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मंगलवार, 16 अक्तूबर 2018

ख़ुद को सुरक्षित करो



पूजा, अर्थात विश्वास,श्रद्धा ।
मात्र हाथ जोड़ने से,
बेबात की अफ़रातफ़री से,
शक्ति का उपहास होता है ।
मौन स्मित रखो,
हर क्षण संकल्प उठाओ,
जौहरी की तरह ख़ुद को तराशो,
फ़िर माँ की आंखों में काजल भरकर,
ख़ुद को सुरक्षित करो,
शंखनाद के साथ माँ के आगमन का उल्लास मनाओ ...


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एक कथा के अनुसार महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर एक गांव है जहाँ देवी येलम्मा का वास है । इस गाँव में एक परम्परा है कि गंदगी से ही सही बचपन में यदि किसी लड़की के बालों में जटा पड़ जाती है वह यल्लमा देवी को सौंप दी जाती है अर्थात वह देवदासी हो जाती है , वह गांव की संपत्ति होती है और उसे जीवन भर विवाह का अधिकार नही होता । ऐसे में यौन शोषण तो आम बात है । उसी तरह संक्रमण वश यदि किसी लड़के को पेशाब में खून आ जाता है तो उसे भी एलम्मा की संपत्ति माना जाता है । ऐसे पुरुष को जीवन भर स्त्री के वेश में रहना होता है । स्त्री तो देवदासी या जोगतिन के रूप में पूरे गांव की दासी होती है । जीवन भर भिक्षा से इनका निर्वाह होता है । यह कविता ऐसी ही एक जोगतिन की व्यथा कथा है : - शरद कोकास
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जोगतिन
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तेरे चरण स्पर्श करने वाले भक्तों ने
कल रात मेरे शरीर पर स्पर्श किया था माँ
जाने कितने बिच्छू
जाने कितने साँप
कितनी छिपकलियां
मेरे शरीर पर रेंग गए
मैं नींद में नहीं थी माँ
मैं चीखना चाहती थी
मैं सोई नहीं थी माँ
मेरे मुँह में भी जबान थी
लेकिन सामर्थ्य का हाथ
मेरे मुँह पर था
घंटिया नहीं बजी माँ तेरे मंदिर की
जयकारे नहीं सुनाई दिए
ढोल ताशे नगाड़े भी नहीं बजे
मेरे कानों में गूँजती रही
एक पुरुष की आवाज
चुपचाप पड़ी रह
तू माँ की सेवा में है
हम माँ के पुजारी हैं
और तू माँ की है
तो तू हमारी है
मेरी हर रात ऐसी ही होती है माँ
बस मेरी सुबह
तेरे भक्तों की सुबह से
अलग होती है
प्रभाती नहीं गाई जाती
मेरी देहरी पर
न बजता है कोई मंगलगान
हर सुबह
मैं रात में टूटी हुई अपनी हड्डियों को जोड़ती हूं
अपने आँसुओं से
कुएं पर लज्जा की हवाओं में
अर्धनग्न अपने जिस्म पर
पानी उंडेलते हुए
मैं धो डालना चाहती हूं
रात के वे तमाम लिजलिजे स्पर्श
जो मेरी देह पर नहीं बल्कि मेरी आत्मा पर
दरिंदों के नाखूनों के निशान छोड़ गए थे
मैं धोना चाहती हूँ वे घाव
जिनमें समाज की इन सड़ी गली परंपराओं का मवाद दिखाई देता है
मैं नोच कर फेंक देना चाहती हूं
देवी की भक्ति के नाम पर
पैदा की गई
नियमों की उन बजबजाती इल्लियों को
जो मेरा ही नही इस समाज का जिस्म धीरे धीरे खा रही हैं
बहुत कोशिश करती हूँ माँ
कि मैं तेरे भक्तों द्वारा दिया गया
पवित्रता का विशेषण
धारण कर सकूँ
हर सुबह जैविक विवशताएँ मुझे थमा देती हैं एक कटोरा
जिसमें दिन भर
अपने पेट के गड्ढे को भरने के लिए
मैं अन्न जमा करती हूं
रात के अंधेरे में ही नहीं
दिन के उजाले में भी
वस्त्रों से ढके हुए मेरे निजी अंग
जाने कितनी बदतमीज़ियाँ बर्दाश्त करते हैं
विवशताएँ मेरे कानों में उंडेलती हैं
पिघले सीसे की तरह कुछ बोल
दिन में पुरुषों की छेड़खानी से
और रात में हवस से बचते हुए
माँ मैं तेरी पुजारन कहाती हूँ
माँ तू तो सब देखती होगी ना
शायद सोचती भी होगी
मुझे तो तेरी सेवा के लिए रखा गया था
मुझे कहाँ पता था माँ
कि तेरी सेवा तेरे भक्तों की सेवा है
मुझे नहीं पता था माँ
बचपन में सर पर धूल मिट्टी उठाते हुए
जाने कब मेरे बालों में
वह गंदगी समा गई
और उन से जटा बनने लगी
मुझे नहीं पता था माँ यह नियम किसने बनाए हैं
मुझे नहीं पता था माँ
सचमुच मुझे कुछ नहीं पता था
मगर तू तो सब जानती है माँ
तू रेणुका तू एलम्मा
तू जगत जननी
तू पाप हारिणी
तू दुख विनाशिनी
तू तो देवी है माँ ।
तू जानती है
एक दिन मेरी कमर धरती की ओर झुक जाएगी
और तेरे मंदिर के कलश
आसमान की ओर बढ़ जायेंगे
सूख जाएगा मेरी जांघों पर बहता रक्त
बस इतना बता दे
क्या कभी तेरे खप्पर में
इकठ्ठा होगा
इन भक्त आततायियों का रक्त ?

 

5 टिप्पणियाँ:

yashoda Agrawal ने कहा…

वआआह..
बेहतरीन बुलेटिन
सारी रचनाएँ अनपढ़ी है
आज और कल का काम मिल गया
आभार दीदी
सीदर नमन

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर।

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति

priyankaabhilaashi ने कहा…

सादर धन्यवाद, आदरणीया महोदया..

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

क्या बात है 17 तारीख से बुलेटिन का प्रसारण नहीं हो रहा है? कोई समस्या?

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