एहसास कभी मन में चक्रवात की तरह घूमते हैं और दम तोड़ देते हैं
कभी बंद दरवाजों को जोर से खटखटाते हैं .............. तोड़ देने की नाकाम कोशिशें होती हैं
सुनी इठलईहें या सोचिहें - कौन जाने
एहसास उतरने के रास्ते हम ढूंढ ही लेते हैं
और मैं अंजुरी में लेकर किसी न किसी मंच पर पहुँच ही जाती हूँ .........:)
रश्मि प्रभा
कोख में सहेज
रक्त से सींचा
स्वपनिल आँखों ने
मधुर स्वपन रचा
जन्म दिया सह दुस्तर पीड़ा
बलिहारी माँ देख मेरी बाल-क्रीड़ा !
गूँज उठा था घर आँगन
सुन मेरी किलकारी
मेरी तुतलाहट पर
माँ जाती थी वारी-वारी !
उसकी उँगली थाम
मैंने कदम बढ़ाना सीखा
हर बाधा, विपदा से
जीत जाना सीखा !
चोट लगती है मुझे
सिसकती है माँ
दूर जाने पे मेरे
बिलखती है माँ !
ममता है, समर्पण है
दुर्गा-सी शक्ति है माँ
मेरी हर ख़ुशी के लिए
ईश की भक्ति है माँ !
माँ संजीवनी है
दुखों का अवसान है
ईश का रूप
प्रभु का नूर है
एक अनमोल तोहफा
सारी कायनात है माँ !
उसने कहा.........
जिंदगी क्या है
एक खूबसूरत गीत
या कोई हसीन ख्वाब ..... ।
मैंने कहा
गीत या ख्वाब
तो नहीं पता, पर हॉ
जीने के लिये
जरूरी है
‘कुत्ते सी वफादारी’
क्योंकि, जरा सी ‘चूक’
बना देगी ‘लावारिस’
इतना ही नहीं
घोषित कर दिऐ जाओगे
‘हलकाए’ हुए
और मार दिए जाओगे
‘बेमौत’
मीठी रोटी में
मिलाकर जहर
तब, जिंदगी के मायने
चढ़ जाएगे बलि
‘म्यूनसपैलिटी’ वालों के
‘जनसुरक्षा’
अभियान के तहत...! (अनन्या अंजू )
तुम्हारे जैसी ...
हर शाम ढल जाती है..
चुप से आकाश..
नारंगी सी मुस्कुराहट लिए ..
कभी पिघलती .. कभी सिमटती
और गुरूब हो जाता है वो पीला गोला
जैसे तुमने अलविदा कहा था ..
बिना छुए ..
हर रात
एक कविता पढ़ती है ....
मेरी काँधे पे सर रख के ..
मैं आज भी नहीं बोलती उनकी गलतियों पे ..
मेरी लिखावट नहीं समझ पाती है
तुम रुक रुक के पुछा करते थे
"सही पढ़ा है ना ?"
ये रातें तुम्हारी नक़ल उतारती हैं ..
जैसे तुम रुकते थे ..
ठहरी हैं ये भी ...
हर सुबह..
उबासियाँ लेती हैं ..
हर रोज़ रौशनदान से धुप लेट आती है ...
या यूँ कह लो ढांक लेती है रात अपना चेहरा
जैसे तुम ढँक लेते थे ..
मैंने चाय पीनी छोड़ दी है ..
पर रसोयीं में जब भी जाती हूँ ..
चाय पत्ती के डिब्बे पे बरबस ही हाँथ पहुँच जाते हैं ...
और मैं मन ही मन सोच के हंसी आ जाती है
"शक्कर सिर्फ एक चम्मच "
हर शाम ..
हर रात ..
हर सुबह .. तुम जैसी..
वापस आ जाओ ..
साथ चाय पिने का बहोत मन होता है ..
तुम्हारी बहोत याद आती है ...
.........कहीं ये अर्थ न खो दें
मनोभावों को करते व्यक्त
सारे रंग होली के
बहुत सुंदर ,बहुत गहरे हैं
सारे रंग होली के
ये पीले, लाल, नारंगी
हरे, नीले , गुलाबी सब
छिपाए अपने अंदर
रंग, हैं भंडार अर्थों का
सभी रंगों के अर्थों में
मिलेगी भिन्नता, लेकिन
कोई इक चीज़ है जो
इन सभी रंगों में साझी है
वो है संवेदना
जो प्यार की भाषा समझती है,
वो है सद्भावना
जो मित्रता की बात करती है ,
ये हैं संदेश देते
एकता के और समन्वय के
नहीं कोई बड़ा-छोटा,
न कोई रंक न राजा
यही हम सुनते आए थे
यही अनुभव हमारा था
मगर मुझ में न जाने क्यों
ये पिछले चंद सालों से
पनपने सा लगा इक भय
कहीं ये प्यारे सुंदर रंग
अपने अर्थ न खो दें
कहीं टेसू के फूलों की जगह
तेज़ाब न ले ले ?
कहीं सद्भावना, दुर्भावना से
हार न जाए ?
