प्रिय साथियो,
देश की कितनी बड़ी
विडम्बना है कि एक तरफ देश के प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थान में देश-विरोधी नारे
लगाये जाते हैं दूसरी तरफ देश के प्रमुख राजनैतिक दल उस मामले को पीछे दफ़न करके
छात्रसंघ अध्यक्ष की गिरफ़्तारी के विरोध में सड़कों पर उतर आये हैं. नैतिक रूप से,
कानूनी रूप से उस एक छात्र की गिरफ़्तारी की अपनी सच्चाई हो सकती है, अपना ही एक असत्य
हो सकता है किन्तु इस सत्यता से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उस शाम जेएनयू जैसे
विश्वविद्यालय में एक आतंकी की फाँसी का विरोध किया गया, उसे शहीद बताया गया, उसके
समर्थन में कश्मीर की आज़ादी के नारे लगे, इन नारों के साथ-साथ देश की बर्बादी के
भी नारे लगाये गए. विरोध की राजनीति में ये विद्यार्थी, राजनैतिक दल, संवैधानिक पद
पर बैठा व्यक्ति इस हद तक नीचे गिर सकता है कि वे सब आतंकी का समर्थन करने के
साथ-साथ देश-विरोधी हरकतों का भी समर्थन करने लग जायेंगे. विचार करिए एक पल को ये
उसी आतंकी का समर्थन कर रहे हैं, जिसका विरोध उन सभी ने उस समय किया था जबकि उसे
संसद में हमले के आरोपी के रूप में पकड़ा गया था. ये सारे लोग उसी फाँसी का विरोध
करने में लगे हैं जिसे पिछली सरकार के कार्यकाल में आज से लगभग तीन वर्ष पूर्व इन्हीं
सब दलों के समर्थन से दी गई थी. ऐसे में अब इस सरकार में ये सब कदम सिर्फ और सिर्फ
एक बात की तरफ इशारा करते हैं कि इन सभी दलों का, संगठनों का एकमात्र उद्देश्य
केंद्र सरकार का विरोध करने के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विरोध करना
है. सिर्फ विरोध के लिए विरोध की राजनीति न केवल देश को रसातल की तरफ ले जाएगी वरन
उन आतंकियों के हौसलों को भी बुलंद करेगी जो आये दिन देश में अपनी आतंकी
गतिविधियाँ करने को उतावले बैठे रहते हैं.
बहरहाल विचार करिए
कि ऐसे विकृत माहौल को सामान्य कैसे बनाया जा सकता है. आप भी देश के असामान्य होते
जा रहे वातावरण को सामान्य बनाने के लिए
अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता प्रदर्शित करें, अपनी सार्थक प्रतिबद्धता प्रदर्शित
करें. किसी भी राजनैतिक दल की प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर सबको एक आम भारतीय की तरह
विचार करना होगा, शायद तभी कोई सार्थक, सकारात्मक हल निकल सके.
स्व-रचित कविता कि
चंद पंक्तियों के साथ आज की बुलेटिन आपके समक्ष है.....
कोशिश
की बहुत गाने की पर गा न सके हम.
साज
बजाना चाहा बहुत पर बजा न सके हम.
मिट गई
किसी की आँख की रौशनी,
हो गई किसी
बहिन की राखी सूनी.
सिसकती
रही किसी की सूनी माँग,
उठ गया
पल में किसी के सिर से हाथ.
बचाना
चाहा हर घर को पर बचा सके न हम.
कोशिश की
बहुत गाने की पर गा न सके हम.
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