Subscribe:

Ads 468x60px

कुल पेज दृश्य

रविवार, 28 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019(पैंतीसवां दिन)कहानी, कविता




My photo
सरस दरबारी जी का ब्लॉग यादों का एक काफिला है, जो पृष्ट दर पृष्ट पूरा जीवन बन गया जिसमें गाहे बगाहे, कुछ सुरीले, सुखद क्षण, .....उनके हिस्से की धूप बन गए... 
बैठे होंगे आप कभी न कभी उस भीनी धूप में, उस गुनगुनी धूप में आज फिर 

अजन्मी - मेरे हिस्से की धूप

  

आज मैं आज़ाद हूँ -मौसम के थपेड़े झेलने के लिए -जंगली जानवरों द्वारा नोचे जाने के लिए -या फिर किसी नदी नाले की मैली  धारा में बह जाने के लिए -
मैं आज़ाद हूँ -
आज़ाद हूँ अपनी माँ की कोख से...एक अजन्मे के लिए सबसे महफूज़, सबसे सुरक्षित जगह- जहाँ वह निश्चिन्त  ...ऑंखें मूंदे पड़ा रहता है - दुनिया के छल-कपट से बेखबर, दुनिया के दुःख दर्द से दूर , हर डर से परे आज मैं आज़ाद हूँ उसी कोख से जो मेरे लिए कभी थी ही नहीं ....
मेरे माता पिता एक बेटा चाहते थे, उन्ही अनगिनत लोगों की तरह बेटी जिनके लिए बोझ है- एक दु:स्वप्न , एक ज़िम्मेदारी, क़र्ज़ का पिटारा -एक अभिशाप !
तभी तो मुझ जैसी न जाने कितनी हैं त्यक्त ! अभिशप्त !!
    मेरे पिता भी एक बेटा चाहते थे ...दो बेटियों के बाद एक और बेटी का 'लांछन' उन्हें मंज़ूर नहीं था .
"लोग क्या कहेंगे?"
उन्होंने लोगों की परवाह की....और एक डॉक्टर से मिलकर मुझे निकाल फेंकनें का निश्चय कर लिया .
    वह रात बहुत भयावह थी ...चारों तरफ घुप्प अँधेरा .
तेज़ आंधी तूफ़ान से खिड़की दरवाज़े बेकाबू हो रहे थे .बारिश की बौछारें भालों की तरह चुभ रही थीं .
आसमान फटा जा रहा था -मानो सारी सृष्टि इस विनाश से रुष्ट हो . एक प्रकोप की तरह बिजली कड़कती और गडगडाहट से माँ की चीख दब जाती .
       मेरी माँ दर्द से तड़प रही थी . डॉक्टर का दिया हुआ इंजेक्शन काम कर रहा था -
सारा पानी 'मेरा सुरक्षा कवच' बह गया था, और साथ ही बह गयीं थीं, मेरे जीने की सारी उम्मीदें .
मैं रह रहकर माँ की कोख में लोटती रही और माँ खून पानी में सनी -बिस्तर पर पड़ी तड़पती रही. और पिताजी ...हम दोनों की दशा देख दूर खड़े कसमसाते रहे. माँ हर बार जोर लगाकर मुझे निकालना चाहती , और मैं हर प्रयास के साथ उनके सीने मैं और दुबकती जाती.
       माँ दो ढाई घंटे कोशिश करती रहीं और थक कर चूर हो गयीं-उनकी हिम्मत टूट चुकी थी लेकिन मैंने उन्हें कसकर भींच लिया था ...मैं बहार नहीं जाना चाहती थी.
तभी अचानक माँ ने बैठकर जोर लगाया, चौंककर  मैं सहारे के लिए लपकी, लेकिन तभी फिसलकर बहार आ गयी....सब कुछ ख़त्म हो गया .
  माँ को देखा वह मुझसे मुंह छिपा रही थीं...उन्हें अपनेसे ग्लानि हो रही थी..वह मुझसे आँख मिलाकर कभी अपने आपसे आँख नहीं मिला  पातीं..
उन्होंने मुझे नहीं देखा -उन्हें  डर था वे अपनी ममता को नहीं रोक पाएंगी.लेकिन मैंने माँ का चेहरा देखा था. अनगिनत भाव थे उनकी आँखों में.मैंने तैरते हुए आँसुओं में उन्हें देखा था ..पहचाना था . उन में परिस्तिथियों से न लड़ पाने की असह्याता थी , ऐसा कुकर्म करने का दुःख, पीड़ा ,ग्लानि और शर्म थी, अपने अंश को अपने से अलग कर देने की विवशता थी. मुँह  फेरकर माँ ने उन सभी भावों को मुझसे  छिपाना चाहा था.
  फिर नर्सने मुझे एक कपडे में लपेटकर पिताजी को सौंप दिया,"इसे ले जाईये ".
पिताजी की नज़र ज़मीन पर गढ़ी थी...गर्दन ग्लानी के बोझ से झुकी हुई.उन्होंने नर्सकी तरफ बगैर  देखे ही मुझे ले लिया . झुकी हुई नज़रों में थी वह पीड़ा जो उन्हें मुझे ले जाते हुए हो रही थी....उन्होंने भी मेरी तरफ नहीं देखा .
  उस रात जब पिताजी मुझे सीने से लगाये उस पुल पर खड़े थे , मैंने उनका चेहरा गौर से पढ़ा. वह बुरी तरह भीगा हुआ था ...बारिश से कम आंसुओं से ज्यादा....वे बुदबुदा रहे थे ...
"इश्वर हमें क्षमा करना, हमसे यह भूल कैसे हो गयी.कितना बड़ा पाप किया है मैंने . एक पिता होकर इतना घिनोना कृत्य.मैं एक पिता कहलाने लायक नहीं. इस पापसे मैं कैसे उबर पाऊंगा. प्रभु मैंने पाप किया है , मुझे प्रायश्चित करने का एक मौका और दे दो. "
    पिताजी मुझे अपने सीनेसे लगाकर फूट फूटकर रो रहे थे और मैं महसूस कर रही थी उस दर्द को . पिताजी ने आखरी बार मुझे गले से लगाया और आसमान की ओर हाथ उठाकर कहा ."इश्वर मैं उसे तुम्हारे संरक्षण में भेज रहा हूँ....इसकी रक्षा करना और इसे मेरी ही बेटी बनाकर मेरे पास फिर भेजना, यही मेरा प्रायश्चित होगा."
  पिताजी का यह आर्तनाद मैं सुनती रही ..और उन्होंने मुझे उफनती नदी के सुपुर्द कर दिया ...
 उस आंधी तूफ़ान में वह लहरें मुझे झुलातीं  रहीं. मन शांत था . माँ पिताजी के प्रति सारा द्वेष धुल  चुका था. मैं धीरे धीरे नदी के तल पर पहुँच गयी. मन में बस एक ही विचार था." हाँ पिताजी मैं आप ही के पास आऊँगी."
                                  ________________

