एक ज़रा सी कोशिश सबको साथ जोड़ने की जब होती है तो एहसासों की अग्नि जलती है । चेहरे पर एक मोहक लालिमा होती है, एक अद्भुत यात्रा के सारथी बने शब्द शब्द कृष्ण से कम नहीं लगते ।
ऐसे ही सारथी के साथ आज हमारे बीच उपस्थित हैं देवेंद्र पाण्डेय जी -
आग
नदी के किनारे
'और' आग तलाशते
एक युवक से
बुझी हुई राख ने कहा-
हाँ !
बचपन से लेकर जवानी तक
मेरे भीतर भी
यही आग थी
जो आज
तुम्हारे पास है।
बचपन में यह आग
दिए की लौ के समान थी
जो 'इन्कलाब जिंदाबाद' के नारे को
'तीन क्लास जिंदाबाद' कहता था
और समझता था
कि आ जाएगी एक दिन 'क्रांति'
बन जाएगी अपनी
टपकती छत !
किशोरावस्था में यह आग और तेज हुई
जब खेलता था क्रिकेट
शहर की गलियों में
तो मन करता था
लगाऊँ एक जोर का छक्का
कि चूर-चूर हो जाएँ
इन ऊँची-ऊँची मिनारों के शीशे
जो नहीं बना सकते
हमारे लिए
खेल का मैदान !
युवावस्था में कदम रखते ही
पूरी तरह भड़क चुकी थी
यह आग
मन करता था
नोंच लूँ उस वकील का कोट
जिसने मुझे
पिता की मृत्यु पर
उत्तराधिकार प्रमाणपत्र के लिए
सात महिने
कचहरी का चक्कर लगवाया !
तालाब के किनारे
मछलियों को चारा खिलाते वक्त
अकेले में सोंचता था
कि बना सकती हैं ठहरे पानी में
अनगिन लहरियाँ
आंटे की एक छोटी गोली
तो मैं क्यों नहीं ला सकता
व्यवस्था की इस नदी में
उफान !
मन करता था
कि सूरज को मुठ्ठी में खींचकर
दे मारूँ अँधेरे के मुँह पर
ले !
चख ले धूप !
कब तक जुगनुओं के सहारे
काटेगा अपनी रातें !
हाँ
यही आग थी मेरे भीतर भी
जो आज
तुम्हारे पास है।
नहीं जानता
कि कब
किस घाट पर
पैर फिसला
और डूबता ही चला गया मै भी।
जब तक जिंदा रहा
मेरे गिरने पर
खुश होते रहे
मेरे अपने
जब मर गया
तो फूँककर चल दिए
यह बताते हुए कि
राम नाम सत्य है।
'और' आग तलाशते
एक युवक से
बुझी हुई राख ने कहा-
हाँ !
बचपन से लेकर जवानी तक
मेरे भीतर भी
यही आग थी
जो आज
तुम्हारे पास है।
बचपन में यह आग
दिए की लौ के समान थी
जो 'इन्कलाब जिंदाबाद' के नारे को
'तीन क्लास जिंदाबाद' कहता था
और समझता था
कि आ जाएगी एक दिन 'क्रांति'
बन जाएगी अपनी
टपकती छत !
किशोरावस्था में यह आग और तेज हुई
जब खेलता था क्रिकेट
शहर की गलियों में
तो मन करता था
लगाऊँ एक जोर का छक्का
कि चूर-चूर हो जाएँ
इन ऊँची-ऊँची मिनारों के शीशे
जो नहीं बना सकते
हमारे लिए
खेल का मैदान !
युवावस्था में कदम रखते ही
पूरी तरह भड़क चुकी थी
यह आग
मन करता था
नोंच लूँ उस वकील का कोट
जिसने मुझे
पिता की मृत्यु पर
उत्तराधिकार प्रमाणपत्र के लिए
सात महिने
कचहरी का चक्कर लगवाया !
तालाब के किनारे
मछलियों को चारा खिलाते वक्त
अकेले में सोंचता था
कि बना सकती हैं ठहरे पानी में
अनगिन लहरियाँ
आंटे की एक छोटी गोली
तो मैं क्यों नहीं ला सकता
व्यवस्था की इस नदी में
उफान !
मन करता था
कि सूरज को मुठ्ठी में खींचकर
दे मारूँ अँधेरे के मुँह पर
ले !
