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शनिवार, 11 अगस्त 2018

दो बून्द बारिश हुई, मैं ही सावन बन गई



एक वक्त था,
जब सावन आता था,
और मैं शिवानी की नायिका,
शरतचन्द्र की नायिका,
मैत्रेयी की नायिका बन जाती थी ।
हरी चूड़ियों से भरी कलाई पर,
मैं खुद ही वारी वारी जाती थी  ।
बिछिया, पायल और धानी चुनर,
मैं सर से पाँव तक एक उपन्यास बन जाती थी ।
आसमान से बाँधती थी झूला,
पहाड़ों तक पींगे लेती थी ।
नदिया, सागर की लहरें,
मेरे साथ साथ चलती थीं ...
बिना मेहंदी सावन शुरू ही नहीं होता था ,
... अचानक !
मैं नायिका होने के ख़ुमार से दूर हो गई,
जितिया, नवरात्रि, खरमास में बदली गई चूड़ियाँ,
कलाइयों में ठहर गई ।
उदासीनता गहरी होती गई,
हँसी अधिकतर बनावटी हो गई,
आँखों के मेघ भी छंट गए,
चेहरा बंजर होने लगा,
ईश्वर की लीला,
दो बून्द बारिश हुई
मैं ही सावन बन गई,
बन गई झूला,
पसंद करने लगी नन्हीं चूड़ियाँ,
ये बून्दें कभी मोर बन जाती हैं,
कभी मेघ गर्जना,
कभी बरसती हैं,
गोद को झूला बना झूलती हैं 
ये बून्दें ... 
मेरी कात्या,
मेरी अमाया हैं,
जिनसे आती है,- सोंधी सोंधी खुशबू,
और तपते दिल पर वे बरसती जाती हैं,
मेरा पूरा वजूद मिट्टी का घर बन जाता है ।
और वे शिवानी, शरतचन्द्र, मैत्रेयी की नायिका,
नज़रबटटू बन मैं उनके साथ रहती हूँ,
अब मेहंदी की खुशबू फिर बिखरेगी ...

शब्द गुम हैं
फिर भी
सदियो से
कितना कुछ कह चुकी हूँ मैं
तुमने सुना नहीं शायद
(और लफ्ज़ हँस रहें हैं)
खिला हुआ है वसन्त
खुशबू पर भी है
उजाला बहका हुआ
गुम हो रही है साँसे
(और फूल हँस रहे हैं )
'आग'
'राख'
'रास'
'पंख' 
'श्वांस'
'हाड़-माँस'
'छल' नहीं
'कल' नहीं
'काल'
'वीभत्स'
'विभोर'
'समाधि'
'घनघोर अँधेरा'
'श्मशान का नृत्य'
'मृत्यु का ग़ुरूर'
'साम-दाम' नहीं
'दंड' में सम्पूर्ण
'काल' का कपाल
'मूल' की चिंघाड़
'मग्न' चिर-मग्न
'एकांत' का उजाड़
'अंधकार' का आकार
'प्रकाश' का प्राकार
'वैकुण्ठ' या 'पाताल' नहीं
'मोक्ष' का भी सार
'मौत' के गर्भ में
'ज़िंदगी' के पास
'रोष' हूँ ..
'अघोर' हूँ ..
यूँ तो घर की देहरी से वो कई बार विदा हुई..
पहली बार तब जब माँ ने स्कूल के लिए विदा किया था
हिचकियाँ बंध गईं थीं
रो रो कर आँसू सूख गए थे
माँ का आँचल छुड़ाए न छूटता था
परंतु भरोसा था जल्द लौटने का
माँ की गोदी में फिर छिप जाने का!
फिर आगे पढ़ाई के लिए विदेश विदा हुई
मन समंदर हो गया
आँखो से बहने लगा था
जैसे तैसे आँखो पर सपनों का पुल बांधा
कि साल भर बाद पुनः मिलन का भरोसा था
इंतज़ार था लौटने का!
फिर ब्याह हुआ
नए आसमान के लिए अपनी धरती त्यागी
आगे सतरंगी स्वप्न
पीछे स्निग्ध रंग
ये अलबेली विदा
माँ बाबा भाई बहन सबको छू छू कर महसूस किया
आश्वस्ति की छुवन
नेह का स्पर्श
सभी के सम्मुख अनायास बहते थे आँसू
भीतर सुदृढ़ होते थे बंधन
न !ये चिरविदा नहीं है इस देहरी से
फिर फिर लौट आना है
सुख के लम्हें तोड़ने
अनुरोधों पर न्योछावर होने
फिर फिर लौटना है..
आज बरसों बाद फिर एक विदा हुई
देहरी से बंधे धागे आहिस्ता आहिस्ता ढीले हो गए
उनमें गांठे बंध गईं
गांठे दिलों से लिपट गईं
अहसास मौन हो गए
देहरी रूठ गई
दरीचे नाराज़ हो गए.
न मनने में दिलचस्पी
न मनाने की गरज..
आज लग रहा
पूर्ण विदाई है
न लौटने की उम्मीद
न बुलाने की औपचारिकता
इस विदाई में अश्क न टूटे
इस विदाई में उम्मीद टूटी!
इस सावन
झुलस रहा है मन!


4 टिप्पणियाँ:

कविता रावत ने कहा…

दो बून्द बारिश हुई
मैं ही सावन बन गई,
बन गई झूला,
पसंद करने लगी नन्हीं चूड़ियाँ,
ये बून्दें कभी मोर बन जाती हैं,
कभी मेघ गर्जना,
कभी बरसती हैं,
गोद को झूला बना झूलती हैं
ये बून्दें ...
मेरी कात्या,
मेरी अमाया हैं
...........
अनमोल बूँदें है प्यार बरसाती
......
बहुत सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर सूत्र सुन्दर प्रस्तुति।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बेहद उम्दा बुलेटिन दीदी |

उषा किरण ने कहा…

वाह ! बहुत खूब 👏👏👏

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