दो साल बाद माँ की गोद हरी हुई .वही चिर परिचित कोख . कितना सुकून कितनी शान्ति , कितना अपनापन था यहाँ. हर डर से बेखबर, हर खतरे से महफूज़, मैं बहार आने का इंतज़ार कर रही थी. माँ जब प्यार से मुझे सहलातीं  बाबूजी स्पर्श करते तो लगता "कितना सहा है मैंने , इस एक स्पर्श के लिए अब और कितना इंतज़ार करना होगा मुझे ?"
   वह दिन भी आ गया. माँ बाबूजी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था.वे मुझे चूमते जाते और इश्वर को धन्यवाद देते जाते . पिताजी प्यार से झिड़कते ,"तुम्हे तो मैं फेक आया था , तुम फिर आ गयीं."
और इस झिडकी में छिपी ख़ुशी, तृप्ति उनके चेहरेसे अविरल बहती रहती".
                                      _________________

आज मैं १९ साल की हो चुकी हूँ . इन्जीनेरिंग कॉलेज मैं पढ़ रही हूँ.पिताजी कहते हैं मैं उनकी सबसे मज़बूत बेटी हूँ, ढृढ़निश्चयी , इरादों और उसूलों की पक्की , उनकी सबसे प्रिय.
काश सब मेरे पिता जैसे होते . अपनी भूलोंसे कुछ सीखते, दूसरों को वही भूल करने से रोकते ,  बेटियों की अहमियत को समझते...तब न जाने कितनी ही 'अजन्मी 'आज अपने माता पिता का अभिमान होती ....अभिशाप नहीं !

