदार सुपुत्र बोल उठा, "बस, अब आप कुछ कहना मत । वह लड़का वहाँ क्यों बैठा है, कौन है , ये सब मत पूछना प्लीज.. अब जल्दी चलें यहाँ से।"

"लेकिन वह अकेला क्यों बैठा है ? डिप्रेशन का शिकार लग रहा है बेचारा।"
   
"कुछ नहीं डिप्रेशन - विप्रेशन । ये अंग्रेज चले गए डिप्रेशन छोड़ गए । जिम्मेदारियों से भागने का सस्ता और सरल उपाय! बस डिप्रेशन में चले जाओ । आप नहीं जानतीं। ये चरसी या नशेड़ी होगा कोई । आप चलो अब ।"

"अरे , मैं नहीं बात करूँगी, तू तो एक बार पूछ कर देख। शायद उसे किसी मदद की जरूरत हो ।"

"नहीं ममा, आप चलो अब । बारिश बढ़ गई है और यह जगह
कितनी सुनसान है ।" अब बेटे के स्वर में चिढ़ और नाराजगी साफ जाहिर हो रही थी ।

मजबूर होकर मैं घर चली आई । घुटनों में सिर छुपाए बैठा वह लड़का दिमाग से निकल ही नहीं रहा था ।

अगले दिन.....सुबह सैर के लिए निकली । पड़ोस के जोगलेकर जी हर सुबह नदी किनारे तक सैर करके आते हैं । मैं नीचे सड़क पर आई तो वे मिल गए । हर रोज की तरह प्रफुल्लित नहीं लग रहे थे ।  मैंने पूछा -- "क्या बात है भाई साहब, तबीयत ठीक नहीं है क्या ?"

थके से स्वर में बोले, "क्या बताऊँ, सुबह-सुबह इतना दुःखद दृश्य देखा । नदी से दो लाशें निकाली हैं पुलिस ने । एक लड़के और लड़की की । आत्महत्या का मामला लग रहा है ।"

मेरा सिर चकरा गया । घुटनों में सिर छुपाए वह लड़का आँखों के सामने घूम गया । कहीं वही तो नहीं.....

जिंदगी में अनेक बार ऐसे प्रसंग आए हैं जब घटना घटित हो जाने के बाद सोचती रह गई हूँ --

काश.......

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (सत्रहवां)





श्वेता सिन्हा का ब्लॉग 

मन के पाखी



सृष्टि

प्रसूति-विभाग के
भीतर-बाहर
साधारण-सा दृष्टिगोचर
असाधारण संसार
पीड़ा में कराहते
अनगिनत भावों से
बनते-बिगड़ते,
चेहरों की भीड़
ऊहापोह में बीतता
प्रत्येक क्षण
तरस-तरह की मशीनों के
गंभीर स्वर से बोझिल
वातावरण में फैली
स्पिरिट,फिनाइल की गंध
से सुस्त,शिथिल मन,
हरे,नीले परदों को
के उसपार कल्पना करती
उत्सुकता से ताकती
प्रतीक्षारत आँखें
आते-जाते
नर्स,वार्ड-बॉय,चिकित्सक
अजनबी लोगों के
खुशी-दुख और तटस्थता
में लिपटे चेहरों के
परतों में टोहती
जीवन के रहस्यों और
जटिलताओं को,
बर्फ जैसी उजली चादरों
पर लेटी अनमयस्क प्रसूता
अपनी भाव-भंगिमाओं को
सगे-संबंधियों की औपचारिक
भीड़ में बिसराने की कोशिश करती
अपनों की चिंता में स्वयं को
संयत करने का प्रयत्न करती,
प्रसुताओं की
नब्ज टटोलती
आधुनिक उपकरणों से
सुसज्जित
अस्पताल का कक्ष
मानो प्रकृति की प्रयोगशाला हो
जहाँ बोये गये
बीजों के प्रस्फुटन के समय
पीड़ा से कराहती
सृजनदात्रियों को
चुना जाता है
सृष्टि के सृजन के लिए,
कुछ पूर्ण,कुछ अपूर्ण
बीजों के अनदेखे भविष्य
के स्वप्न पोषित करती
जीवन के अनोखे
रंगों से परिचित करवाती
प्रसूताएँ.....,
प्रसूति-कक्ष
उलझी पहेलियों
अनुत्तरित प्रश्नों के
चक्रव्यूह में घूमती
जीवन और मृत्यु के
विविध स्वरूप से
सृष्टि के विराट रुप का
 साक्षात्कार है।

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (सोलहवां)




दिगंबर नासवा जी के स्वप्न 


घर मेरा टूटा हुआ सन्दूक है ...

घर मेरा टूटा हुआ सन्दूक है

हर पुरानी चीज़ से अनुबन्ध है    
पर घड़ी से ख़ास ही सम्बन्ध है
रूई के तकिये, रज़ाई, चादरें  
खेस है जिसमें के माँ की गन्ध है
ताम्बे के बर्तन, कलेंडर, फोटुएँ
जंग लगी छर्रों की इक बन्दूक है
घर मेरा टूटा ...

"शैल्फ" पे  चुप सी कतारों में खड़ी  
अध्-पड़ी कुछ "बुक्स" कोनों से मुड़ी
पत्रिकाएँ और कुछ अख़बार भी
इन दराजों में करीने से जुड़ी
मेज़ पर है पैन, पुरानी डायरी
गीत उलझे, नज़्म, टूटी हूक है
घर मेरा टूटा ....

ढेर है कपड़ों का मैला इस तरफ
चाय के झूठे हैं "मग" कुछ उस तरफ
फर्श पर है धूल, क्लीनिंग माँगती
चप्पलों का ढेर रक्खूँ किस तरफ
जो भी है, कडुवा है, मीठा, क्या पता
ज़िन्दगी का सच यही दो-टूक है
घर मेरा टूटा ...