कहीं आरक्षणों का विष
रहीम और राम के मन से
समन्वय को हटा कर
एकता को नोच न फेंके ?
न जाने कितने लोगों का
यही इक भय जो
सोते जागते हर दम
हमारा पीछा करता है
कहीं ये प्यारे प्यारे रंग
अपने अर्थ न खो दें ?
चलो अपनी जगह हम सब
यही बस एक प्रण कर लें
यही दृढ़ता से निर्णय लें
न होने देंगे कम
सौंदर्य हम होली के रंगों का
हमें इनकार है
दुनिया की सारी ऐसी चीज़ों से
विचारों की जो सुंदरता को
कर दें नष्ट दुनिया से
न खोने देंगे हम,कोई भी
क़ुदरत का हसीं तोहफ़ा
न धुंधला होने देंगे अर्थ
इन होली के रंगों का
मेरे पास सपनो का एक ढेर है उस ढेर को मैंने सौप दिया है उसे और वो उसमें से चमकीला सा कोई सपना चुनता है और सच कर देता है और हाँथ पकड़ के कहता है और सपने देखो ...एक सपना था जगजीत जी को सुनने का ..मौका भी था जब जगजीत जी और गुलाम अली साहब सीरी फोर्ट दिल्ली आये थे ...एक टिकेट के फासला उम्र भर का पछतावा दे गया ....
बस अब और कोई पछतावा अफोर्ड नहीं कर सकते ,हाँथ में टिकेट ,आँखों में चमक लिए ,सीरी फोर्ट के बाहर लगी कतार में खड़े हो गए ...हर उम्र के लोग , जवान दिखने की कोशिश करते बुजुर्ग , बुद्धिजीवी टाइप की बाते करते कुछ मेकप से रंगे चेहरे ,कुछ बेहद सादा कुछ संजीदा सब एक जगह इकठ्ठा , एक सफ़ेद कुरता पैजामा नोकदार जूतिया पहने बुजुर्ग को देखने के लिए उस फ़रिश्ते की एक झलक पाने की बेचैनी साफ़ थी ...
कार्यक्रम शुरू हुआ ..भूपेंद्र जी की सुरीली आवाज़ से उन्होंने याद किया कुछ अनमोल लम्हों को जब वो और जगजीत साहब साथ थे ....मौहोल खुशनुमा था एक के बाद एक तरानों ने समां बांध दिया मिलाली जी की जादुई आवाज़ का भी जब साथ मिला तो दिल झूम उठा दिल ढूंढता है ,होके मजबूर मुझे , हुज़ूर इस कदर भी ना इतरा के ,बीती ना बिताई रैना ..और भी ढेर से नगमें ...शाम को यादगार बना गए ...
फिर वो लम्हा आया जिसका इंतज़ार था ..वो फ़रिश्ता जिसे लोग गुलज़ार कहते है और वो अपने को ग़ालिब का मुलाजिम सामने आया पलके झपकना भूल गई और यकीन करना पड़ा ये सच है सपना नहीं ... चाँद सा झक सफ़ेद बुजुर्ग है पर इतना सम्मोहन की आप अपने आप को भूल बैठे ...हॉल में एक लड़की चीख भी पड़ी "I LOVE YOU गुलज़ार" .. एक के बाद एक नज़्म कभी आँखों के कोर भीगे ,तो कभी ठहाके लगे ,वो पन्ने पलटते गए और हम दुआ करने लगे ये शाम यूँही चलती रहे , कितनी बारीकी से पकड़ते है हर लम्हे को यार बात को ...लगता है जिन तिनको को लोग बेकार समझ कर उड़ा देते है गुलज़ार उनसे भी कविता रच डालते है ...कुछ भी जाया नहीं होता और अगर मैं ये शाम जाने देती तो शायद ये ज़िन्दगी जाया हो जाती... हॉल में भी बोला था यहाँ भी वही बोलूंगी
"I LOVE YOU गुलज़ार" .....
जीवन पर्यंत,
जन्मों-जन्मों की,
खोज भिन्न
एक सार,
आनंद स्वरुप
अंश जग सारा,
आनंद
जगत आधार |
हास्य-रुदन,
निद्रा-जगन,
कुछ पाने
कुछ खोने में,
सूक्षम दृष्टि
यदि डालें तो,
आनंद छुपा
हर होने में |
आनंद !
मूलतः दो विभाग,
एक पाय
घटे,
एक बढ़ता है,
एक
जन्म-मरण
पथ का दायी,
एक
मुक्ति श्रोत
श्रुति कहता है |
आनंद
जगत का
सीमित है,
क्षय मुक्त
नहीं परिमाण,
सच्चिदानंद
तो एक हैं ,
वो सर्वेश्वर,
भगवान |
4 टिप्पणियाँ:
सुन्दर रचनायें..
आप की नजर हर अहसास को हमसे रु ब रु कराती है
बहुत-बहुत धन्यवाद ....
शुभकामनायें ....
बिलकुल है ... इसमे क्या शक है ... बिना अहसास तो सब बेकार है !
aapki paarkhi nazar se kuchh kaise bachega :)
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