=====================================================

ब्लॉग बनाकर इस प्रतियोगिता तक पहुँचना परिणीता सिन्हा के द्वारा भी हुआ है।  सहज, पर गंभीरता से कहती हैं, 
जब कभी मेरा अन्तःकरण व्यथित होता है और अस्तित्व पर सवाल उठने लगते है मेरे शब्द आकार लेने लगते हैं कविता स्वतः स्वरूप ले लेती है၊ हमारा जीवन एक रंगमंच की तरह है जिसमें कई किरदार रोल निभाते है ၊ कभी कभी तो हम निर्देशक के इशारों पर अनवरत नाचते है लेकिन किसी खास वक्त पर हमारा अर्न्तमन इन इशारों को नकार देता है और स्वयं की ओर बढ़ता है ၊ अब जीवन में उपेक्षाएँ नहीं अपेक्षाएँ है ၊ एक ठोस मकसद की ओर प्रयासरत हूँ   ၊ 

आज उनकी कविता डर के साथ उपस्थित हूँ -

Parinita Sinha's profile photo, Image may contain: Parinita Sinha, smiling, plant and flower

लड़कियां अकसर डर जाती है
अपने अतीत से ,अपने मीत से और ज़माने की रीत से
वह डरती है नुकीली हर चीज से
जो असमय उन्हें माँ की कोख से नोच फ़ेकती है
वह डरती है नमक से ,ऊँचे ताखो से और चारपाई के पैरो से
जो उनके चिन्हित होते ही उन्हें रौंद डालते है
वह डरती है एकांत से , रात से और हर सूनी दोपहर से
जो उन्हें बलात्कृता बनाने को आतुर खड़ी है
वह लोगो को जानती कम और पहचानती ज्यादा है
वह तुरंत नाप लेती है आदमी के ओछेपन की हद
और सूंघ लेती है वहशीपन की गंध
इसलिए माँ के इर्द-गिर्द मंडराती फिरती है
उनके हर सपनो में, सपनो के टूट जाने का डर शामिल होता है
उनकी हर मंजिल में ,सीढ़ी के खीच लिए जाने का भय शामिल होता है
सगाई से लेकर शादी तक
पिता की पगड़ी उछाले जाने का डर उनके कलेजे को दहलता है
फिर शादी से लेकर अर्थी तक
पिता के घर लौट आने का , विधवा बन जाने का , बाँझ या बेटियों की माँ बन जाने का डर
उसके रोंगटे खड़े करवाता है
वह अपने इन डरो से कभी उबार नहीं पाती
 क्योकि उनका यह डर उनकी नारी कोखमें समां जाता है !

========================================================
My photo
मृदुला प्रधान जी और उनका स्थापित ब्लॉग 

mridula's blog एहसासों की खान है। बचे हुए लम्हों में आते हैं उस खान में :)

mridula's blog: कुछ लिखते समय अगर.…….

कुछ लिखते समय अगर दिमाग में उर्दू का कोई शब्द आ जाये तो मैं उसके लिये हिंदी का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं ढूँढती……इसी स्वभाव के कारण मुझसे एक ऐसी कविता बन गयी जिसमें उर्दू के काफी शब्द एक साथ आ गये ……और सौभाग्यवश वो कविता 'समकालीन भारतीय साहित्य' में छप गयी . प्रकाशित होने के दो-चार दिनों बाद ,हिंदी साहित्य के एक जाने-माने रचनाकार का फोन आया. अपना नाम बताने के बाद बोले,'बेटे ,आपकी कविता 'समकालीन भारतीय साहित्य' के नये अंक में पढ़ी है.…… मैं गद्गद ,इतने बड़े साहित्यकार ने पढ़कर फोन किया …….तब तक उनकी अगली पंक्ति 'लेकिन आपने इतने ज़्यादा उर्दू शब्दों का प्रयोग क्यों किया ?'मैं एकदम से सकपका कर ,साहस जुटाकर बोली ,'सर ,आपको अच्छी नहीं लगी क्या ? वे बोले ,'अगर अच्छी  नहीं लगती तो क्या मैं फोन करता ? 'मुझे बहुत अच्छी लगी ………पर आगे से उर्दू के नहीं हिंदी के शब्दों का ही प्रयोग किया करो'.…….' 'जी ज़रूर कोशिश करूँगी कह तो दी मैंने…….  लेकिन करूँ क्या ? गाहे-बगाहे उर्दू के शब्द दस्तक दे ही देते हैं…….और मैं मुँह नहीं मोड़ पाती…… उसी का प्रमाण है ये कविता जिसका अभी-अभी ज़िक्र की हूँ ……  