जो भी है जैसा भी है मेरा तो है
घर मेरा तो अब मेरी माशूक है
घर मेरा टूटा ...




रविवार, 15 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (पन्द्रहवां)




गगन शर्मा का ब्लॉग 

कुछ अलग सा

http://kuchhalagsa.blogspot.com/



अपने इतिहास को जानना भी जरुरी है

बहुत खेद हुआ जब हल्दीघाटी के बारे में एक दसवीं के छात्र ने अनभिज्ञता दर्शाई ! हल्दीघाटी तो एक मिसाल भर है। ऐसी  शौर्य, साहस , निडरता, देशप्रेम की याद दिलाने वाली सैंकड़ों जगहें हैं जो हमारे गौरवशाली इतिहास की प्रतीक है ! पर दुःख इसी बात का है कि हमारी तथाकथित आधुनिक शिक्षा प्रणाली में ऐसे विषयों की कोई अहमियत नहीं रह गयी है। जिसके फलस्वरूप आज के बच्चों को तो छोड़िए उनके अभिभावकों तक को इनके बारे में पूरी और सही जानकारी नहीं है ! इसमें उनका कोई दोष भी नहीं है, जब आप किसी चीज के बारे में बताओगे ही नहीं तो उसके बारे में किसी को क्या जानकारी होगी ......... !

#हिन्दी_ब्लागिंग
हल्दीघाटी, नाम सुनते ही जो पहली तस्वीर दिमाग में बनती है वह एक पर्वतीय घाटी में राणा प्रताप और मुगलों के बीच हुए भीषण युद्ध का खाका खींच देती है। अधिकांश लोगों को यही लगता है कि यह पहाड़ियों के बीच स्थित बड़ी सी जगह होगी जहां प्रताप ने मुगलों के दांत खट्टे कर दिए थे। पर सच्चाई कुछ और है। हल्दी घाटी उदयपुर से तक़रीबन 48 की.मी. की दूरी पर अरावली पर्वत शृंखला में खमनोर और बलीचा गांवों के बीच लगभग एक की.मी. लंबा और लगभग 17-18 फुट चौड़ा, एक दर्रा (pass) मात्र है। जहां 18 जून 1576 में राणा प्रताप ने गोरिल्ला युद्ध लड़ते हुए अपने से चौगुनी अकबर की सेना को तीन की.मी. तक पीछे धकेल भागने को मजबूर कर दिया था। इस जगह की मिट्टी का रंग बिल्कुल हल्दी की तरह होने के कारण इसका नाम हल्दीघाटी पड़ा, पर उस दिन तो महाराणा ने खून का अर्ध्य दे कर इसे लाल कर दिया था ! उस निर्जन सी जगह में खड़े हो यदि आप पांच-छह सौ पहले की कल्पना करने की कोशिश भी करें तो रोमांच हावी हो जाएगा। श्रद्धा से उन राण बांकुरों के प्रति सर झुक जाएगा जिन्होंने विकट और कठिन परिस्थितियों के बावजूद अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। आज जरुरत है ऐसी व्यवस्था की जो आधुनिक पीढ़ी को उनके बारे में जानकारी दे सके !

शौर्य, साहस, निडरता, देशप्रेम की याद दिलाने वाली यह जगह हमारे गौरवशाली इतिहास की प्रतीक है ! पर यह अत्यंत खेद का विषय है कि हमारी तथाकथित आधुनिक शिक्षा प्रणाली में ऐसे विषयों की कोई अहमियत नहीं रह गयी है। जिसके फलस्वरूप आज के बच्चों को तो छोड़िए उनके अभिभावकों तक को पूरी और सही जानकारी नहीं है। आजकी शिक्षा-पद्दति सिर्फ और सिर्फ एक कागज का प्रमाण पत्र हासिल कर उसकी सहायता से किसी नौकरी को लपकने का जरिया मात्र रह गयी है। क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि स्कूलों में प्रथमिक शिक्षा के दौरान ज्यादा ना सही कम से कम हफ्ते या पंद्रह दिनों में एक बार अपने इतिहास, उसके महानायकों, उनकी उपलब्धियों, उनके योगदान की सच्चाई के बारे में, बिना किसी कुंठा और पूर्वाग्रह के, बताया जाए ! ठीक उसी तरह जैसे पिछले जमाने में दादी-नानी की किस्से-कहानियां बच्चों में नैतिकता, त्याग, प्रेम, संस्कार इत्यादि के साथ-साथ पौराणिक तथा ऐतिहासिक जानकारीयां भी रोपित कर देती थीं।  

अभी पिछले दिनों उदयपुर जाने का अवसर मिला तो हल्दीघाटी तो जाना ही था ! वहां पहुंचने के दौरान जब साथ के बच्चे से, जो दिल्ली के एक नामी ''क्रिश्चियन स्कूल'' की दसवीं कक्षा का छात्र है, वहां के बारे में पूछ तो उसने पूरी तरह अनभिज्ञता दर्शाई ! यहां तक की उसकी ''मम्मी'' को भी सिर्फ आधी-अधूरी जानकारी थी, जबकि वह खुद एक स्कुल में अध्यापक हैं। विडंबना यही है कि अपने बच्चों के भविष्य, उनके कैरियर की चिंता में आकंठ डूबे अभिभावकों को आजके समय की गला काट पर्टियोगिताओं के चलते इतना समय ही नहीं मिलता कि वे इस तरह की बातों पर ध्यान दें। इसकी जिम्मेवारी तो पाठ्यक्रम बनाने वालों पर होनी चाहिए ! शिक्षा पद्यति कुछ ऐसी हो जो सिर्फ जानकारियां ही न दे बच्चों के ज्ञान में भी बढ़ोत्तरी करे।

इसी यात्रा के दौरान होटल में केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर जी से मुलाकात का संयोग बना था पर यह समय ऐसी गंभीर बातों के लिए उचित नहीं था। चुनावी समय के अलावा और कोई वक्त होता तो यह बात उनके कानों में जरूर डाल दी जा सकती थी। वैसे सूना जा रहा ही कि केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति पर काम कर रही है। अब शिक्षा नीति पर गठित सलाहकार समिति क्या सलाह देती है यह देखने की बात होगी। 

शनिवार, 14 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (चौदहवां)




  सुधा देवरानी और उनकी 

nayisoch

https://eknayisochblog.blogspot.com/




क्रोध आता नहीं , बुलाया जाता है



कितनी आसानी से कह देते हैं न हम कि
 क्या करें गुस्सा आ गया था ...
  गुस्से में कह दिया....

