नमस्कार साथियो,
चौबीस घंटे चारों तरफ से
हत्या, बलात्कार, हिंसा, अपराध आदि का शोर कानों में घुसता जाता है. हम सब सबकुछ
सुनकर भी अनसुना करते जाते हैं. क्या हम सब ऐसे माहौल में जीने के आदी हो चुके
हैं? क्या हम सबका स्वार्थ हमें कुछ करने से रोकता है? आखिर क्यों हम सब खामोश बने
रहते हैं? आखिर क्यों हम सब ऐसे चीखते माहौल को शांत करने के लिए कदम क्यों नहीं
उठाते हैं?
बहुत साल पहले ऐसी ही
स्थितियों ने विचारों को जन्म दिया था. वे ही आज कविता रूप में आपके सामने हैं.
तमाम सारे सवालों के झंझावातों के बीच आज की बुलेटिन आपके सामने प्रस्तुत है.
+++
दूर कहीं से आती एक चीख
ने दिल दहला दिया,
घबरा कर अपने को घोंसले
रूपी घर में छिपाया,
उस चीख में छिपे भय को
अपने आसपास पाया।
कहीं वह चीख हमारी शांति
को न छीन ले?
कहीं उस चीख में छिपी
करुणा, वेदना
हमसे कुछ माँगने न लगे?
इसी डर से, इसी भय से हम
छिपे रहते हैं।
बगल के कमरे में सोती
पुत्री को देखते हैं,
डरते हैं कि कहीं उस चीख
में छिपे न हों काले हाथ,
जो प्रविष्ट होकर हमारे
घर में लूट लें अस्मत।
कभी माँ से लिपट कर सोते
मासूम बेटे को देखते हैं।
कभी कमरे की खिड़कियों
का ठीक से लगा होना देखते हैं।
उस समय हमारे सामने होता
है हमारा परिवार।
वह छोटी सी दुनिया होती
है
हमारा वतन, हमारा चमन।
कितने निर्मोही, स्वार्थी,
अंधे होकर
एक भरोसे का अदृश्य घेरा
बना लेते हैं,
आपस में सिमट कर सभी हो
जाते हैं एकाकार,
करके घुप्प अंधकार, अपने आप में दुबक
जाते हैं।
उस चीख का कारण भी नहीं
खोजते,
कभी यह भी न सोचते कि
क्यों उत्पन्न हुई वह चीख?
क्यों उपजा वह शोर, खामोशी को चीर?
कहीं वह चीख, भूख से दम
तोड़ते किसी बालक की तो नहीं?
किसी घर के कोने में,
जल रही किसी औरत की तो नहीं?
कहीं उस चीख में, किसी
बुढ़ापे का सहारा तो नहीं छिना?
उस चीख ने, किसी का सुहाग
तो नहीं उजाड़ा?
कहीं वह शोर, किसी नारी
की अस्मत लुटने का तो नहीं?
मदद को, उसने चीख कर पुकारा
हो?
पर नहीं...
हम स्वार्थपरक सोच लिए,
उन्नत विचारों और उच्च
मानसिकता का ढोंग लिए,
अनसुना कर देते हैं उस
आवाज को
और समा जाते हैं अपने
संसार में,
अपने छोटे से स्वार्थमय
संसार में।
++++++++++