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सोमवार, 7 जनवरी 2013

"लक्ष्मण रेखा" की दरकार किस को है - ब्लॉग बुलेटिन

प्रिय ब्लॉगर मित्रों ,
प्रणाम !

आजकल जिस हिसाब से बेहिसाब ऊलजलूल बयान आ रहे है वो निश्चित ही काफी विचलित करते है ... साथ साथ इस सच्चाई से भी रूबरू करवाते है कि हमारा समाज दिन प्रति दिन किस कदर अपनी संवेदनशीलता खोता जा रहा है !

पिछले दिनों मशहूर कार्टूनिस्ट श्री सुधीर तैलंग जी का एक कार्टून आया था ... आप भी देखिये...


मेरे हिसाब से इस से सटीक और कुछ नहीं कहा जा सकता ... आप अपनी राय दीजिये ... मैं तब तक आप सब के लिए आज की बुलेटिन तैयार कर लूँ !

सादर आपका 

शिवम मिश्रा 

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वो बहाते हैं हम पी जाते हैं

nilesh mathur at आवारा बादल
उनके पसीने कि कमाई हम खाते हैं वो बहाते हैं हम पी जाते हैं वो दो वक़्त की रोटी को तरस जाते हैं और हम पिज्जा

क्रान्ति-बीज बन जाना...

डॉ. जेन्नी शबनम at लम्हों का सफ़र
क्रान्ति-बीज बन जाना... ******* रक्त-बीज से पनप कर कोमल पंखुड़ियों-सी खिलकर सूरज को मुट्ठी में भर लेना तुम क्रान्ति-बीज बन जाना ! नाजुक हथेलियों पर अंगारों की लपटें दहकाकर हिमालय को मन में भर लेना तुम क्रान्ति-बीज बन जाना ! कोमल काँधे पर काँटों की फसलें उगाकर फूलों को दामन में भर लेना तुम क्रान्ति-बीज बन जाना ! मन की सरहदों पर संदेहों के बाड़ लगाकर प्यार को सीने में भर लेना तुम क्रान्ति-बीज बन जाना ! जीवन पथ पर जब वार करे कोई अपना बनकर नश्तर बन पलटवार कर देना तुम क्रान्ति-बीज बन जाना ! अनुकम्पा की बात पर भिड़ जाना इस अपमान पर बन अभिमानी भले जीवन हार देना तु... more »

फांसले ....

अनामिका की सदायें ...... at अनामिका की सदायें ...
इजहार, इकरार की कोई कसावट बुन ही नहीं सका तुम्हारे लिए ये मन ! बेगानेपन का एहसास फांसले तक्सीम किये रहा तमाम उम्र . भोंडेपन, घुन्नेपन, हीनता से ग्रसित अहम् और तिस पर मगरुरता से लिसलिसाता पौरुष तुम्हारे अधिकार से सदैव दूर करने में सहायक रहे दायरों,रिवाजों में बंधा ये वजूद छटपटाता रहा मासूम आँखों के तिलिस्म से निकलने के लिए और तुम्हारी "मैं-मेरा " की हर चोट को सहता रहा सिर्फ इसी उम्मीद में कि शायद एक दिन तुम जिम्मेदारियों का बोझ खुद उठा कर कर्म की राह पर चल सम्पूर्णता की मजिल पा सको।

नुकीली हवाएँ ,चुभती ठण्ड!

noreply@blogger.com (Arvind Mishra) at क्वचिदन्यतोSपि...
कड़ाके की ठण्ड पड़ रही है। मानवीय गतिविधियां शिथिल पड़ रही हैं . कहते हैं पैसे वालों के लिए ठण्ड अच्छा मौसम है .होता होगा जो समाज दुनियां से निसंग लोग है-आत्मकेंद्रित हैं . हेडोनिस्ट हैं। मगर हम लोग तो तमाम सरोकारों से जुड़े हैं सो ठण्ड से भी दो चार हो रहे हैं . अपुन के पूर्वांचल में कैसी ठण्ड पड़ती है और जन जीवन कैसे ठहर सा जाता है, इसका एक जोरदार शब्द चित्र *ब्लॉगर पदम सिंह ने खींचा है अपने ब्लॉग पर* , आज ठिठुरते हुए बस वही आपसे साझा कर रहा हूँ -कविता आप भी ठिठुरते हुए पढियेगा तो ज्यादा आनंद आएगा :-) *चला गजोधर कौड़ा बारा …* * * ** *कथरी कमरी फेल होइ गई* * अब अइसे न ह... more »

IF NO ONE KILLED JESSIKA ...

