Subscribe:

Ads 468x60px

कुल पेज दृश्य

शनिवार, 28 जुलाई 2018

मिट्टी का घर, सोंधे से सपने


घर जब घर हुआ करता था,
मौसम कोई हो,
रिश्ते बड़े कुरकुरे,
मीठे हुआ करते थे ।
जान पहचानवाले चाचा जी, चाची जी भी
कायदे से रहना सीखा सकते थे,
मज़ाल थी किसी की,
जो उनकी अवहेलना कर दे !
बच्चे - बच्चे,
बड़े - बड़े हुआ करते थे ।
सम्मान और लिहाज की रेखा
बहुत मजबूत थी ।
अब तो न कोई घर है ,
ना ही रिश्ते ,
बस "हम अफलातून हैं" जैसे नेमप्लेट हैं
नाम से ज़्यादा गेट की कीमत है ।
भीतर से रिश्ते नहीं,
रोबोट निकलते हैं ,
सारे सम्बोधन ही बदल गए हैं,
...
आलम ये है कि 
रात सोना चाहती है,
उसे एक घर की तलाश है,
और गले लग जानेवाले रिश्तों की  ... 


रवींद्र शर्मा की कलम से 

निर्वासित पेड़ से 
---------------------
इन्हें तुम नहीं समझा पाओगे पेड़
कि गाँव के मिट्टी गारे से बने पुश्तैनी घर
अब तक कैसे खड़े हैं ज्यों के त्यों
और हर बरसात में उनके बूढ़े शरीरों से
सोंधी महक क्यों आती है 
और यहाँ
गारंटीशुदा सीमेंट से बन रही खूबसूरत इमारत
बनने से पहले 
क्यों गिर जाती है ...
इन्हें तुम नहीं समझा पाओगे पेड़
कि मकान के खड़े रहने का संबंध
मन से है
धन से नहीं
और महकने के लिए 
मिट्टी से जुड़ा होना बहुत आवश्यक है.......

रमाकांत सिंह

मानो न मानो 

महल बना लो, संगमरमर बिछवा लीजिये ...

लेकिन माटी की सौंधी महक नहीं तो घर क्या?

मिट्टी का घर म्यार, मुड़का, कड़ी और कडेरी
छत पर बांस का गथना और खपरा हो चाक का

जमीन मिट्टी की हो , बिछा दो छीन की बनी सरकी
जमीन गोबर से लिपी हो, छुही की दीवार पुती

पटाव नीम का पल्ला लगा हो
नीचे हाथ मे बांस का पंखा झलने वाला कोई मिल जाये

दही-बासी और गोंदली संग नूनचरा
पेट मे समय से तालाब नहाकर पड़ जाये
फिर मौत सिरहाने खड़ी हो परवाह नहीं
नींद पत्थर के तकिया में निरभुल आएगी ।

---- दिव्या शुक्ला !! 


