४०० वाँ बुलेटिन
पर जब हमको तलब किया गया त हम सोचे कि का लिखा जाए. आजकल ब्लॉग पर घूमना आऊर
लिखना-पढना भी बहुत कम हो गया है. जेनरल ट्रेंड है, मगर हमरे लिए ब्लॉग से दूर
होने का कारन हमरा बेक्तिगत परेसानी है. लेकिन का करें, हम त खुद्दे कहते हैं कि
अपना तकलीफ का बिज्ञापन कभी नहीं करना चाहिए, काहे कि इसका कोनो मार्केट नहीं होता
है. इसलिए बिना बिज्ञापन के आप सब लोग का हाथ जोडकर पूरा बुलेटिन टीम के ओर से
धन्यवाद करते हैं कि आप लोगों के प्यार से आज बुलेटिन का चार सौवाँ अंक पर्कासित हो रहा है और ई नंबर अइसहीं बढता रहेगा
अगर आप लोगों का प्यार बना रहा.
हाँ त हम का कह
रहे थे? कहाँ कहे थे कुछ, कहने जा रहे थे कि बच्चा में कहानी सुनते थे कि “बहुत
पुराना ज़माना का बात है” अऊर बुजुर्ग लोग हमेसा कहते हैं कि “हमारा ज़माना में अइसा
होता था”- तब हम सोचे कि आखिर ई पुराना ज़माना का होता है. बस एगो आइडिया आया दिमाग
में कि चलिए ब्लॉग जगत में भी देखें कि पुराना ज़माना कैसा था.
अब ज़माना एतना फास्ट हो गया है कि साल-दू साल का टाइम भी पुराना ज़माना लगने लगता है. बहुत जल्दीबाजी में कुछ ब्लॉग से उनका एही तारीख के आस-पास लिखा हुआ पोस्ट आपके लिए लेकर आये हैं. मगर लगता है कि एक अंक में इसको समेटना बहुत मोसकिल काम है. काहे कि बहुत सा लोग छूट गया है.
अब ज़माना एतना फास्ट हो गया है कि साल-दू साल का टाइम भी पुराना ज़माना लगने लगता है. बहुत जल्दीबाजी में कुछ ब्लॉग से उनका एही तारीख के आस-पास लिखा हुआ पोस्ट आपके लिए लेकर आये हैं. मगर लगता है कि एक अंक में इसको समेटना बहुत मोसकिल काम है. काहे कि बहुत सा लोग छूट गया है.
तो जो लोग हमरे
दिल के बहुत करीब हैं मगर इसमें नहीं हैं, उनका चर्चा जल्दिये करेंगे. अभी बानगी
के तौर पर पेश है आज का बुलेटिन इस उम्मीद के साथ कि आपका आशीर्बाद अइसहीं बना
रहेगा!!
- - सलिल वर्मा
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भगवान ने इनकी
सुनी और भेजा इन्हें बस्तर के जंगलों में... जंगलों के फूल के रूप में. डॉ.
कौशलेन्द्र मिश्र की इच्छा जो उन्होंने न सिर्फ प्रकट की, बल्कि आमंत्रित भी किया
हम सबों को मिलने.. ३० जनवरी २०११ की उनकी कविता “बस्तर की अभिव्यक्ति” पर:
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अपनी इस हालत के
हम खुद भी हैं ज़िम्मेदार,
हमदर्दी के याचक
बनकर रहे उन्हीं के द्वार,
जिन्हें हमारी
खबरों से अखबार चलाने हैं
जीवन के यह राज़
रहे अबतक अनजाने हैं!
“अनजाने से सच”
शीर्षक कविता से ‘वी, द पीपुल’ की ताकत का एहसास दिलाती गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी की
यह अभिव्यक्ति ०८ जनवरी २०११ को उनके ब्लॉग “यह मेरा जहाँ” से:
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छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार।
खोपा पारै रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।
मारय पानी बिछलय बाट, ठमकत केंवटिन चलय बजार।
आन बइठे छेंवा छकार, केंवटिन
बइठे बीच बजार।
छत्तीसगढ़ का यह
लोकगीत राहुल सिंह जी के आलेख “बिलासा” का एक हिस्सा है जिसमें उन्होंने उस इतिहास
को याद किया है जो बिलासपुर की पहचान है. उनके ब्लॉग “सिंहावलोकन” से... प्रकाशन
३१ जनवरी २०११.