कभी मुंतज़िर चश्में
ज़िगर हमराज़ था,
कभी बेखबर कभी
पुरज़ुनू ये मिजाज़ था,
कभी गुफ़्तगू  के हज़ूम तो, कभी
खौफ़-ए-ज़द
कभी बेज़ुबां,
कभी जीत की आमद में मैं,
कभी हार से मैं पस्त था.
कभी शौख-ए-फ़ितरत का नशा,
कभी शाम-ए-ज़श्न  ख़ुमार था ,
कभी था हवा का ग़ुबार तो
कभी हौसलों का पहाड़ था.
कभी ज़ुल्मतों के शिक़स्त में
ख़ामोशियों का शिकार था,
कभी थी ख़लिश कभी रहमतें
कभी हमसफ़र का क़रार था.
कभी चश्म-ए-तर की गिरफ़्त में
सरगोशियों का मलाल था,
कभी लम्हा-ए-नायाब में
मैं  भर रहा परवाज़ था.
कभी  था उसूलों से घिरा
मैं रिवायतों के अजाब में,
कभी था मज़ा कभी बेमज़ा
सूद-ओ- जिया के हिसाब में.
मैं था बुलंदी पर कभी
छूकर ज़मीं जीता रहा,
कभी ये रहा,कभी वो रहा
और जिंदगी चलती रही .…… 

==========================================================

My photo





उजाले उनकी ऒर"नाम से
कभी कभार अनायास ही कुछ लिखने का मन करता है.......और रचनाएं बन जाती हैं।

सूरत अग्नि कांड-एक प्रतिक्रिया  

रोज की तरह आज की सुबह भी बड़ी निराली थी,
अब तो सूरज ने भी करवट बदल डाली थी,
और हमेशा की तरह उनकी भी यही तैयारी थी,
कि अगले ही कुछ सालों में जिन्दगी बदलने की बारी थी।

दिलों में जोश और अथक जुनून उनमे भरा पड़ा था,
और अगले ही पल उनमें से हर कोई कोचिंग में खड़ा था,
उस अनभिज्ञ बाल मन को क्या पता था,
कि अगले ही पल तूफान भी उनके द्वार पर खड़ा था ।

लेकिन जैसे-तैसे क्लास की हो गयी तैयारी थी,
उन्हें क्या पता उनकी किस्मत यहाँ आके हारी थी,
वो तो बस धुन के पक्के लगे थे भविष्य बनाने मे,
उनका भी तो लक्ष्य था हर सीढ़ी पर आगे आने में।

जैसे ही मिली सूचना,उस अनहोनी के होने की,
मच गया था कोहराम,पूरे भवन और जीने में,
ना कोई फरिश्ता था आगे,अब उनको बचाने में,
लेकिन फिर जद्दोजहद थी,उनकी जान बचाने में।

कॉपी पेन और भविष्य,अब पीछे छूट चुके थे,
सब लोगों के पैर फूल गये औऱ पसीने छूट चुके थे,
अब तो बस एक ही ख्याल,दिल और दिमागों में था,
विश्वास अब  बन चुका था,जो खग औऱ विहगों में था।

यही सोचकर सबने ऊपर से छलांग लगा दी थी,
लेकिन प्रशासन की तैयारी में बड़ी खराबी थीं,
न कोई तन्त्र अब तैयार था नोजवानों को बचाने में,
अब तो बस खुद की कोशिश थी बच जाने में।

पूरी भीड़ में बस,वो ही एक माँ का लाल निराला था,
जो आठ जानें बचा के भी,न रूकने वाला था,
वो सिँह स्वरूप केतन ही, मानो बच्चों का रखवाला था,
रक्त रंजित शर्ट थीं उसकी, जैसे वही सबका चाहने वाला था।

बाकी खड़ी भीड़ की,आत्मा मानो मर चुकी थी,
उनको देख के तो मानो,धरती माँ भी अब रो चुकी थीं,
कुछ निहायती तो बस वीडियो बना रहे थे,
और एक-एक करके सारे बच्चे नीचे गिरे जा रहे थे।

फिर भी उनमें से किसी की मानवता ने ना धिक्कारा था,
गिरने वाला एक - एक बच्चा अब घायल और बिचारा था,
कुछ हो गए घायल और कुछ ने जान गँवाई थी,
ऐसे निर्भयी बच्चों पर तो भारत माँ भी गर्व से भर आयी थी।

