प्रीति अज्ञात, अज्ञात की खोज में एक ज्ञात नाम। भावों-शब्दों के साथ एक ऐसा रिश्ता है, जिसके साथ अज्ञात भी एक जुड़ाव महसूस करता है। आज उनकी कलम की बारी,
बाबा की चमचमाती, सुन्दर, गोल घुण्डीनुमा बेंत जाने कितने ही काम आती थी। शैतान बच्चों की टोली इसकी खटखट सुनते ही गद्दों और चारपाई के नीचे साँसें रोक दुबक जाती, फिर इसी बेंत की घुंडी में उनकी टांग फँसाकर उन्हें बाहर निकाला जाता। उसके बाद पूरा घर किलकारियों से घंटों यूँ गूँजता रहता जैसे कि दीवारों ने हँसी ने घुँघरू पहन रखे हों। बच्चे डरते कहाँ थे इस बेंत से, उन्हें तो इसे थामे दादाजी का स्नेह भरा हाथ और भी लम्बा लगता था। वे कभी बाबा की पीठ पर झूला झूलते तो कभी उनकी गोदी में जा बैठते।
उन दिनों ये बेंत सबके लिए बहुत उपयोगी हुआ करती थी। कभी बिल्ली तो कभी बन्दर भगाने के भी खूब काम आती। कौन विश्वास करेगा भला कि तब रेगुलेटर खराब होने पर इससे घुमाकर पंखा तक चल जाया करता था! वैसे इसकी पहुँच दूर-दूर तक थी। पड़ोस वाले अंकल जी के बेटे राहुल को जब-जब बगिया से आम या नींबू तोड़ने होते तो तुरंत आवाज देता, "छोटू, जरा बेंत तो दे यार!"
छोटू अपनी महत्ता देख तुरंत गर्व से भर उठता। दौड़कर दादाजी के पास जाता और अपनी गोल-गोल आँखों में प्रसन्नता के हजार पंख लिए पूछता, "बाबा, ले जाऊँ न?"
यह प्रश्न पूछना एक औपचारिकता भर ही होती थी। बाबा के उत्तर देने की प्रतीक्षा करे बिना ही वह बेंत लेकर भाग उठता। बाबा भी अरे, अरे कह उसे रोकने का नाटक भर करते और दिल में खूब आशीष देते।
छोटू जिस तीव्र गति से जाता, उतनी ही गति से लौट भी आता था। वो हमेशा शर्ट को गोलमोल करता ही लौटता और उन तहों को खोलते ही सब तरफ फल बिखर जाते।
बाबा हमेशा टोकते, "क्यों रे, बेंत देने गया था या फल लेने?"
छोटू सीना चौड़ाकर इतराता, "पता है, राहुल भैया ने दिए हैं। बेंत के हुक में कट से अटकाकर झट से इत्ते सारे फल तोड़ लेते हैं। सारे अकेले कैसे खाएंगे?" उसके भोलेपन और गोल बटननुमा आँखों को मटकाते हुए चहकने के अंदाज़ पर बाबा निहाल हो उठते।
इधर घर की बहुएँ भी इसकी ठकठक सुन 'बाबूजी आ गए' कह सहज ही घूँघट खींच खुसपुस ख़ूब चुहलबाज़ियाँ करतीं। उनके लिए ये बाबा की उपस्थिति की सूचक थी, सम्मान थी।
दरअस्ल ये बेंत, बस बेंत भर नहीं थी और न बाबा का सहारा थी। उन्हें तो इसकी आवश्यकता तक न थी पर दादी के गुजर जाने के बाद इससे एक रिश्ता-सा जोड़ लिया था उन्होंने। इसे खूब चमकाकर रखते। जहाँ भी जाते, हमेशा साथ ले जाते। उनके जीवन का जरुरी हिस्सा बन गई थी ये।
बाबा अब बीमार रहने लगे थे। लेकिन अपनी बेंत को सिरहाने रख सोना कभी न भूलते। कभी रह भी जाती तो तुरंत ही किसी न किसी को आवाज़ दे पास रखवा लेते, तब ही उन्हें चैन की नींद आती। छोटे बच्चे गुदगुदाते हुए कहते कि "बाबा, ये बेंत लोरी भी सुनाती है क्या? जैसे दादी हमें सुनाया करती थीं?" दादी का ज़िक्र आते ही बाबा की आँखें
भर आतीं और रुंधे गले से हमेशा एक ही उत्तर देते, "बेटा, तेरी दादी सा कोई न हो सकेगा। चकरघिन्नी सी लगी रहती थी दिन-रात। न जाने फिर भी इतना हँस कैसे लेती थी!" बाबा की उदासी देख बच्चे उनसे लिपट जाया करते थे। यूँ वो इन गहरी बातों का मर्म ज्यादा समझ तो नहीं पाते थे।
बेंत थी, तो जैसे ऊर्जा थी घर में! घर दिन-रात चहकता। बड़ा मान, बड़ा रौब था इसका। इससे जुड़ी शैतानियाँ थीं, अनगिनत किस्से-कहानियाँ थीं।
फिर एक दिन बाबा ऐसे सोये कि उठे ही नहीं! बाबा गए तो जैसे बेंत की आत्मा भी चली गई। बच्चों को तोड़फोड़ में मजा कम आने लगा। छोटू को अब फल तोड़ने में कोई आनंद नहीं आता था। बहुएँ चुपचाप अपनी-अपनी रसोई बनातीं और कमरे में चली जातीं। धीरे-धीरे हर बात पर लड़ाई-झगड़े होने लगे और कभी किलकारियों से गूँजता ये घर अब गहन उदासीनता से भर सायं-सायं कर काटने को दौड़ता।
एक दिन वसीयत पढ़ी गई। हर वस्तु का बँटवारा हुआ।
लेकिन उसके बाद सीढ़ियों के नीचे बने खाँचे में उपेक्षित पड़ी, वर्षों धूल खाती रही ये बेंत।
फिर एक दिन माली काका ने इसे भुतहा घोषित कर दिया गया।
मैं चाहती हूँ
एक चिट्ठी लिखूँ उन देवताओं कोजिनके मत्थे मुसीबत का हर ठीकरा फोड़
निश्चिन्त हो चुका है मनुष्य
वो हत्या कर यह सोच लगा लेता है
पावन गंगा में एक और डुबकी
कि 'अब आगे तुम देख लोगे'
जाता है आस्था के कुम्भ में
दुआओं के हज़ पर
मंदिर, मस्ज़िद, गुरूद्वारे में
कभी चारों धाम की यात्रा कर तुम तक
अपने प्रायश्चित की सूची पहुँचाने की
उम्मीद लिए भटकता है उम्र भर
तो कभी मन्नतों के धागे से बाँधी आस लिए
फिरता है मारा-मारा
सुनो, ईश्वर!