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दिगम्बर नासवा जी
का ब्लॉग “स्वप्न मेरे” अपनी ग़ज़लों, कविताओं और क्षणिकाओं के लिए सबके मन में बसा
है. और खुद इनका कहना है
है और बात तेरे दिल से हूँ मैं दूर बहुत
तुम्हारी मांग में सिन्दूर बनके सजता हूँ |
यह गज़ल है २९ जनवरी २००९ की जिसका शीर्षक है
“सिन्दूर बनके सजाता हूँ.”
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इतिहास की घटनाओं और पौराणिक कथाओं को देखने का एक
नया सन्दर्भ प्रस्तुत करतीं, नयी कविताओं का ज़िक्र हो और एक नाम जुबान पर न आये तो
वह व्यक्ति ब्लॉग जगत में नया होगा. उपदेश और पर उपदेश कुशल बहुतेरे को गीता के
उपदेश के परिप्रेक्ष्य में दिखा रही हैं रश्मि प्रभा जी, आज से चार साल पहले यानि
२८ जनवरी २००८ को “मेरी भावनाएं” ब्लॉग पर. कविता का शीर्षक है “सौभाग्य”
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अमवां में झूले लागल बौर,
आयो रे बसंत चहुँ ओर.
यह गीत...कविता... जो भी
कहें, “बेचैन आत्मा” को क्या अंतर पडता है. अपने मित्र श्री देवेन्द्र पाण्डेय के
ब्लॉग का यही नाम है और ३१ जनवरी २०१० को “आये रे बसंत चहुँ ओर” के साथ उन्होंने
एलान कर दिया था वसंतोत्सव का. इस वर्ष तो अभी भी शीत का प्रकोप बना हुआ है. आप
आनन्द लीजिए वसंत की वासंती कविता का.
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मैं
दहेज़ लेकर शादी करने वालों की बारात नहीं जाता। चाहे वह घर परिवार की शादी हो
चाहे समाज की। और यह काम मैं अपने विद्यार्थी जीवन से कर रहा हूं। इसके दो फ़ायदे
हुए। एक हमारे जानने वाले हमारे सामने इसकी ग्लोरिफ़िकेशन से बचते थे, दूसरे, कुछ लोग ही सही,
प्रेरित होकर दहेज़ नहीं लेते थे/हैं।
यह
सिद्धांत है श्री मनोज कुमार का. उनके ब्लॉग "मनोज" पर इसी बात को एक सशक्त कविता के
माध्यम से प्रस्तुत किया उन्होंने ३१ जनवरी २०१० को, कविता “धन्य बिटिया निशारानी”
“विदेशी बैंकों में जमा पैसा गरीबों का है और वो वापस
आना चाहिए!”
“अपनी ज़िंदगी के दस साल मुझे दे दीजिए, मैं आपको फखे
करने का मौक़ा दूंगा!”
“शिकायत न करें – सिस्टम में बदलाव लाएं!”
“शिकायत न करें – सिस्टम में बदलाव लाएं!”
ये कुछ वक्तव्य हैं युवराज राहुल गांधी के. और ऐसे ही
उनके कई बयानों की खबर ले रहे हैं रविनार अपने ब्लॉग "मीडिया-क्रुक्स" पर ३१ जनवरी
२०११ को. पोस्ट का शीर्षक है – Rahul Gandhi – Tears of a clown prince!”
२६ जनवरी २०१० का दिन और अली सय्यद साहब छुट्टी पर – “आज छुट्टी का दिन है
और मैं घर पर हूँ पर बीबी दुखी नहीं ... दूसरों की बीबियां ब्लागिंग के बारे में
क्या सोचतीं हैं पता नहीं ? पर अपनी बेगम बेहद खुश होती हैं , खास तौर पर अगर छुट्टी का
दिन हो और मैं ब्लागिंग से जूझना चाहूं तो उनका चेहरा खिल उठता है ! उनकी खुशियों
को ध्यान में रखते हुए मैं भी एडजस्टमेंट करता हूँ!”
