मैं और मेरा मन" रोहित श्रीवास्तव का मन से जुड़ा एक कदम है, ब्लॉग की दुनिया में अपनी पहचान बनाने का। जिसकी आँखों में उमड़ते-घुमड़ते बादलों से सपने होते हैं, वे हकीकत बन बरसते ही हैं, बन जाते हैं झील, पानी की पगडंडियां, नदी, समन्दर - ... कभी बच्चों को लुभाते हैं, कभी बड़ों को, कभी वृद्धों की यादों में बसेरा ढूंढ लेते हैं।
यात्री
ऊपर काला घना आसमान
हजारों तारे जिसकी गोद में
हर पल पैदा हो रहे और मर रहे हैं।
आकाशगंगाओं की अनंत मालाएं बिखरी पड़ी हैं जहाँ
वही कहीं, किसी कोने में बिछी हुई मेरी चारपाई
और उसपर लेटा हुआ मैं
झूलता हुआ अन्तरिक्ष में
आधा सोया, आधा जागा हुआ
थक कर चूर पड़ा हुआ
कर रहा हूँ अपना सफ़र धीरे धीरे
कि मैं ये जानता हूँ
जाऊंगा नही कहीं
अपनी धुरी पर घूमते घूमते
यही चुक जाऊंगा
मैं यही से आया था,
यही रहा, और यही चला जाऊंगा।
हजारों तारे जिसकी गोद में
हर पल पैदा हो रहे और मर रहे हैं।
आकाशगंगाओं की अनंत मालाएं बिखरी पड़ी हैं जहाँ
वही कहीं, किसी कोने में बिछी हुई मेरी चारपाई
और उसपर लेटा हुआ मैं
झूलता हुआ अन्तरिक्ष में
आधा सोया, आधा जागा हुआ
थक कर चूर पड़ा हुआ
कर रहा हूँ अपना सफ़र धीरे धीरे
कि मैं ये जानता हूँ
जाऊंगा नही कहीं
अपनी धुरी पर घूमते घूमते
यही चुक जाऊंगा
मैं यही से आया था,
यही रहा, और यही चला जाऊंगा।
13 टिप्पणियाँ:
मैं यही से आया था,
यही रहा, और यही चला जाऊंगा।
अति सुंदर भावाभिव्यक्ति
उम्दा लेखन
बधाई
वाह !! जीवन की गहराई को इतनी सरलता से नापने के दमखम
व्वाहहहह..
सादर..
जीवन के अर्थ खोजती कविता ...
बहुत बधाई आपको रोहित जी!
~सादर
अनिता ललित
उम्र से बड़ी कविता और उसका मर्म...! बहुत खूब रोहित!
सादर धन्यवाद।
धन्यवाद अनिता जी
सादर धन्यवाद।
सादर धन्यवाद।
अलग सी कविता। दार्शनिक चिंतन की ओर अग्रसर करती हुई।
वाह...
कुछ और बातें जान कर बहुत अच्छा लगा ... ...आपमें जो लगन है ....आपको आगे बढ़ने से कोई रोक ही नहीं सकता ...
मैं यही से आया था,
यही रहा, और यही चला जाऊंगा।
बहुत सुंदर।
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