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रविवार, 11 मार्च 2018

घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |

ज्ञान प्राप्ति के उपरांत एक बार महाकवि कालिदास जी कहीं जा रहे थे ... मार्ग में उन्हें बड़ी प्यास लगी ... इधर उधर देखा तो एक स्त्री दिखी ...

कालिदास बोले :- माते पानी पिला दीजिए बङा पुण्य होगा.

स्त्री बोली :- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो। 
मैं अवश्य पानी पिला दूंगी।

कालिदास ने कहा :- मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें।

स्त्री बोली :- तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं।
पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?
.
(अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश तो हो ही चुके थे)
कालिदास बोले :- मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें।

स्त्री ने कहा :- नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ? 

(कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले)
कालिदास बोले :- मैं हठी हूँ ।
.
स्त्री बोली :- फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ? 

(पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे)
कालिदास ने कहा :- फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ ।
.
स्त्री ने कहा :- नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो। 
मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।

(कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे)

वृद्धा ने कहा :- उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए)

माता ने कहा :- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा।
.
कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।

शिक्षा :-
विद्वत्ता पर कभी घमण्ड न करें, यही घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है।

सादर आपका

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भरता रहूँ उड़ान

rajendra sharma at Srijan

8 टिप्पणियाँ:

Meena sharma ने कहा…

आज आपके जरिए एक और अच्छे ब्लॉग तक पहुँची - एहसास प्यार का । अच्छी कहानियाँ हैं। आज ही कई पढ़ गई एक साथ !
शुक्रिया एक बेहतरीन संकलन देने के लिए...सादर।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

आपके परिश्रम को नमन।

Satish Saxena ने कहा…

आभार शिवम् को , रचना पसंद करने के लिए !
मगर पूरा आभार तब मानेंगे जब इसके सन्देश को लागू कर अपने आपको दौड़ना सिखाएं !
सस्नेह मंगलकामनाएं !

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी बोध कथा-सह-बुलेटिन प्रस्तुति

Rajendra kumar ने कहा…

बेहतरीन प्रस्तुति, आपका आभार।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

आप सब का बहुत बहुत आभार |

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति......बहुत बहुत बधाई......

Onkar ने कहा…

सुन्दर लिंक्स. मेरी कविता शामिल करने के लिए शुक्रिया.

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