चुप्पी तोड़ो
कुछ कहो
बातों का सिलसिला जोड़ो
पूछो कोई सवाल
अरसे से जंग पड़ी है जुबान पर
मैं बोलना चाहती हूँ .................. चलो मन का बोझ हल्का कर लें
रश्मि प्रभा
ख्वाहिशो की कुछ ना कहो...
तेरे होने पर सूरज गुलाम था मेरा
रास्ते मेरा कहा मानते थे
चाँद बिछा रहता था राहों में
और मैं दुबक जाती थी बहारों के आँचल में
कभी धूप में भीग जाती थी
कभी बूँदें सुखा भी देती थीं,
बसंत मोहताज नहीं था कैलेण्डर का
जेठ की तपती दोपहरों में भी
धूल के बगूले उड़ाते हुए
घनघोर तपिश के बीच
वो आ धमकता था
कभी सर्दियों में आग तापने बैठ जाता था
मेरे एकदम करीब सटकर
पेड़ों पर कभी भी खिल उठते थे पलाश
और खेतों में कभी भी लहरा उठती थी सरसों
तुम थे तो ठहर ही जाते थे पल
और भागता फिरता था मन
मुस्कुरा उठता था धरती का ज़र्रा-ज़र्रा
और खिल उठती थीं कलियाँ
बिना बोये गए बीजों में ही कहीं
मौसम किसी पाजेब से बंध जाते थे पैरों में
और पैर थिरकते फिरते थे जहाँ-तहां
कैसी दीवानगी थी फिर भी
लोग मुझे दीवाना नहीं कहते थे
बस मुस्कुरा दिया करते थे
और अब तुम नहीं हो तो
कुछ भी नहीं होता, सच
बच्चे मुंह लटकाए जाते हैं स्कूल
लौट आते हैं वैसे ही
शाम को गायें लौटती हैं ज़रूर वापस
लेकिन नहीं बजती कहीं बांसुरी
शाम उदासी लिए आती है
और समन्दर की सत्ताईसवीं लहर में
छुप जाती है कहीं
मृत्यु नहीं आती आह्वान करने पर भी
और जीवन दूर कहीं जा खड़ा हुआ है
मंदिरों से गायब हो गए हैं भगवान
खाली पड़े हैं चर्च
सजदे में झुके सर
अचानक इतने भारी हो गए कि उठते ही नहीं
न जाने कौन सी नदी आँखों में उतर आई है
जिसे कोई समन्दर नसीब होता ही नहीं
तुम्हारे जिस्म की खुशबू नहीं है कहीं
फिर हवा क्या उडाये फिरती है भला
क्या मालूम
लौट आओगे एक रोज तुम
जैसे लौटे थे बुध्ध
जैसे लौट आये थे लछमन
जैसे रख दिए थे सम्राट अशोक ने
हथियार
वैसे ही तुम भी रख दोगे अपने विरह को दूर कहीं
लेकिन उन पलों का क्या होगा
जो निगल रहे हैं हर सांस को
कैसे बदलेगा यशोधरा और उर्मिला का अतीत
कैसे नर्मदा अपने होने पर अभिमान करेगी
तुम्हारा आना कैसे दे पायेगा उन पलों का हिसाब
जिन्हें ना जीवन में जगह मिली
न मृत्यु में
सूरज अब भी कहा मानने को बेताब है
लेकिन क्या करूं कि कुछ कहने का
जी नहीं करता
मौसम अब भी तकते हैं टुकुर-टुकुर
लेकिन उनकी खिलखिलाहटों से
अब नहीं सजता जीवन
एक झलक देख लूं तो जी जाऊं
पलक में झांप लूं सारे ख्वाब
रोक लूं जीवन का पहिया और लौटा लाऊँ
वो सोने से दिन और चांदी सी रातें
हाँ, मैं कर सकती हूँ ये भी
लेकिन विसाल- ए- आरज़ू तुम्हें भी तो हो
तुम्हारे सीने में भी तो हो एक बेचैन दिल
जीवन किसी सजायाफ्ता मुजरिम सा लगे
और बेकल हों तुम्हारी भी बाहें
इक उदास जंगल को अपनी आगोश में लेने को
मेरी ख्वाहिशो की अब कुछ ना कहो
कि अब ख्वाब उतरते ही नहीं नींद के गाँव
पाश की कविता का पन्ना खुला रहता है हरदम
फिर भी नहीं बचा पाती हूँ सपनों का मर जाना
क्या तुम्हारी जेब में कोई उम्मीद बाकी है
क्या तुम्हें यकीन है कि
जिन्दगी से बढ़कर कुछ भी नहीं
और ये भी कि जिन्दगी बस तुम्हारे होने से है
क्या सचमुच तुम्हें इस धरती की कोई फ़िक्र नहीं
नहीं फ़िक्र मौसमों की आवारगी की
नहीं समझते कि क्यों हो रही हैं
बेमौसम बरसातें
और क्यों पूर्णमशियाँ होने लगी है
अमावास से भी काली
कि ढाई अछर कितने खाली-खाली से हो गए हैं
लाल गुलाबों में खुशबू नहीं बची
नदियों में कोई आकुलता नहीं
पहाड़ ऊंघते से रहते हैं
समंदर चुप की चादर में सिमटा भर है
कोई अब रास्तों को नहीं रौंदता
कोई नहीं बैठता नदियों के किनारे
कहीं से नहीं उठता धुंआ और
नहीं आती रोटी के पकने की खुशबू
तुम कौन हो आखिर कि जिसके जाने से
इस कायनात ने सांस लेना बंद कर दिया
क्या तुम खुदा हो या प्रेमी कोई...