चख ले धूप !
कब तक जुगनुओं के सहारे
काटेगा अपनी रातें !
हाँ
यही आग थी मेरे भीतर भी
जो आज
तुम्हारे पास है।
नहीं जानता
कि कब
किस घाट पर
पैर फिसला
और डूबता ही चला गया मै भी।
जब तक जिंदा रहा
मेरे गिरने पर
खुश होते रहे
मेरे अपने
जब मर गया
तो फूँककर चल दिए
यह बताते हुए कि
राम नाम सत्य है।
30 टिप्पणियाँ:
मन करता था
कि सूरज को मुठ्ठी में खींचकर
दे मारूँ अँधेरे के मुँह पर
ले !
चख ले धूप !
कब तक जुगनुओं के सहारे
यही आग शायद हर युवा के दिल में होती है लेकिन बदलते समय के साथ राख के नीचे दबी चिंगारी बनी रहती है कभी मौका पाकर शोला भड़क जाए या...
बेहद खूबसूरत भावाभिव्यक्ति
शानदार कविता
गहन भाव लिए मन के आक्रोश को कहती सुंदर रचना ।
आग होती है हर किसी के दिल में जो करती है इंतज़ार सही मौक़े का ... भड़कने से पहले ... देवेंद्र जी की लाजवाब रचना ...
देवेंद्र पाण्डेय जी का रूपान्तरण मैंने विगत एक दशक में देखा है और इनके जितने भी रूप मैंने देखे, हर बार पिछले से अलग... एक नई विधा, नया रूप और हर उस विधा में पारंगत... इनकी कथाएँ जीवन्त, कविताएँ सशक्त, छायांकन कलात्मक और यात्रा वृत्तान्त नूतन और अनोखा है। यह ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी हैं जिनके एक चावल के दाने को देखकर आप पूरे पतीले का अनुमान नहीं लगा सकते।
प्रस्तुत कविता एक ऐसे कड़वे यथार्थ को चित्रित करती है जिससे प्रत्येक व्यक्ति दो-चार होता रहता है। यह एक आम नागरिक की स्वीकारोक्ति भी है! बहुत ख़ूब!!!
_/\_
धन्यवाद।
धन्यवाद।
धन्यवाद।
आभार।
वाह ! उस 'आग' की तपिश से आज भी पाठक निश्चित रूप से झुलस रहा है ! हर युवा के हृदय में असमय ही बुझ जाने से पहले जिस दिन यह आग पूरी तरह से प्रज्वलित हो जायेगी उस दिन क्रान्ति ज़रूर आ जायेगी इसका विश्वास है ! बहुत ही सुन्दर एवं प्रेरक रचना !
आदरणीय देवेंद्रजी के बारे में और जानने के लिए उनके ब्लॉग को विस्तार से पढ़ना चाहूँगी। यह कविता एक अनूठी अभिव्यक्ति है। हर इंसान बड़े जोशोखरोश के साथ इस कर्मभूमि में उतरता है। युवा होता हुआ तमाम तरह के सपने, आशाएँ, दुनिया बदलने की आग को दिल में लेकर उतरता है ज़िंदगी के मैदाने जंग में लेकिन हकीकतों की आँधी बुझा ही देती है इस आग को।
आपका हार्दिक स्वागत है। धन्यवाद।
व्वाहहहह..
बेहतरीन..
सादर नमन..
ये आग ही जिन्दगी के उन आगों से लड़ना सिखाती है जिससे कई लोग हार मान लेते हैं ....शानदार अभिव्यक्ति ...
मन के आक्रोश को कहती लाजवाब रचना ...देवेंद्र जी
संवेदनशील बेहद खूबसूरत भाव की रचना
अति सुन्दर
आग एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होती जाती है परंतु व्यवस्था वहीं की वहीं रह जाती है.
इस विडंबना पर अच्छी रचना.
धन्यवाद।
धन्यवाद।
धन्यवाद।
धन्यवाद।
आभार।
धन्यवाद।
जीवन की कटु सच्चाई व्यक्त करती सशक्त रचना।
शानदार सशक्त रचना....
बहुत ही शानदार रचना
धन्यवाद।
मन के आक्रोश को बख़ूबी बयान करती कविता!
बहुत बधाई ... देवेन्द्र जी!
~सादर
अनिता ललित
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बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!