                       गुस्सा !!
   गुस्सा (क्रोध) आखिर बला क्या है ?
 
               सोचें तो जरा !

    क्या सचमुच क्रोध आता है.....?
    मेरी नजर में तो नहीं
    क्रोध आता नहीं
    बुलाया जाता है
    सोच समझ कर
    हाँ !  सोच समझ कर
   किया जाता है गुस्सा
  अपनी सीमा में रहकर......
    हाँ ! सीमा में  !!!!
   वह भी
   अधिकार क्षेत्र की ......

   तभी तो कभी भी
  अपने से ज्यादा
  सक्षम पर या अपने बॉस पर
  नहीं कर पाते क्रोध
  चाहकर भी नहीं......
  चुपचाप सह लेते हैं
  उनकी झिड़की, अवहेलना
  या फिर अपमानजनक डाँट
  क्योंकि जानते हैं
  कि भलाई है सहने में......

  और इधर अपने से छोटों पर
  अक्षम पर या अपने आश्रितों पर
  उड़ेल देते हैं सारा क्रोध
  बिना सोचे समझे.....
  बेझिझक, जानबूझ कर
  हाँ !  जानबूझ कर ही तो
  क्योंकि जानते हैं.....
  कि क्या बिगाड़ लेंगे ये
  दुखी होकर भी........

  तो क्या क्रोध हमारी शक्ति है ?
  या शक्ति का प्रदर्शन ?

   हाँ! मात्र प्रदर्शन !!!
   और कुछ भी नही......

  यदि सच को स्वीकारें तो
  ये क्रोध है .......
  हमारी बौद्धिक निर्बलता/अज्ञानता
  जिससे उपजती असहिष्णुता
  और फिर प्रदर्शन !
  वह भी
  अधिकार क्षेत्र की सीमा में........

     तो क्रोध आता नहीं ,
       बुलाया जाता है.....
        ........है ना.........

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (तेरहवां)




नील परमार का ब्लॉग

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दुख की सूचना



भौतिकी का एक स्थापित सत्य है
कि प्रकाश की गति अद्वितीय है
सूर्य से धरती की दूरी नाप लेता है प्रकाश मिनटों में
और बादल गरजने की ध्वनि से भी पहले
दिख जाती है हमे कड़कती हुई बिजली

फिर भी
ऐसा कितना कुछ है
जो है हमारी दुनिया मे
लेकिन अभी नज़र से दूर है

जैसे कई तारे
हमारी ही दुनिया के
जिनका प्रकाश
नही पहुंचा है हमारी पृथ्वी तक

एक रात अचानक आ जुड़ेगा
अँधेरे होते आसमान में
एक नया
अप्रत्याशित
सितारा।

आकाश देखने पर ये याद आता है
कि ऐसे कितने ही दुःख है
जो हैं
लेकिन उनकी सूचना नही पहुंची है हम तक

हम तारों का जश्न मनाये
या अँधेरे का शोक
इससे रेशा भर भी फर्क नही पड़ता उस दूरी पर
जो एक दुख को हम तक पहुँचने में तय करनी है।



गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (बारहवां)




