एक बच्चा स्कूल की परीक्षा
में केवल एक नम्बर से फ़ेल हो गया. उसके लिये फ़ेल होने का अर्थ केवल इतना नहीं था कि
उसे पूरे साल उसी कक्षा में पढाई करनी होगी, बल्कि ये था कि निर्धन परिवार को उसके पूरे वर्ष की फ़ीस दुबारा
भरनी होगी. एक निर्धन परिवार के लिये यह किसी
बोझ से कम नहीं था. बच्चे ने निर्णय लिया कि वह शिक्षक के पास जाकर एक नम्बर की गुहार
लगाएगा और अपने अन्य विषयों के अच्छे नम्बर का हवाला देगा. वह कहेगा कि उसके लिये पास होना कितना अनिवार्य है, क्योंकि उसका
फ़ेल होना पूरे परिवार पर बोझ होगा.
शिक्षक ने उसकी बात ध्यान
से सुनी और कहा कि वो चाहें तो उसे एक नम्बर देकर पास कर सकते हैं, लेकिन वो ऐसा
नहीं करेंगे. रही बात पूरे वर्ष की फ़ीस दुबारा भरने की, तो शिक्षक ने आधी फ़ीस स्वयम भरने का वादा किया. बच्चा इस बात को नहीं समझ पाया और उसने कारण जानने
की जिज्ञासा प्रकट की. शिक्षक ने कहा – तुम अओनी सिफ़ारिश की बदौलत पास भी हो गये तो
एक साधारण विद्यार्थी की तरह पास हो पाओगे, जबकि तुम्हारी प्रतिभा साधारण छात्र की नहीं. मैं चाहता हूँ
कि तुम जीवन में जो भी बनो, सदा शिखर पर रहो. इस घटना को याद करते हुये बरसों बाद उस
छात्र के चेहरे पर एक मुस्कुराहट थी और उसने कहा कि मैं हमेशा सर्वोत्तम बनना चाहता
था और अगर मैं चोर भी बनता तो अव्वल दर्ज़े का चोर होता.
बचपन से अभावों के दुर्भाग्य
में जीने वाला वह बालक वास्तव में ब्रह्मा द्वारा एक अद्वितीय सौभाग्य का स्वामी था, जिसे उसने इन
पंक्तियों में व्यक्त किया:
आत्मा के
सौन्दर्य का शब्द रूप है काव्य,
मानव होना
भाग्य है कवि होना सौभाग्य!
वह बालक, जिसने यौवन
में प्रवेश करते ही कविताएँ लिखना प्रारम्भ कर दिया और कोई नहीं गोपाल दास “नीरज” थे.
वे स्वयम बताते हैं कि एक कवि सम्मेलन में
भाग लेने जाते हुये जिस वाहन की व्यवस्था की गई थी, उसमें इनके बैठने की जगह नहीं बची. ऐसे में बच्चन जी ने
उनसे कहा कि तुम मेरी गोद में बैठ जाओ. इन्होंने कहा कि याद रखियेगा आज से मैं आपका
गोद लिया पुत्र हो गया. यही बात उन्होंने अमिताभ
बच्चन को भी कही कि तुमसे पहले मैं तुम्हारे पिता का पुत्र हूँ.
मुझे तो फ़िल्मों के अलावा
कोई बात ही नहीं समझ आती. इसलिये नीरज जी के फ़िल्मी गीतों का ज़िक्र ही करूँगा. जबकि
इन्होंने फ़िल्मी गीत और अपनी कविताओं के लिये कभी दोहरे या अलग-अलग मांदण्ड नहीं अपनाए.
फ़िल्मों में साहित्यिक शायरों की पैठ तो हमेशा
से रही, जैसे – क़ैफ़ी, साहिर, शकील, मजरूह, हसरत आदि. लेकिन
कवियों का नाम गिना चुना ही रहा. जैसे – गोपाल सिंह नेपाली, पण्डित भरत
व्यास, इंदीवर आदि.
जब 1960 में एक कवि सम्मेलन
के बाद उनसे एक निर्माणाधीन फ़िल्म के लिये गीत लिखने को कहा गया तो उन्होंने मना कर
दिया क्योंकि वो नौकरी छोड़कर बम्बई नहीं रह सकते थे. पर निदेशक की ज़िद में उन्होंने
फ़िल्म के लिये अप्नी कुछ कविताएँ दे दीं और कहा कि उन्हें लौट जाना है. फ़िल्म थी “नई
उमर की नई फ़सल”, जो बिल्कुल नहीं
चली पर उसके गाने आज भी पॉपुलर हैं... कारवाँ गुज़र गया, देखती ही रहो, आज की रात बड़ी शोख...! फिर चंद्रशेखर (चरित्र अभिनेता) के
आग्रह पर उन्होंने गीत लिखे फ़िल्म “चा चा चा” के लिये और वो भी आज तक बजता है – सुबह न आई, शाम न आई!