उनके ब्लॉग “उम्मतें” से – “समंदर से जुडी हुई आँखें और ...”
तुम्हारे उठने और
मेरे गिरने के बीच
बहुत कम फासला था.
बहुत छोटी सी थी ये जमीं
या तो तुम उठ सकते थे
या मै ही,
मेरे गिरने के बीच
बहुत कम फासला था.
बहुत छोटी सी थी ये जमीं
या तो तुम उठ सकते थे
या मै ही,
शिखा वार्ष्णेय जी की यह कविता है २९ जनवरी २०१० के पन्ने से.
उनके ब्लॉग “स्पंदन” से! शीर्षक है “मेरागिरना तेरा उठाना”.
अपने कॉलेज के ज़माने की एक कविता को याद करते हुए, जो
शायद उनके ब्लॉग जगत में प्रवेश के बाद उनकी दूसरी पोस्ट रही थी. उनका मानना है कि
आज भी इस कविता का दर्द जस का तस है.. कुछ भी नहीं बदला
हर
मुहँ को रोटी,हर तन को
कपडे, वादा तो यही था
दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ
रश्मि
रविजा जी के ब्लॉग “अपनी, उनकी, सबकी बातें” से ३१ जनवरी २०११ की पोस्ट “आँखों मेंव्यर्थ सा पानी”
11 टिप्पणियाँ:
आपका जवाब नहीं सलिल दा.....
पुरानी पोस्ट को नए रंग रोगन के साथ पेश किया...
हाँ आपकी परेशानियों का ज़िक्र ज़रा हमको भी परेशान कर गया...
दुआ करती हूँ कि आप सदा खुश रहें...परेशानियों,तकलीफों से मुक्त रहें.
blog बुलेटिन को ४०० सौं वीं पोस्ट की बधाई.
सादर
अनु
...बधाई सलिल दा !
अच्छा लगा पुराना जमाना :) और उसे आपका याद करना भी.
बधाई.. बढ़िया बुलेटिन.
शुभकामनाएं आदरणीय ||
arey waaah...400 post bhi pure ho gaye :) :)
मिलकर रोयें फ़रियाद करें उन बीते दिनों को याद करें ............
400वीं कामयाबी जबरदस्त है - हम भी हैं इसमें और सोच रहे -
ऐ काश कहीं मिल जाये कोई
वो मीत पुराना बचपन का
:)
आपका अंदाज निराला है।
पहली बार रश्मि रविजा जी की कविता पढ़ी। कौशलेंद्र जी का अनुभूति.. जंगल का फूल पढ़ा। मनोज जी की साहसी बेटी की काव्यमय सत्य कथा पढ़ी..गिरिजा जी को अब पढ़ने लगा हूँ..दिगंबर नासवा जी की ग़ज़लें और रश्मि प्रभा जी की कविता तो वर्षों से पढ़ता रहा हूँ। आपकी प्रस्तुति का अंदाज ही कुछ ऐसा होता है कि सभी पढ़ने की इच्छा होती है। इतने अच्छे लेखकों के साथ मेरी कविता का लिंक देने के लिए आभार और शानदार प्रस्तुति के लिए बधाई।
बेहतरीन ,,,,
बुलेटिन की ४०० सौं वीं पोस्ट के लिए बधाई.सलिल जी,,,,,
recent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,
बधाई ४०० वीं पोस्ट की..सुन्दर सूत्र..
पूरी बुलेटिन टीम और सभी पाठकों को ४००वी पोस्ट के इस पड़ाव तक पहुँचने की बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें !
सलिल दादा दिल से दिल को राहत होती है ... हम लोग बेशक दूर है पर फिर भी इतनी नज़दीकियाँ तो है ही कि एक दूसरे की तकलीफ बाँट सकें ... है न ???
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