बुझ गये सांझे चूल्हे 
------------------------
कहाँ खो गया वो मिटटी का घर 
गोबर से लीपा हुआ अंगना / दलान और दुआर ओसार 
रातों में गमकती महुआ की मादक सुगंध 
नीम की ठंडी छाँव निम्बौली की महक 
आम और जामुन के पेड़ --
चूल्हे में सेंकी रोटी बटुली की खटाई वाली दाल 
आंचल से मुंह ढंके गाँव की नई नवेली भौजाइंया
तर्जनी और मध्यमा ऊँगली से पल्ला थाम 
आँखों से इशारे करती अपने उन को -
और झुक जाती शर्म से पलकें देवरों से नजर मिलते ही 
ननद भाभी की चुहलबाजी देवरों की ठिठोली से गूंजता आंगन 
बीच बीच में अम्मा बाबू की मीठी झिडकी से 
कुछ पल को ठहर जाता सन्नाटा -कहाँ गया यह सब ?
शायेद ईंट के मकान निगल गये मिटटी का सोंधापन
गोबर मिटटी से लीपा आंगन कही खो गया ढह गया दालान 
फिनायल और फ्लोर क्लीनर से पोछा लगी लाबी में बदल गया ओसारा 
भाँय भाँय करने लगा अब बड़ा आंगन अब तो पिछवारे वाली 
गाय भैंस की सरिया भी ढह गई अब कोई नहीं यहाँ -
भाइयों के चूल्हे बंट गए और देवर भाभी के रिश्ते की सहज मिठास में 
गुड़ चीनी की जगह ले ली शुगर फ्री ने / ननद का मायका औपचारिक हुआ 
चुहलबाजी और अधिकार नहीं एक मुस्कान भर बची रहे यही काफी है 
अम्मा बाबू जी अब नहीं डांटते कमाता बेटा है बहू मालकिन 
अब पद परिवर्तन जो हो गया वो बस पीछे वाले कमरे तक सिमट कर रह गए 
उनका भी बंटवारा साल में महीनो के हिसाब से हो गया 
छह बच्चों को आंचल में समेटने वाली माँ भारु हो गई 
जिंदगी भर खट कर हर मांग पूरी करने वाले बाबू जी आउटडेटेड 
अम्मा का कड़क कंठ अब मिमियाने लगा और बाबू जी का दहाड़ता स्वर मौन -
आखिर बुढापा अब इनके भरोसे है अशक्त शरीर कब तक खुद से ढो पायेंगे 
दोनों में से एक तो कभी पहले जाएगा /अम्मा देर तक हाथ थामे रहती है बाबू का ----
और भारी मन से कहती है तुम्ही चले जाओ पहले नहीं तो तुम्हे कौन देखेगा 
हम तो चार बोल सुन लेंगे फिर भी तुम्हारे बिना कहाँ जी पायेंगे -
आ ही जायेंगे जल्दी ही तुम्हारे पीछे पीछे -भर्रा गया गला भीग गई आँखें 
फिर मुंह घुमा कर आंचल से पोंछ लिया हर बरगदाही अमावस पूजते समय 
भर मांग सिंदूर और ऐड़ी भर महावर चाव से लगाती ,चूड़ियों को सहेज कर पहनती सुहागन मरने का असीस मांगती अम्मा आज अपना वैधव्य खुद चुन रहीं हैं -
कैसे छाती पर जांत का पत्थर रख कर बोली होंगी सोच कर कलेजा दरक जाता है -
उधर दूर खड़ी बड़ी बहू देख रही थी अम्मा बाबू का हाथ पकड़ सहला रही थी 
शाम की चाय पर बड़े बेटे से बहू व्यंगात्मक स्वर में कह रही थी
तुम्हारे माँ बाप को बुढौती में रोमांस सूझता है अभी भी ..और बेटा मुस्करा दिया 
पानी लेने जाती अम्मा के कान में यह बोल गर्म तेल से पड़े और वह तो पानी पानी हो गई 
उनकी औलाद की आँख का पानी जो मर गया था ---
क्या ये नहीं जानते माँ बाप बीमारी से नहीं संतान की उपेक्षा से आहत हो
धीमे धीमे घुट कर मर जाते हैं फिर भी उन्हें बुरा भला नहीं कहते
सत्य तो यही है मिटटी जब दरकती है जड़ें हिल जाती है तब भूचाल आता है -
एक कसक सी उठती है मन में क्या अब भी बदलेगा यह सब 
हमारी नई पीढ़ी सहेज पाएगी अपने संस्कार वापस आ पायेंगे क्या साँझा चूल्हे ?


कुछ अन्य लिंक्स 

3 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

yashoda Agrawal ने कहा…

शुभ प्रभात
बेहतरीन बुलेटिन
सादर

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

बहुतही अनमोल संकलन!!

एक टिप्पणी भेजें

बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!

लेखागार