देवानंद साहब के साथ वे
जुड़े फ़िल्म प्रेम पुजारी से, जब सचिन दा की इस ज़िद पर कि फ़िल्म का सिक्वेंस शराब का है, लेकिन गाने
में शराब, शबाब, जाम, साक़ी, गुल, बुलबुल कुछ
नहीं होना चाहिये और गाने की शुरुआत ‘रंगीला रे’ से होनी चाहिये. रात भर में जो गीत बना वो इतिहास है – तेरे
रंग में यूँ रंगा है मेरा मन, न बुझे है किसी जल से ये जलन”. देवानंद साहब के साथ इन्होंने जितने भी गीत लिखे सब अमर हो
गये. इनके गीतों की विशेषता यह रही कि जिन शब्दों का प्रयोग इन्होंने किया, वो फ़िल्मों
में कभी प्रयोग नहीं किये गये. साँस तेरी मदिर मदिर जैसे रजनीगंधा, प्यार है मेरा
चूड़ी जैसा, जिसका ओर न छोर और न जाने कितने गाने.
कवि सम्मेलनों में इनका
कविता पाठ का अंदाज़ अनोखा था. फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के लिये उनका
एक गीत “ए भाई ज़रा देखके चलो” एक ऐसा
गीत था जिसमें न न मुखड़ा था न अंतरा. शंकर जयकिशन इसे स्वरबद्ध करने की मशक्कत में
लगे थे. अंत में यह निर्णय हुआ कि जिस लय में नीरज इस गीत को गाते हैं, उसी धुन पर
इस गीत को उतारा जाए. और परिणाम यह हुआ कि
वह गीत वर्ष की सर्वश्रेष्ठ गीत घोषित हुआ.
इस छोटे से स्पेस में कितना
कहा जाए उस शख्स के बारे में. जितना विस्तार है उनके व्यक्तित्व का और उनकी कविताओं
का उसे इस छोटे से दायरे में समेटना बहुत मुश्किल है. इनके गीतों में प्रेम रस की वर्षा
है और एक गहन दर्शन है. उनका एक दोहा जो अभी
मुझे याद नहीं, एक गम्भीर दार्शनिक
बात कहता है. वे कहते हैं कि हम सभी अपने वज़न को लेकर बहुत सचेत रहते हैं, लेकिन वास्तव
में यह वज़न होता किस चीज़ का है. नीरज जी कहते हैं कि यह वज़न अस्थि, रक्त, माँस या मजा
का नहीं, केवल साँसों
का है, क्योंकि जब
तक साँस रहती है इंसान नदी में डूब जाता है, लेकिन जब साँसें शरीर को त्याग देती हैं तो वही व्यक्ति सतह
पर तैरने लगता है. विगत 19 जुलाई को यह महान
कवि और गीतकार इन साँसों को त्यागकर भारहीन हो गया, लेकिन छोड़ गया अनेक प्रेमियों के हृदय में कई मधुर प्रेम
गीत.
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12 टिप्पणियाँ:
अल्विदा इन्सान।
नमन 🙏
नीरज जी की कविताओं से उनके गीतों तक....कहाँ सिमट पाएगा शब्दों में, समंदर है !!!!
सादर आभार इन लिंकों के लिए....
अति सुंदर भूमिका, सादर आभार🙏
ये तय है कि कभी कोई दूसरा नीरज नहीं होगा! बहुत बढिया लिखा है सलिल दा (भाई) ने!
दोहा यूँ है कि -
तन से भारी साँस है, इसे समझ लो खूब |
मुर्दा जल में तैरता, ज़िन्दा जाता डूब ||
बहुत ही आत्मीयता से लिखा है सलिल भाई | साधुवाद
सदी के अंतिम गीतकार को सुमनांजलि !
महान कवि नीरज को समर्पित ब्लॉग बुलेटिन का एक यादगार अंक..
नीरज जी के बारे में बहुत अच्छी जानकारी प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
मेरे प्रिय कवि थे नीरज और सदा रहेंगे .... रूबरू सुनने का सौभाग्य मिला था दो बार ... कई गीत गुनते हैं अब भी
सादर नमन 🙏
आभार पाठकों का! गोपालदास नीरज जी का रचना संसार इतना विस्तृत है कि जितना कहा जाए कम ही पड़ता है! इनके गीत जब तक हमारे दिल दिमाग में गूंजते रहेंगे, नीरज जी सदा हमारे बीच रहेंगे! नमन, सदी के महागीतकार को!!
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