मनुष्य यह मानने लग गया है
कि तुम उसके पापों को पुण्य में बदलने की मशीन लिए बैठे हो
या फिर उसके सद्कार्यों का लेखा-जोखा कर
पुरस्कार देने की विशेष सुविधा है ऊपर
उसे तो यह भी भ्रम है कि जो पीड़ित हैं
वे भोग रहे हैं कोई पुराना पाप
भक्ति के तिलक और श्रद्धा के चन्दन को सादर नमन करते हुए
मैं उस समय यह प्रश्न पूछना चाहती हूँ तुमसे
कि फिर पापी अपना जन्म क्यों बिगाड़ रहे हैं?
क्या यही सृष्टि का नियम है?
यही पारिस्थितिकी तंत्र है?
कैसा संतुलन है ये तुम्हारा कि किसी के हाथों में खंज़र
और किसी के खोंपने की पीठ दे दी तुमने
किसी के आँगन में ख़ुशी
तो किसी के जीवन में विषबेल रोप दी तुमने
क्या तुम्हें कभी किसी अनाथ का रुदन नहीं सुनाई देता?
क्या किसी विधवा की चीखें सचमुच तुम तक नहीं पहुँचती?
क्यों छीन लेते हो किसी मजबूर, निर्दोष को?
क्यों तुम्हारी आँखों के सामने भिनकते अपराधियों का
बाल भी बांका नहीं होता!
जानते हो न! अब तुमसे संभल नहीं रही
तुम्हारी ही बनाई ये दुनिया
सुनो, तुम अब रिटायर क्यों नहीं हो जाते?
22 टिप्पणियाँ:
नन्हकी की लेखनी लाजबाब होती है... उतनी ही प्यारी इंसान हैं
हार्दिक बधाई
व्वाहहहह..
वर्षों धूल खाती रही ये बेंत।
फिर एक दिन माली काका ने इसे भुतहा घोषित कर दिया गया।
बेहतरीन रचनाएँ..
सादर नमन...
बहुत सुन्दर
कविता और कहानी , दोनों में ही तंज़ को इतने सीधे शब्दों में पिरोया है कि पता ही नहीं लगता, कब छिल गया...
बहुत बढ़िया.
बहुत ही भावपूर्ण संस्मरण जिसे पढ़कर मुझे भी मेरे बाबाजी यानि दादा जी की छडी याद आ गई और आँखें नम हो गयीं। बुजुर्ग उन दिनों बहुत सम्मान और बच्चे असीम सनेह पाते थे। सार्थक प्रश्न उठाती कविता। दोनों के लिए बधाई प्रिय प्रीति जी
। 💐💐💐💐💐
बहुत सुंदर।
स्नेह के लिए धन्यवाद, विभा दी
सादर धन्यवाद, यशोदा जी
आभार, निशा जी
बहुत शुक्रिया, वाणी जी
जी, संयुक्त परिवार के अपने सुख हुआ करते थे. धन्यवाद, रेणु जी
धन्यवाद, रोहित जी
दोनों ही रचनायें बेहद शानदार ...
वाह ! क्या बात है, बहुत बढ़िया
सादगी से परिचय कराने का शुक्रिया ..उनकी रचनाए पढता हूँ जो मन को छू लेती है..
प्रीति जी की लेखनी कभी मन को हौले से छूकर सहला जाती है तो कभी जोर से झकझोर जाती है।इनकी रचनाएँ मन में देर तक प्रतिध्वनित होती है।
मेरी बहुत सारी बधाई और शुभकानाएँ प्रीति जी।
रिटायर का सटायर सही है :)
शुभकामनायें
धन्यवाद
धन्यवाद, गगन जी
धन्यवाद, संजय जी
धन्यवाद, श्वेता
धन्यवाद
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