रेणु का ब्लॉग

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नहीं भूलती वो माँ --सस्मरण


बात जनवरी  1992 की है जब मैं अपनी  बुआ जी  के यहाँ अम्बाला कैंट गई  हुई थी | उन दिनों   मेरे फूफाजी , जो मर्चेंट नेवी  में काम करते थे   ,  भी घर आये हुए थे |  इसी बीच उनके साथ  उनके एक रिश्तेदार के यहाँ  शादी में  अम्बाला शहर जाने का अवसर मिला | शादी रात में थी | शादी में ही  फूफा जी के  दूसरे रिश्तेदार  चौहान साहब और उनकी पत्नी  मिल गये |  यूँ तो  वे पास के गाँव   के   रहने वाले थे लेकिन  क्यूँकि      दोनों कामकाजी  थे  इसलिए वे अम्बाला  में ही    रहते  थे  उनका घर  यहाँ शादी वाले घर   से   ज्यादा दूर नहीं     था | वे फूफा जी को  अपने घर  आने का  आग्रह  करने लगे  जिसे फूफा जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया | हम तीनों उनके साथ उनके घर पहुंचे  तब  तक रात के   बारह बज चुके थे | चौहान साहब ने जैसे ही  घर के दरवाजे की घंटी बजाई उनकी माँ ने दरवाजा खोला ,जो इन दिनों गाँव से उनके घर रहने आई हुई थी | उनकी माँ को देखकर सब हैरान और परेशान  हो गये |  लग रहा था वे अभी -अभी नहाकर आई  हैं | जनवरी की कंपकंपाती  ठण्ड में भी  उन्होंने  बहुत ही घिसा -पिटा सा सूती  सूट  पहन  रखा  था   जोकि उनके सिर के बालों से टपकते पानी से बिलकुल  तर हो उनके बदन से  चिपका  हुआ था |   वे मानो नींद में चल रही थी |चौहान साहब की पत्नी ने तत्परता से उन्हें  संभाला  और पूछा कि वे  इस समय क्यों  नहाई  ?  वे समय जानकर बहुत ही लापरवाही से बोली कि उन्हें लगा सुबह  के  पांच बजे हैं इसीलिये वो नहा आई | चौहान साहब की  की पत्नी ने  अंदर के कमरे में ले जाकर  उन्हें ऊनी कपडे पहनाये  और बाल सूखे तौलिये  में लपेटकर   उन्हें  सुखाया | साथ में हम सभी को  बाहर वाले कमरे में बिठाकर  सबके  लिए चाय बनाने चली गई| इस कमरे   की सामने की दीवार पर  एक अत्यंत युवा  लडके की  बड़ी सी हार चढी फोटो   टंगी थी |  यूँ तो फूफा जी पहले से ही जानते  थे पर चौहान साहब बताने लगे कि वह चित्र उनके दिवंगत छोटे भाई   ऋषिपाल का था   जिसकी मौत  आकस्मिक सडक दुर्घटना में  आठ वर्ष पूर्व  हो गयी थी | माँ तब से  विचलित थी और  कोई भी सांत्वना उन्हें उस दुखद याद से मुक्त नहीं कर पायी थी  |   माँ  उस मर्मान्तक  घटना को    कभी भी भूल नहीं पाई | हालाँकि   वे उसी दिन से   शहर के अत्यंत जाने  माने  मनो चिकित्सक  से उनका इलाज भी करवा रहे हैं  पर  वे ऋषिपाल को कभी भूल नहीं पाती  क्योकि वह तीन भाइयों में सबसे छोटा  और संबका लाडला था | खुद चौहान साहब के  अपनी कोई  संतान नहीं थी अतः वे  अपने इसी भाई को  अपनी संतान  की तरह   मानते थे  और पढने- लिखने के लिए   प्रोत्साहित  करते थे  | | इसी बीच उसका चयन वायुसेना में हो गया .  जिसके लिए उसे दो दिन बाद ही ट्रेनिंग पर जाना था  पर जाने से पहले ही  सड़क दुर्घटना में   उसकी जान चली गयी |सब बातें बताते हुए उनकी  आँखें  नम  होती रही |
इसी बीच माँ नाजाने क्यों  मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अंदर  अपने कमरे में  ले गई | उनका कमरा  सुरुचिपूर्ण  ढंग  से सजा था | साफ सुथरे बिस्तर के अलावा दवाई और पानी के साथ माँ की  जरूरत की हर चीज वहां मौजूद थी | इस कमरे में भी उनके दिवंगत बेटे की एक और मुस्कुराती हुई तस्वीर  मेज पर उनके बिस्तर के बिलकुल सामने रखी थी  | वह अचानक ना जाने किस  रौ में  तस्वीर  में अ अपने  दिवंगत बेटे के चेहरे को सहलाती हुई
मुझे बताने लगी कि उनका बेटा ऋषिपाल  उस दिन उन्हें कहकर गया था  कि बाद कुछ देर बाद आ रहा हूँ पर     वो    निष्प्राण होकर लौटा !! वह मुझे बहुत ही व्यथित हो बताती गई कि जिस  घड़ी वो शहर जाने के लिए तैयार हुआ  घर की मजबूत दीवार अपने आप दरक गई और घर के सामने  खड़े   आम के पेड़ की सबसे  मोटी डाली  ना जाने कैसे अनायास टूट कर धरती पर गिर  पड़ी | माँ  की   आँखें   कौतूहल और अनजाने डर   से फैलकर  आज भी   उस दृश्य को मानो सजीवता से अपने आगे  ही  देख रही थी  और आत्म मुग्धता की स्थिति  में वे कहती जा रही थी कि उस दिन कोई आंधी तूफ़ान नहीं आया तो कैसे दीवार और  आम   की टहनी टूट गई थी !!
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था उन्हें  क्या कहूं !!! मैं  निःशब्द   बैठी उन्हे एकटक निहार रही थी और उनकी  करुणा से  भरी   बातों      से   मेरे भीतर एक  वेदना पसरती जा रही थी |  वे उस पल के पास  आज  भी उसी तरह से जुडी बैठी थी मानो ये अभी इसी पल की बात हो | लाडले  बेटे  शादी के सपने ,  हंसी खुश मिजाजी  के दृश्य और माँ को  लाड मनुहार के कितने ही दृश्य कुछ ही पल में उनकी बातों में साकार हो गये | उनकी  सब बातें  मेरी आँखें नम किये दे रही थी  पर इस दौरान अपने मुंह से    सांत्वना  का    एक भी शब्द  उनके लिए कह पाने में खुद को असमर्थ  पा रही थी | इसी बीच मेरी बुआजी ने  मुझे   बाहर  आने के लिए कहा क्योकि रात के    दो बजने वाले थे   और हमें  वापिस घर जाना था | हमने  चौहान साहब और उनकी  पत्नी के साथ माँ  से भी विदा मांगी | पर माँ   निर्विकार  शून्य में तकती रही और हम वहां से  बोझिल मन लेकर   निकल  चल पड़े |  कितने साल बीत गये पर मुझे   बेटे  की यादों में खोयी वह स्नेही माँ  कभी नही भूलती जिन्हें   कोई सांत्वना उनके बेटे  की  यादों से दूर नहीं ले जा पाई | |

   उसी समय    इन्ही माँ पर एक कविता लिखी थी -- जिसे यहाँ लिख रही हूँ |
माँ अब तक रोती है
 माँ अब तक रोती है
 उस युवा अनब्याहे बेटे की याद में -
 चला गया था    आठ साल पहले
जीवन के उस पार अचानक
 जो कहकर गया था
 आ रहा हूँ पल दो पल में .
पर आई थी उसकी निर्जीव देह '
माँ स्तब्ध  है उसी पल से
 और  रातों को नहीं सोती है !!

