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शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

750 वीं ब्लॉग बुलेटिन - 1949, 1984 और 2014


1949, 1984 और 2014. देखने में इन तीनों साल का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं. लेकिन अभी जो देश के माहौल 2014 में बन रहे हैं, उससे जॉर्ज ऑरवेल की किताब 1984 की याद आ जाती है जो 1949 में लिखी गई थी. लेकिन हालात आज भी वैसे ही हैं. बिग ब्रदर की आँखें और थॉट पुलिस की निगरानी जैसे हालात कहाँ बदले हैं. हर घर में एक बड़ी स्क्रीन लगी है जिसपर दिन भर ख़बरों की उल्टियाँ करते चीख़ते रह्ते हैं पत्रकार – वो देखो कौव्वा कान लेकर भागा जा रहा है. और हम...! सारे दिन फेसबुक और ट्विट्टर पर कौव्वे का पीछा करते रहते हैं. अप-डेट्स की इतनी जल्दी होती है कि अपने कान को हाथ लगाकर भी नहीं देखते.



ऐसे में एक ब्लॉग आया था आज से करीब चार साल पहले, जिसने चुनौती दी इस मानसिकता को. उनका कहना था कि जो ख़बरें हमें दिखाई जा रही हैं हम उन्हें बदल नहीं सकते, लेकिन हमें उन ख़बरों को हज़म करने के तरीके में बदलाव लाने की ज़रूरत है. रविनार जी के इस ब्लॉग का नाम है मीडियाक्रुक्स! पिछले चार सालों में हमारे आस-पास फैले एक बड़े हिन्दी ब्लॉग-महासागर के किनारे टिप्पणियों की सीपियों का बिखराव बहुत कम हुआ है. लेकिन यह एक ऐसा अंग्रेज़ी ब्लॉग है, जहाँ कभी इनका अकाज हुआ करता था, लेकिन आज ऐसी सीपियों के अम्बार लगे हैं. और सिर्फ ब्लॉग पर ही नहीं ट्विट्टर पर भी इनके फॉलोवर्स की संख्या ज़बर्दस्त है. कमाल तो तब हो गया जब हाल ही में भारत-न्युज़ीलैंड क्रिकेट मैच के दौरान दर्शकों के बीच इस ब्लॉग का बैनर लोगों ने उठा रखा था.

राजनीति की समझ नहीं है मुझे और ख़बरें काटने को दौड़ती हैं मुझे. ऐसे में मेरे लिये मेरे अभिन्न मित्र चैतन्य आलोक ही टीवी, अख़बार और पत्रिका का काम करते हैं. आज की इस बुलेटिन की प्रेरणा भी वही हैं. इसलिए आज की बुलेटिन में एक ख़ास वर्ग में उन लिंक्स को दर्शाया है जिन्हें देखकर शायद हमें ख़बरें देखने की एक नई रोशनी मिले. 

750वीं ब्लॉग-बुलेटिन में आज कुछ सीरियस हो गया ना. ये बिहारी जब हिन्दी बोलता है तो हमेशा कुछ न कुछ सीरियस बात ही होती है. क्या करूँ - 

"ज़िन्दगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है,

ज़ुल्फ-ओ-रुख़सार की जन्नत नहीं कुछ और भी है

भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में

इश्क़ ही एक हक़ीक़त नहीं कुछ और भी है."

तो एक बार ज़ुल्फ, रुख़सार, जुदाई, अश्क़, तबस्सुम, वफा, मौसम, इश्क़, दिल, जिगर, हिज्र, से बाहर से निकलकर, एक नज़र उस पर भी डालें जो अभी कुछ रोज़ पहले गुज़रा है. हमारा, हमारे लिए और हमारे द्वारा विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र. कल को लोग ये न कहें कि हम यही डिज़र्व करते थे, इसलिये हमें ऐसा ही तंत्रलोक ऊप्स लोकतंत्र मिला है!

                                          - सलिल वर्मा  









और अब कुछ मेनस्ट्रीम ब्लॉग 

चलिये अब हम चलते है नौकरी पर ... फिर मिलेंगे ... ८०० वीं बुलेटिन पर ... या हो सकता है उस से भी पहले ... ;)
आप सभी का बहुत बहुत आभार ... ऐसे ही स्नेह बनाए रहिएगा |

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