लेकिन फिर भी न बच पाए थे वो लाल,
और प्रशासन भी ना कर पाया वहाँ कोई कमाल,
उज्ज्वल भविष्य के सपने संजोये वो अब चले गए,
कल को बेहतर करने की कोशिश में आज ही अस्त हो गए।

उन मात- पिता के दिल पर अब क्या गुजरी होगी,
उनकी ममता भी अब फुट- फूटकर रोई होगी,
क्या गारंटी है किसी और के साथ आगे न होगा ऐसा,
इसलिए प्रण करो कि सुधारे व्यवस्था के इस ढांचे को,
ताकि न हो आहत कोई आगे किसी के खोने को,

क्योंकि जो गए वो भी किसी की आँखों के तारे थे,
किसी को तो वो भी जान से ज्यादा कहीं प्यारे थे।

16 टिप्पणियाँ:

mridula pradhan ने कहा…

आभार आपका.. औरों की कवितायें बहुत अच्छी लगी ..आपकी मेहनत तारीफ़ के लायक है..

mridula pradhan ने कहा…

सरस दरबारी जी की रचना बेहद मर्मस्पर्शी .. भावुक करती है ..

Saras ने कहा…

बहुत बहुत शुक्रिया मृदुला जी…😊
सभी प्रस्तुतियाँ एक से बढ़कर एक हैं।
रश्मि जी को इस पहल के लिए साधुवाद..!

Anuradha chauhan ने कहा…

बहुत सुंदर प्रस्तुति हार्दिक बधाई

yashoda Agrawal ने कहा…

सरस दी और मृदुला दी को सादर नमन..
भैय्या जी को भी नमन..
शुभकामनाएँ आप सभी को...
सादर..

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

वाहः चार ब्लॉग की चर्चा..
चारों प्रतिभागी को हार्दिक बधाई...
आ. मृदुला जी और सरस जी बहुत अच्छा लेखन करती रही हैं ब्लॉग पर
परिनीता जी का स्वागत है

yashoda Agrawal ने कहा…

भूल गई मैं..
आज परणीता बहन भी है
शुभकामनाएँ..
सादर..

shikha varshney ने कहा…

संवेदनशील रचनाएं

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

बहुत संवेदनशील अभिव्यक्ति ..👌👌

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

सरस जी की कहानी अति संवेदनशील रही । मृदुला जी की कविता और नये ब्लॉगर परिणीता जी का परिवार में शामिल होना सुखद लगा । सूरत कांड की व्यथा ने मन को छू लिया । रश्मि जी ने हर बार की तरह सबको एक मंच पर लाकर खड़ा ही नहीं किया बल्कि फिर से जोड़ा है ।

सदा ने कहा…

क्योंकि जो गए वो भी किसी की आँखों के तारे थे,
किसी को तो वो भी जान से ज्यादा कहीं प्यारे थे।
मन व्यथित हो जाता है ऐसी किसी भी रचना को पढ़कर ...
पर यहाँ तो प्रत्येक रचना भावमय करते हुये मन में उथल-पुथल मचाने में कामयाब हुई है।
सभी रचनाकारों को उनके शानदार सृजन पर बधाई सहित शुभकामनाएं
और आपका अत्यंत आभार इस श्रम साधना के लिये ...सादर

Ayush Roy ने कहा…

सुंदर चयन। मृदुला जी का तो गंभीर पाठक हूँ। उनकी कवितायेँ विचार और विम्ब से भरी होती हैं।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

इतने दिग्गज एक साथ । सभी रचनाएँ एक से बढ़ कर एक । सरस जी की कहानी ने मन भिगो दिया । वैसे इस कहानी से इस बात पर विश्वास करने का मन हो रहा है कि बच्चे जो जन्म लेते हैं वो अपने माता पिता स्वयं चुनते हैं । सभी रचनाकारों को बधाई ।

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति

Jyoti Dehliwal ने कहा…

रश्मि दी,आपके सहयोग से नए नए ब्लॉगरों से पहचान हो रही हैं। सभी रचनाकारों को शुभकामनाएं।

Preeti 'Agyaat' ने कहा…

अच्छी रचनाएँ. सरस दी की कहानी ने ह्रदय द्रवित कर दिया.

एक टिप्पणी भेजें

बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!

लेखागार