 बिन तूफ़ान के  ही
आम की   मोटी टहनी का टूटना
 या फिर दरक जाना  अचानक
 आंगन की मजबूत दीवार का ;
 सब उसकी मौत की आहट तो नहीं थी ?
 उसके हंसते विदा होने पर अंतिम बार
 भीतर  लरज़ी  थी   कोई  डरावनी लहर  सी ;
  क्यों वह अनुमान ना लगा पाई थी
 अनहोनी के घटने का !
पछतावे में    माँ  पल -पल गलती  है !
 और अब तक  रोती है  !!

पिता भूल चुके हैं -
 भाई  मगन हैं अपनी गृहस्थी में
बहनें   अक्सर  राखी पर
 कर लेती हैं आँखें नम ;
पर माँ को याद है
 बिछड़े बेटे का  हंसना ,मुस्कुराना
 और लाड  में भर माँ के पीछे -पीछे आना ,
 उसका सेहरा देखने का अधूरी चाहत
  अब भी   कसकती है मन में;
 उस जैसा कोई मिल जाए -
 हर चेहरे में झांकती माँ
 ढूंढती अपना खोया मोती है   |
 माँ अब तक रोती है !!!!!!!

बुधवार, 11 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (ग्यारहवां)




कामिनी सिन्हा का ब्लॉग

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  " मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हैं " बचपन से ही ये सदवाक्य  सुनती आ रही हूँ। कभी किताबो के माध्यम से तो कभी अपने बुजुर्गो  और ज्ञानीजनों के मुख से ये संदेश हम सभी तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन ये पंक्ति मेरे लिए सिर्फ एक सदवाक्य ही हैं । क्योकि मैंने कभी किसी को ये कहते नहीं सुना कि "हमारा जीवन ,हमारा भाग्य जो हैं वो मेरी वजह से हैं " मैंने  तो सब को यही कहते सुना हैं कि "भगवान ने हमारे भाग्य में ये दुःख दिया हैं।" हाँ ,कभी कभी जब खुद के किये किसी काम से हमारे जीवन में खुशियाँ आती हैं तो हम उसका श्रेय खुद को जरूर दे देते हैं और बड़े शान से कहते हैं कि " देखिये हमने बड़ी सोच समझकर ,समझदारी से ,अपनी पूरी मेहनत लगाकर फला काम किया हैं और आज मेरे जीवन में खुशियाँ आ गयी। " लेकिन जैसे ही जीवन में दुखो का आगमन होता हैं हम झट उसका सारा दोष ईश्वर और भाग्य को दे देते हैं। क्यूँ ? जब सुख की वजह हम खुद को मान सकते हैं तो दुखो की जिम्मेदारी हम ईश्वर पर कैसे दे सकते हैं ? हमारी समझदारी तो देखे ,ऐसे वक़्त पर अपने आप को दोषमुक्त करने के लिए हमने एक नया स्लोगन बना लिया " ईश्वर की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता। "

    तो क्या ईश्वर की यही मर्जी है कि -उनकी बनाई सृष्टि इस  कगार पर पहुंच जाये जहाँ हवाएं साँस लेने लायक ना हो ,उनकी फूलो से सजी रहने वाली धरती कचरे का ढ़ेर बन जाये ,उनकी सबसे सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य जाति इतने स्वार्थी और कलुषित बन जाये कि वो खुद का ही सर्वनाश कर ले ? नहीं ,मुझे तो नहीं लगता कि -ईश्वर अपनी सृष्टि के भाग्य में इतना बुरा लिखेगा। तो फिर ईश्वर हमारे भाग्य का निर्माता कैसे हो सकता हैं?  धरती पर कचरे हमने फैलाये हैं ,हवाओ को प्रदूषित हमने किया हैं ,अपने आप को नीच से नीचतम हमने बनाया हैं,रोगो को आमन्त्रण हमने दिया। ये क्या बात हुई कि आप सड़क पर कूड़ा खुद फेको और ये बोलो कि दूसरे भी तो फेकते हैं ,मैं ही अकेले जिम्मेदार थोड़े ही हूँ ,जहाँ एक गाड़ी से सारे सदस्यों की जरूरत पूरी हो सकती हैं वहां सारे अलग अलग गाडी में घूम रहे हैं और हवाओ को दूषित कर रहे हैं और कहते हैं -अरे सब करते हैं ,मेरे एक के नहीं करने से क्या फर्क पड़  जायेगा ? जब इन सब कारनामो के वजह से प्रदूषण फैले तो सारा दोष दुसरो को दे दो और अपना पला झाड़ लो। आप शराब पीओ और तम्बाकू खाओ और कहो -सब खाते हैं और जब कैंसर जैसा भयानक रोग आ दबोचे तो ये रोना रोओ कि -जी भगवान ने हमारे नसीब में ये दुःख दर्द लिख दिया हैं। क्यों ?

       मैं अक्सर सोचती हूँ ,हमारे वेद पुराणों में लिखे ये सदवाक्य जिसे हम अपने पूर्वजो के मुख से शदियों से सुनते आ रहे है ,वो अर्थहीन तो होंगे नहीं,उसका कोई न कोई गूढ़तम अर्थ तो हैं जिसे मैं समझ नहीं पा रही हूँ। मैंने ये भी पढ़ा और सुना हैं कि " कर्म की गति अटल हैं ,मनुष्य को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते हैं। "हमारे कर्म ही तो हमारे भाग्य बनाते हैं। " फिर विधाता का इसमें क्या कसूर ,उनकी तो कोई भूमिका नहीं हैं। ये भी कहते हैं -"बोया पेड़ बाबुल का तो आम कहाँ से पाओगे। " सच हैं हम जो बीज बोयेगे वही तो अनाज के रूप में पाएंगे। ये सारे तर्क -वितर्क हम करते हैं और फिर सारा दोष विधाता पर डाल देते हैं। मैं अक्सर खुद से सवाल करती हूँ -मैं भी एक माँ हूँ लेकिन मैंने तो कभी अपने बच्चे के लिए बुरा नहीं सोचा ,उसके भविष्य के लिए कोई बुरी बाते नहीं लिखी। जब  एक मनुष्यरुपी माँ अपने बच्चे  के लिए बुरा नहीं सोच सकती तो परमात्मा जो प्यार और करुणा का सागर है वो अपने बच्चो के नसीब में इतने दुःख दर्द कैसे लिख सकता हैं ? फिर क्यों हम ईश्वर पर दोषारोपण करते हैं? क्या सचमुच ,संसार में व्याप्त इतने सारे दुःख दर्द ईश्वर की ही देन हैं ?