रश्मि प्रभा... at मेरी भावनायें...
IF NO ONE KILLED JESSIKA ... तो उस रात कहीं कोई बस नहीं चली कोई हादसा नहीं हुआ कोई लड़की नहीं मरी !... अरे कभी नहीं मरी !!! ... क्या नाम था उसका ? क्या पहचान थी उसकी ? क्या कहा ? - इस देश की बेटी थी !!! - तब तो बहस ही खत्म ! यहाँ जातीयता है धर्म की लड़ाई है यहाँ जिन महान हस्तियों का शासन है वे उस बस के यात्री हैं तो बस की शिनाख्त भी मत करो अँधेरे में बेहोश चेहरे भला गवाही देते हैं ......... याद रखो - चश्मदीद लोग अंधे होते हैं !

एक कैपेचीनो और "कठपुतलियाँ"

shikha varshney at स्पंदन SPANDAN
गुजर गया 2012 और कुछ ऐसा गुजरा कि आखिरी दिनों में मन भारी भारी छोड़ गया। यूँ जीवन चलता रहा , दुनिया चलती रही , खाना पीना, घूमना सब कुछ ही चलता रहा परन्तु फिर भी मन था कि किसी काम में लग नहीं रहा था . ऐसे में जब कुछ नहीं सूझता तो मैं पुस्तकालय चली जाया करती हूँ और वहां से ढेर सी किताबें ले आती हूँ और बस झोंक देती हूँ खुद को उनमें। पर इस बार कुछ पढने लिखने का भी मन नहीं था. फिर भी, पहुँच गई लाइब्रेरी. कुछ अंग्रेजी किताबें उठाईं, फिर सोचा एक नजर हिंदी वाली शेल्फ पर भी डाल ली जाये, हालाँकि उस शेल्फ की सभी किताबों को मैं जैम लगाकर चाट चुकी हूँ फिर भी लगा काफी अरसा हो गया हो सकता है क... more » 
 

दहरा के भरोसा बाढ़ी खाना

Sanjeeva Tiwari at आरंभ Aarambha
इस छत्तीसगढ़ी मुहावरे का भावार्थ है संभावनाओं पर कार्य करना. आईये अब इस मुहावरे में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी शब्द 'दहरा' एवं 'बाढ़ी' का विश्लेषण करें. पानी भरे हुए खाई को हिन्दी में 'दहर' कहा जाता है. यही दहर अपभ्रंश में 'दहरा' में बदल गया होगा. छत्तीसगढ़ी में गहरा जलकुण्ड या नदी के गहरे हिस्से को 'दहरा' कहा जाता है. दहरा से संबंधित एक और मुहावरा है 'दहरा के दहलना : डर या भय से कॉंपना'. इस मुहावरे में प्रयुक्त शब्दों का आशय बताते हुए शब्दशास्त्रियों का अभिमत है कि संस्कृत के अकर्मक क्रिया 'दर' जिसका आशय 'डर' है से 'दहरा' बना है. 'दहरा के दहलना' में प्रयुक्त भावार्थ के अनुसार 'दहरा' का ... more »

निमन्त्रण

निमन्त्रण स्त्रियो, अपने भीतर व बाहर झाँककर देखो देखो शायद तुम्हारा कोई अदृश्य हाथ भी हो वह हाथ जो तब ताली बजाता है जब तुम्हारे दो हाथ बलात्कारियों से तुम्हारा बचाव करने में अपने को कम पाते हैं। देखो, उस हाथ को काटकर फेंक दो अन्यथा फिर बलात्कार होगा और वह फिर ताली बजाएगा। ताली एक हाथ से नहीं बजती बलात्कार का आरोपी केवल बलात्कारी नहीं होता बलत्कृता ही जड़ होती है इस अपराध की। कभी वह जीन्स पहन कभी वह स्कर्ट पहन कभी वह बॉय फ्रैन्ड रख कभी देर रात बाहर निकल कभी वह सर उठाकर कभी वह बराबरी का नारा लगा तो कभी भाई, पिता, पति, ससुर, देवर, पुत्र या प्रपोत्र द्वारा खींची हुई लक्षमण रेखा पार कर दे आ... more »

दम तोड़ती ज़िन्दगी.....

