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शनिवार, 7 जुलाई 2018

पहचान क्या है ?




पहचान क्या है ?
लोगों की जुबां पर एक नाम 
इतिहास के पन्नों पर दर्ज़ नाम 
या चक्करघिन्नी सी चलती माँ !
जो शहर शहर नहीं घूम पाती 
बड़े बड़े समारोहों में नहीं दिखती
लेकिन सुबह से शाम तक
मन ही मन
दुअाओं के बोल बोलती है !
माँ चिड़िया जैसी होती है
सामर्थ्य से अधिक भरती है उड़ान
चूजे भी रह जाते हैं हैरान
फिर गहराता है उनका विश्वास
माँ तो जादूगर है
धरती को समतल कर सकती है
चाहे तो पहाड़ बना सकती है
बून्द बून्द जोड़कर नदी बना सकती है ...
ज़िंदगी के हर घुमावदार रास्तों पर्
माँ  होठों पर् मंत्र की तरह उभर अाती है
पहचान क्या है - इस बात से परे
चाभी के गुच्छों सी मां
एक निवाले सी मां
अपनी पहचान बना ही जाती है !!!
 
          

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क्रूरतम अट्टहास
****************
न रास्ता था न मंज़िल
न साथी न साहिल
और
एक दिन दृश्य बदल गया
कछुआ अपने खोल में सिमट गया
शब्द हिचकियाँ लेकर रोते रहे
अब बेमानी था सब
खोखली थीं वहां भावनाएं, संवेदनाएं
एक शून्य आवृत्त हो कर रहा था नर्तन
ये था ज़िन्दगी का क्रूरतम अट्टहास ...
जितने क़िरदार !
उतने ही मुख़्तलिफ़ संवाद !
जितना उन्मांद !
उतनी ही रसीली तकलीफ़े !

6 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बढ़िया बुलेटिन सुन्दर प्रस्तुति।

vandana gupta ने कहा…

बहुत शानदार बुलेटिन ...........हार्दिक आभार दी

Meena sharma ने कहा…

सुंदर बुलेटिन। सादर आभार।

Anita ने कहा…

अनुपम भूमिका और पठनीय सूत्रों का चयन, आभार रश्मिप्रभा जी !

shashi purwar ने कहा…

सुन्दर पोस्ट हमें शामिल करने हेतु तहे दिल से आभार रश्मि दी

संध्या आर्य ने कहा…

हाँ माँ ऐसी ही होती है ।आपको तहे दिल से शुक्रिया और आभार।

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