       क्या कभी किसी ने एक पल के लिए भी ये सोचा, इन सारे कर्मो के लिए कही न कही हम भी जिम्मेदार  है? एक पल के लिए भी ये सोचते कि दुनियाँ कुछ भी करे,परन्तु मैं इस पाप कर्म में अपनी भागीदारी नहीं दूँगा। दुनियाँ कचरा फैलती हैं तो फैलाने दे मैं अपनी घर की तरह अपने आस पास को भी साफ़ रखने की कोशिश करूँगा। दुनियाँ  पटाखे जला कर वातावरण को प्रदूषित करती हैं तो करने दे, मैं नहीं करूँगा। अपने दो चार पैसे के स्वार्थ के पीछे जीवन के मुलभुत जरूरत खाने पीने के सामग्रियों को मैं दूषित नहीं करूँगा ,एक पल के लिए भी नहीं सोचते कि -इन दूषित वातावरण का असर मुझ पर और मेरे परिवार पर भी होगा ,यही दूषित  भोजन हम सब भी खायेगे। तम्बाकू, गुटका और शराब जैसी जहर बनाने वाली कंपनियां मौत का ही तो कारोबार करती हैं, उन्हें ये ख्याल नहीं आता कि एक दिन ये जहर मेरे बच्चो तक भी पहुँचेगा। ये जहर बनाने वाले को तो चार पैसे की लालच हैं लेकिन ये जहर खाने वाले एक पल को भी सोचते हैं कि इसका मुझ पर और मेरे परिवार पर क्या असर होगा? बिल्ली की तर सब आँखे बंद करके बैठ जाते हैं और कहते हैं -"मैंने तो दूध ना देखा ना पीया " मेरा कोई कसूर नहीं समाज में ही गंदगी फैली हैं ,हम क्या कर सकते हैं। लेकिन समाज बनता किससे हैं ?

     इन सारे तर्क वितर्क में एक बात मुझे अच्छे से समझ आ गयी कि -हम मनुष्य जाति बड़े ही समझदार हैं ,ज्ञानी से ज्ञानी और मूर्ख से मुर्ख तक को और कुछ आये ना आये अपना दामन दोषमुक्त करना और दुसरो पर दोषारोपण करना बहुत अच्छे से आता हैं। "जी , हमने कुछ नहीं किया फला व्यक्ति और परिस्थिति की वजह से मेरे जीवन में ये दुःख ये परेशानी हैं "ये शब्द रोजमर्रा के दिनचर्या में हम कितनी बार बोलते होंगे हमे खुद भी याद नहीं रहता। हम अपनी हर परिस्थिति के लिए कभी अपने रिश्तेदारों को ,कभी अपने प्रिये जनो को ,कभी समाज को ,कभी सरकार को दोषी बता खुद का पला झाड़ लेते हैं और दुखो का रोना रोते रहते हैं।  दुसरो के किये कर्म हमारे  भाग्य को कैसे प्रभावित कर सकता हैं?

       हम सब ने  ये सदवाक्य भी जरूर सुना होगा -" हम बदलेंगे युग बदलेगा ,हम सुधरेंगे युग सुधरेगा। "क्या ये सदवाक्य बेमाने थे ? मैंने देखा हैं जिस घर का मुखिया खुद सदविचारों से परिपूर्ण हैं और अपना कर्तव्य सच्चे मन से निभाता हैं उस घर का वातावरण ही अलग होता हैं। तो जब घर का एक व्यक्ति खुद का कर्म अच्छे से करता  हैं तो घर स्वर्ग होता हैं, तो क्या हर एक अपना कर्म सच्चे मन से करेंगे तो समाज नहीं बदलेगा ? हमारे कर्म ही हमारा भाग्य बनता हैं तो अपने कर्मो का रोना रोये भाग्य का क्युँ ?

      इन दिनों मेरा  पाला देश के कुछ प्रतिष्ठित अस्पतालों के प्रतिष्ठित डॉक्टरों से पड़ा हैं। आज के दौर में शायद ही ऐसा कोई हो जो अस्पतालो  और डॉक्टरों के किये करनी और उनके जुल्मो सितम का भुग्तभोगी ना हो।इसलिए उनके कुकर्मो को बया करना यकीनन जरुरी नहीं हैं।  चाहे वो प्राईवेट हॉस्पिटल हो या सरकारी सब की वही दशा है। प्राईवेट वाले मरीज़ का खून और धन दोनों चूसते है और सरकारी वालो के लिए इंसानो (मरीज़ )की कद्र जानवरो से भी बत्तर हैं। कई डॉक्टरों के  पारिवारिक स्थिति के बारे में जानकर मेरी आत्मा तड़प उठी और मैं एक बार फिर सोच में पड़  गई कि -क्या इन डॉक्टरों के परिवार के भाग्य में विधाता ने ये दर्द लिख दिया हैं ?
   