प्रतिभा कटियार
स्वप्न एक मिथ्या .....
स्वप्न बन कर
स्वप्न में
आना ,
और ,
स्वप्न सा
टूट कर
बिखर जाना;
और
याद आना
जागती आँखों में
डूबता -उबरता
खुमार .
हाथों में
मेहँदी क़ी लाली का
चढ़ना ,
और ,
हल्दी सा पीला हो
उतर जाना ;
और
याद आना
हाथों को पीला करने क़ी
चाह.
हरी -लाल चूड़ियों क़ी
खनखनाती
आवाज़ ,
और ,
उनका टकराना ,चटकना ,
टूट कर बिखर जाना ,
और
याद आना
चूड़ियों को पहननें क़ी
ललक .
बेला -गुलाब के फूलों को
वेणी में गूंथ
पहनना ,
और ,
फूलों का मुरझाकर
गिर जाना ;
और
याद आना
फूलों में महकता
अनुराग .
सब कुछ देखना
समझना ,
और,
जानते हुए भी
अनजान बन जाना ;
और
याद आना
स्वप्न एक
मिथ्या .
अलका
गली के उस मोड़ पर
एक नीम का पेड ,गली के उस मोड़ पर
चंद पान की दूकाने और एक चाय का ढाबा
गली के कुछ बदमुज्जना लड़के और हॉस्टल की तारिकाओ का आना जाना
चीजे बदल रही है तेजी से पर रफ्तार आज भी यहाँ धीमी है
लोग पहचानते है सबके चेहरे , कुछ के नाम भी ।
एक छोटा मंदिर भी है उसी नुक्कड़ पर ,
जिसके बरामदे मे कुछ उम्रदराज लोगो का जमघट लगता है
गुजरे ज़माने के बातें ,यादें और बतकही साथ चाय के कुछ गर्म प्याले ,
हर साल जाडे के दिनों मे एक कम हो जाता है उनमे से ,
सबके चेहरे मायूएस होते है आँखों मे दुख और डर के भावः उभरते है
की अब किसकी बारी है , हर कोंई एक दुसरे को हसरत से ताकता है ,
कुछ दिनों तक जमघट नहीं लगता , मंदिर का बरामदा सूना हो जाता
पर फिर एक दिन फिर वही हंसी वही बतकही ,
सच है यही है जिन्दगी हाँ यही है जिन्दगी
प्रवीण द्विवेदी
मैं अहंकार
अहंकार बोल उठा?
1*
पिताजी ने एक दिन कहा
तुम मेरी तरह मत बनना
अन्यथा मेरी भांति मरने के बाद
लोग तुम्हें भी मूर्ख कहेंगे
2*
भाई ने राह चलते कहा
तुम इतने अच्छे क्यों हो?
मेरा काम तुमने कर दिया
मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता
3*
माँ ने थकी सी आवाज में कहा
तुमने अपने पिता के दायित्वों का
कर दिया निर्वहन
मैं चलती हूँ अनंत यात्रा में
4*
यह तुम्हारा कर्तव्य था?
5*
मित्र ने सांझ की बेला में कहा टहलते
तुम भी निकले खानदानी जड़ भरत
दुनियादारी ही भूल गये
तुम्हारी चिता को आग कौन लगायेगा?
6*
एक लड़की बहुत प्यार कर बैठी
आप इतने भले क्यों हो?
आपने मेरा कितना ख्याल रखा
लेकिन मैं साथ नहीं दे सकती
7*
एक दिन लोगो ने सुना
रमाकांत चल बसा
अरे मर गया?
चलो अच्छा हुआ
मर गया, मर गया
8*
कुछ मन से कुछ अनमने
हो गये इकट्ठे झोकने आग में
एक कानाफूसी हुई
जीया भी तो किसके लिये?
और मर भी गया तो किसके लिये?
रमाकांत सिंह
7 टिप्पणियाँ:
शानदार बुलेटिन
बहुत बढ़िया बुलेटिन....
सुन्दर रचनाएं..
सादर
अनु
बहुत खूबसूरत रचनाएं रश्मिप्रभा जी ! हर रचना में दिल धडकता है और हर शब्द में छिपी आह अचानक से ध्वनित हो जाती है पाठक की आँखों को नम करने के लिए ! इतने सुन्दर संकलन के लिए आभार आपका !
बहुत सुंदर लिंक संकलन,आभार रश्मी जी ,,,
recent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,
बहुत सुन्दर रचनाओं का संकलन किया है रश्मि जी!
बहुत सुंदर प्रस्तुति....प्रतिभा जी की कविता बेहद पसंद आई...बाकी सब भी...
बस ऐसे ही हम सब को कहते सुनते ... ब्लॉगिंग के अपने सफर मे चलते जाना है !
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