ज़िन्दगी ने क्यों पहन लिया ये काला लिबास... जाने किस बात का मातम मनाती है ज़िदगी. ज़िन्दगी के करीब कोई मर गया लगता है. यूँ रोती रही ज़िन्दगी तो किस तरह जी पाएगी ज़िन्दगी ? घुट घुट कर इक रोज खुद भी मर जायेगी ज़िन्दगी. मरते एहसासों को साँसें देना है संवेदनाओं को आवाज़ देकर जगाना है रंगना है दागदार दीवारों को रवायतों को बदल कर बेचैनियों को सुकून करना है... बेमतलब बेमकसद क्षत-विक्षत और कराहती ज़िन्दगी को ताज़ा हवा देकर हरा करना है...... ज़िन्दगी को नयी ज़िन्दगी देना है...... अनु

इबादत प्रेम की (ताँका )

हरकीरत ' हीर' at हरकीरत ' हीर'
ताँका विधा में लिखी गई कुछ रचनायें ...... इबादत प्रेम की (ताँका ) *1* *ये कतरने सियाह कपड़ों की न धागा कोई बता मैं कैसे सीऊँ ? बदन ज़खमी है ! 2 कैसी आवाज़ें बदन पे रेंगती गड़ी मेखों सी पास ही कहीं कोई **आज **टूटी है चूड़ी । 3 किताबे -दर्द लिखी यूँ ज़िन्दगी ने भूमिका थी मैं आग की लकीर -सी हर इक दास्ताँ की 4 'हीर-राँझा' है इबादत प्रेम की बंदे पढ़ ले मिल जाए रब ,जो तू दिल में लिख ले 5* *कुँआरे लफ्ज़** कटघरे में खड़े मौन ठगे- से ... फिर चीख उठी है कोख से तू गिरी है । 6* *वह नज़्म है** ज़िन्दगी लिखती है वह गीत है खुद को जीती भी है खुद को गाती भी है ! 7 नहीं मिलता कभी... more »

ओह, तो यह है बारदाना के संकट की असली वजह!

अगर आपको याद होगा तो पिछले पूरे वर्ष भर बारदाना का भारी संकट रहा. गेहूं की फसल जब पक कर तैयार हुई तो उसके भंडारण के लिए बारदाना ढूंढे नहीं मिल रहा था. और, जैसी कि परंपरा है, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने तो सीधे केंद्र पर आरोप लगा दिया कि बारदाना का संकट उसकी वजह से हो रहा है. और लगता है यह समस्या इस वर्ष भी जारी रहेगी, आरोपों प्रत्यारोपों की झड़ी इस वर्ष भी चलती रहेगी. ख़ैर, यह तो राजनीति की बात है. और, लगता है असली वजह कुछ और है. ये देखें - [image: Image007 (Mobile)] मखमल में टाट का पैबंद? अरे, ये तो पूरा टाट ही टाट है. मेरा मतलब, बारदाना के ठाठ हैं. [image: image] अब जब फ़ैशन... more »
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अब आज्ञा दीजिये ...

जय हिन्द !!!

12 टिप्पणियाँ:

shikha varshney ने कहा…

जय हिंद ...और क्या कहें ..
लिंक्स अच्छे हैं.

Archana Chaoji ने कहा…

बढ़िया कार्टून...अच्छी लिंक्स ...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

बहुत ही अर्थपूर्ण बुलेटिन

vandana gupta ने कहा…

badhiya buletin

Dev K Jha ने कहा…

असल में बयान तो आ ही रहे हैं और मीडिया भी हर खबर की अपनें हिसाब से विवेचना कर रहा है।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत ही सुन्दर सूत्र..

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

फिर तो लक्षमन रेखा का नाम जानकी-रेखा होना चाहिए था!! :)

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बढ़िया बढ़िया बुलेटिन..
हमारी रचना का लिंक शामिल करने के लिए आपका शुक्रिया शिवम जी.

अनु

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बढिया लिंक्स
अच्छा बुलेटिन

Pallavi saxena ने कहा…

लक्ष्मण रेखा तो समस्त नेता और समाज के प्रत्यक पुरुष के लिए होनी चाहिए जैसे 7 बजे के बाद जो बाहर दिखाई देगा वो अंदर कर दिया जाएगा :)दो चार शरीफ लोग लपेटे में आएंगे मगर चलेगा ऐसे हादसों में भी ज़्यादातर शरीफ औरतें ही निशाना बनती है दो चार बार पुरुष भी सही ;)

शिवम् मिश्रा ने कहा…

आप सब का बहुत बहुत आभार !

अजय कुमार झा ने कहा…

बहुत ही सार्थक बुलेटिन शिवम भाई ।

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