      न्यूरोलॉजी स्पेस्लिस्ट लेडी डॉक्टर का बेटा 15 साल से खुद न्यूरो प्रोब्लम से पीड़ित हैं वो अपने शरीर को हिला भी नहीं सकता  ,बांझपन का इलाज करने वाली डॉक्टर खुद बाँझ हैं ,हार्ट स्पेस्लिस्ट के घर हर एक की मौत हार्ट के प्रॉब्लम की वजह से हो रहा हैं। कैंसर स्पेस्लिस्ट के बच्चे कैंसर रोग से पीड़ित हैं,जो सुगर स्पेस्लिस्ट डॉक्टर हैं वो खुद सुगर से इस तरह ग्रसित हैं कि बिना इन्सुलिन के चल ही नहीं सकता। कितने लोगो की गाथा सुनाऊँ ,एक नहीं कई देखी हूँ। शायद आप भी किसी डॉक्टर से परिचित होंगे तो आप भी जानते होंगे कि उनके घर में हर सदस्य मरीज़ हैं।

     आखिर ऐसा क्युँ हैं ?क्या इन डॉक्टरों ने कभी अपना आत्ममंथन किया होगा कि शायद हमने अपना कर्तव्य सही से नहीं निभाया और मेरे कर्मो से दुःखीजनों ने मुझे बदुआएँ दी होगी जिसका परिणाम हम भुगत रहे हैं ? यकीनन नहीं ,क्योकि अपने आप को बचने के लिए उनके पास एक और सदवाक्य हैं न -" विधाता के लिखे को कोई नहीं बदल सकता "

                                          क्या सचमुच,  हमारे भाग्य का विधाता ईश्वर ही हैं ?

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (दसवां)




  उषा किरण का 

ताना बाना  

http://ushascreation.blogspot.com/


"सभ्य औरतें”


चुप रहो
ख़ामोश रहो
सभ्य औरतें चुप रहती हैं
कुलीन स्त्रियाँ लड़ती नहीं
भले घर की औरतें शिकायत नहीं करतीं
सहनशीलता ही औरत का गहना
और वे गहने पहन रही हैं ,
निभा रही हैं दोनों कुलों की लाज
पिटने का दर्द
कलह का दर्द
तानों का दर्द
बच्चे जनने का दर्द
रेप का दर्द
एसिड फिंकने का दर्द
चुप हैं सभ्य औरतें !
वे ढ़ोलक की थाप पर गा रही हैं सोहर
गा रही हैं ...उठती पीर को
उलाहने दे रही हैं हँस-हँस
ननद को ,सास को...
'...ये कंगना मेरे बाबुल की कमाई का
ठेंगा ले जा ननदी लाल की बधाई का’
वे गा रही हैं बन्नी,
विदाई के गीत,
पराए कर दिए जाने का दर्द-
'...भैया को दीनो महल दुमहले
हमको दियों परदेस रे लखी बाबुल मोरे...’
सम्मानित बरातियों की
जीमती पंगत के ऊपर ढ़ोलक की थाप पर
वे साध कर फेंक रही हैं
सुरीली गालियों के पत्थर,
वे गा रही हैं ज्यौनार...
`...समधी हो गए रे नचनिया कैसे सपरी...’
सावन में याद कर रही हैं ,
अपना बचपन
छूटी गुड़िएं और सहेलिएं
गा रही हैं ...
मायके में भुला दिए जाने का दर्द
झूले पर आसमान तक पींगें बढ़ातीं
कितनी चालाकी से रो रही हैं,
'अम्मा मोरे बाबुल को भेजो री..’
सीने पर रखी शिला
ढ़ोलक की थाप पर
पिघल रही है क़तरा- क़तरा...!

सोमवार, 9 दिसंबर 2019

2019 का वार्षिक अवलोकन  (नौवां)




अनुराधा चौहान का ब्लॉग


रिया उदास बैठी सोच रही थी,कि वो कैसी किस्मत लेकर पैदा हुई है जब भी किसी से प्यार मिलने लगता वो ही उससे दूर हो जाता है।
रिया का जन्म संयुक्त परिवार में हुआ था दादा-दादी चाचा-चाची माँ-पापा हँसता खेलता परिवार था।
रिया कहाँ गई मनहूस..लो महारानी यहाँ बैठीं हैं, सुनो हम लोग बाहर जा रहें हैं आने में देर हो जायेगी।आज कमला नहीं आएगी तो खाना बना लेना।
सुधा चलो देर हो रही है। तभी चाचा आ जाते हैं,क्या सुधा फिर उदास कर दिया रिया को तुमने,तुम घर पर क्या कर रही हो बेटा आज कॉलेज नहीं गई तुम? नहीं चाचू आज छुट्टी है इसलिए नहीं गई।
चाचू बड़े प्यार से रिया का सिर सहला कर चले जाते हैं वो उदासी की वजह समझते थे पर घर की शांति के लिए चुपचाप रहते थे।चाचू के जाते ही रिया की आँखो से आँसू ढुलक कर गालों पर आ गए। रिया को डायरी लिखने की आदत थी।जब भी दुःखी होती तो वह डायरी लिखने बैठ जाती है।
यह कैसा खेल है किस्मत का
क्या जीवन रहेगा पतझड़-सा
क्या कभी जीवन में आएगी बहार
मुझे भी मिलेगा मेरे हिस्से का प्यार
रिया ने अपने माता-पिता को तस्वीरों में ही देखा था। चाचू ने बताया था। कैसे रिया का परिवार रिया के जन्म के बाद कुलदेवी के दर्शन के लिए जा रहा था, तभी एक दुर्घटना में दादा-दादी और रिया के माँ-बाप मृत्यु हो जाती है। रिया बच जाती है उसको खरोंच भी नहीं आती है।बस यही एक कारण है, जो चाची उसे मनहूस कहकर बुलाती है
चाचू ने कभी भी पापा की कमी महसूस नहीं होने दी।चाची रूखा व्यवहार जरूर करती थी,पर उनके दिल में कहीं तो थोड़ा प्यार होगा जो कभी किसी चीज की कमी नहीं महसूस होने दी सिवाय प्यार के।
आज फिर एक बार उसने जिसे प्यार किया वो भी साथ छोड़ गया। अमन रिया के साथ उसके ही कॉलेज में पढ़ता है।रिया अमन एक दूसरे से प्यार करते थे।
रिया अमन को बहुत चाहती थी पर अमन उसको सिर्फ धोखा दे रहा था।आज जब रिया को पता चला अमन हमेशा के लिए विदेश जा रहा है तो वह अमन को मिलने चली आई।
अमन प्लीज मत जाओ मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती।यहाँ  रहकर भी तो नौकरी कर सकते हो। रिया तुम यह क्या जिद्द लेकर बैठी हो.. ऐसे मौके बार-बार नहीं आते हैं क्या प्यार का रोना रो रही हो प्यार से पेट नहीं भरता तुम्हारे साथ थोड़ा घूम-फिर लिया,तुम तो गले पड़ गईं।
क्या!! अमन यह कैसी बाते कर रहे हो,कहाँ गए तुम्हारे वादे, कसमें.. एक झटके में तुमने कह दिया तुम मेरे साथ सिर्फ घूम रहे थे।रिया की आँखों से आँसू बहने लगे अमन वहाँ चला जाता है।
फिर आगे रिया डायरी में लिखती है
बचपन से जवानी तक
तलाशते रहे हम उसे
खोजते हैं दरबदर
उसे सारे जहान में
जो अब तक नहीं मिला
तलाश कल भी थी
आज भी है और कल भी रहेगी
करते रहेंगे प्यार की तलाश
कभी तो मंजिल मिलेगी
कभी तो कोई आएगा
जो अपना बनाकर ले जाएगा
तब खत्म होगा यह इंतजार
तब पूरी होगी प्यार की तलाश
डायरी लिखने के बाद रिया खाना बना कर चाची-चाचा के आने का इंतजार करने लगी। तभी सौरभ का फोन आ जाता है। हेलो..माँ
हाय सौरभ में रिया, चाचू चाची बाहर गए हुए हैं।हाय दी कैसी हो? मैं अच्छी हूँ..तू बता?
मैं भी अच्छा हूँ जल्दी वापस भी आ जाऊंगा मेरी पढ़ाई खत्म होने वाली है अच्छा दी रखता हूँ।
सौरभ से बात करने के बाद रिया बहुत हल्का महसूस कर रही थी। सौरभ चाचा-चाची की एकलौता बेटा है और रिया के बहुत करीब है। गाड़ी की आवाज़ आती है, लगता है चाचा-चाची आ गए। रिया खिड़की से बाहर देखने लगती है।
डोरबेल बजती है रिया दरवाजा खोलती है। चाचा-चाची अंदर आते हैं दोनों बड़े ही खुश थे। रिया पानी लेकर आती है। चाची सौरभ का फोन आया था आपको और चाचू को पूंछ रहा था,हम्म..तू बैठ यहाँ चाची की बात सुनकर रिया डरते-डरते उनके पास बैठ जाती है जी चाची।
रिया में मानती हूँ मैं तुझसे नाराज़ रहती हूँ पर इतना भी नहीं कि तेरा बुरा करूं। चाची आप ऐसा क्यों बोल रही हो आपने मुझे पाला-पोसा बड़ा किया आपको हक़ है मुझे कुछ भी कहने का।
रिया अभी मैं और चाचू तुम्हारे लिए लड़का देखकर आ रहें हैं खुद का बिजनेस है अच्छा परिवार है तुम्हारी पढ़ाई का आखिरी साल है फिर तो शादी करनी ही है।कल वो लोग आ रहें हैं एक बार मिल लो पसंद आए तो आगे बात बढ़ाएं।
रिया एकदम से इसके किए तैयार नहीं थी। आज ही अमन से धोखा मिला पर आज पहली बार चाची ने प्यार से कुछ कहा है,रिया चाची को नाराज नहीं करना चाहती थी,चाची जी जैसा आप चाहें।
रिया कमरे में चली जाती है क्या करूं क्या ना करूं चाची को नाराज भी नहीं कर सकती,अब कल क्या होगा देखेंगे मिलने में क्या हर्ज है।शाम होते ही वो लोग आ जाते हैं नाश्ते का दौर शुरू हो जाता है, रिया चुपचाप बैठी थी तभी चाची बोली रिया जाओ प्रभात को अपना घर दिखाओ।जी चाची ना चाहते हुए भी रिया प्रभात को घर दिखाने ले जाती है।
प्रभात का खुद का बिजनेस है। कद-काठी भी अच्छी थी देखने काफी स्मार्ट था।रिया भी बहुत सुंदर थी प्रभात को रिया पहली नजर में भा गई।शादी की बात पक्की हो गई समय बीतता गया।
शादी भी हो जाती है प्रभात बहुत ही अच्छा इंसान था जल्दी ही उसने रिया के दिल पर अपना प्रभाव बना लिया घर में सब रिया से बहुत प्यार करते हैं आज रिया को जैसे ही पता चला वो माँ बनने वाली है तो खुशी से पागल होकर वो फिर डायरी लिखने बैठ जाती है।
प्यार की तलाश में भटकी थी सदा
हो रहा प्रभात अब मेरे प्यार का
ज़िंदगी में खुशियों का अहसास होने लगा
पनपने लगा अंश मुझमें मेरे प्यार का
ग़म की शाम अब ढल चुकी है
सुख का सूरज चमकने लगा है
पूरी हो गई है आज मेरी प्यार की तलाश
समय भागता रहा और रिया की गोद में एक नन्ही-सी परी खेलने लगी रिया की ज़िंदगी में अब खुशियां ही खुशियां थी।

लेखागार