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रविवार, 14 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (इक्कीसवां दिन) कविता/लघुकथा




कुछ लम्हे दिल के...अर्चना तिवारी का धड़कता ब्लॉग ! कभी मन अनमना लगे, शाम खाली खाली हो, दिल के इन लम्हों से रिश्ता जोड़ लीजियेगा, यकीनन सुकून मिलेगा। 

प्रतियोगिता के इस शानदार इक्कीसवें दिन को अर्थ दिया जाए, कुछ लम्हे दिल के साथ वक़्त गुजारा जाए।  -



एक आदमी अपने अंतर की सुनता है
एक आदमी भीड़ की सुनता है
भीड़ की सुनने में, उसके जैसा करने में भय नहीं रहता
भय नहीं रहता क्योंकि कोई जिम्मेदारी नहीं लेनी पड़ती
जो भीड़ करे, करो
जो भीड़ कहे, कहो
जो भीड़ सुने, सुनो

लेकिन जो आदमी अपने अंतर की सुनता है, गुनता है
उसे अपने कहने, करने की जिम्मेदारी लेनी पड़ती है
वह सही साबित होता है तो कभी-कभी गलत भी
गलत उस मायने में कि वह भीड़ को नकार देता है
गलत उस मायने में कि 'सभी तो कर रहे हैं' के चलते नियम को नकार देता है

वह नहीं लेता लाभ
जो ले रहे होते हैं 'सभी'
वह हर कृत्य को तौलता है
वह असफल हो सकता है

लेकिन भीड़
भीड़ तो वह करती है, जो उससे करवाया जाता है, उकसाया जाता है
हाँ, वह सफल होती है
राह चलते किसी को पीटने में, तोड़ने में
या ढहाने में

तो हे! वीरों यह न कहो
यह न कहो कि भीड़ जो करती है, कहती है, चुनती है, वह सही होता है
क्योंकि पता है ना, कि भीड़ कौरव भी होती है?

हाँ, जनतंत्र है यह
जिसके मत का सम्मान होना चाहिए
न कि भीड़तंत्र के
न कि किसी ऐसे राजतंत्र के
जहाँ 'टका सेर' है सब कुछ
एक 'ज्ञानी' भी, एक 'अपराधी' भी

हे! भद्र जनों विचार करो
'जन' हो तुम जनतंत्र के
न कि किसी अंधेर नगरी के गोवर्धनदास...




खड़ी दोपहरिया है। बाग में एक टीलेनुमा स्थान पर बच्चे खेलने जुट रहे हैं। कुछ दूरी पर शीबू बूट पॉलिश की डिब्बी को गाड़ी बना लुढ़काते हुए इधर-उधर दौड़ रहा है। चिनिया अभी नहीं आई है। इसलिए शीबू बीच-बीच में पगडंडी की ओर भी देख लेता है। सहसा पत्तों की सरसराहट के साथ भद की आवाज़ आयी। यह दो आम थे जो शीबू के नज़दीक भूमि पर गिरे थे। पहले तो वह हकबका उठा फिर झपटकर दोनों आम हथेलियों के कब्जे में ले लिए।

सिंदूरी आभा लिए धूप से तमतमाए उन आमों पर शीबू को अभी भी विश्वास नहीं आ रहा था। उसने ऊपर ताका। फिर आमों का मुआइना करते हुए, “यह तो सेनुरहवा का पक्का है! पर...इसमें तो बौर ही नहीं आता?”
शीबू ने आम को नथुनों से लगाकर गहरी साँस खींची, “हम्म्म...खुसबूsss!..आजी कहती हैं कि इसके जितना रसीला पक्का दुनिया में नहीं है!” उसने दोनों को निकर की जेब के हवाले किया और वहाँ से सरपट चल पड़ा।

वह चलते-चलते कभी आमों को जेब से निकालकर तसल्ली करता, तो कभी नथुनों से लगा आँखें बंद कर खुशबू लेता। वह बस्ती में दाखिल हुआ तो अपने घर के सामने फुदकती हुई चिनिया मिल गई।

"ओ सीबू! कहाँ से आ रहा है?"
"बाग से, ये देख आज पक्का पाया!"
"अरे हाँ, कितना बड़ा है!"
"सेनुरहवा का जो है!"
"तू भाग्यसाली है सीबू।"
"कैसे?"
"मैंने सुना है कि जो सेनुरहवा का पक्का खाता है उसकी इच्छा पूरी होती है।"
"हट! खा विद्या कसम!"
"सच्ची, विद्या कसम!"
"तब तो इसे आजी को खिलाऊँगा जिससे उसकी आँखों की रोसनी आ जाए।"
"और दूसरा...कौन खाएगा?" चिनिया आम को हसरत से देखती है।
"दूसरा मैं खाऊँगा...और कौन!"
“अच्छा, एक बार मुझे खुसबू लेने देगा?”
“ले...खुसबू!" शीबू चिनिया की नाक से आम सटा देता है।
चिनिया गहरी साँस खींचती है। मुँह में आए पानी को सुड़कते हुए, "तेरी क्या इच्छा है सीबू?"
"मेरी इच्छा ..." शीबू आँखों में शरारत भरते हुए, "मेरी इच्छा है कि मैं जल्दी से इसे खाऊँ!“
“तो खा ले ना!”
“नाss, पहले दोनों पक्के आजी को दिखाऊँगा।“
"तब खाएगा?"
"हाँ....अच्छा चिनिया...अगर यह तुझे मिलता तो तू क्या इच्छा करती?"
"मैं?...मैं इच्छा करती कि मेरी सादी हो जाए बस!"
"हट, सादी तो सबकी होती है, अपनी इच्छा को बर्बाद ही करेगी तू तो?”
“पर बाबा तो मेरी सादी की ही चिंता करता है!“
“अच्छा ये बता...तू मुझसे सादी करेगी?”
“कर तो लूँ...लेकिन बाबा से पूछना पड़ेगा।“
“क्या पूछना पड़ेगा?”
“वह कहता है कि सादी बिरादरी वालों में करते हैं, तू बिरादरी में है या नहीं यह पूछना होगा ना?“
“अच्छा ठीक है...अभी मैं घर जाता हूँ।"

शीबू घर की ओर दौड़ लगा देता है।
फिर कुछ दूर जाकर रुक जाता है। कुछ सोचकर मुस्कुराता है फिर जेब से एक आम निकालकर चिनिया के घर की ओर भागता है।

19 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कविता और कहानी दोनो ही यथार्थ को कहती हुई । कहानी में बच्चों के मनोभावों को खूबसूरती से चित्रित किया है ।

yashoda Agrawal ने कहा…

बेमिसाल...
हाँ, जनतंत्र है यह
जिसके मत का सम्मान होना चाहिए
न कि भीड़तंत्र के
न कि किसी ऐसे राजतंत्र के
जहाँ 'टका सेर' है सब कुछ
एक 'ज्ञानी' भी, एक 'अपराधी' भी
सादर..

Meena sharma ने कहा…

अर्चनाजी के ब्लॉग पंखुड़ियाँ पर बहुत अच्छी और पठनीय लघुकथाएँ हैं। आज ही बहुत सी पढ़ीं।
यहाँ दी गई दोनों रचनाएँ श्रेष्ठ हैं। सादर धन्यवाद।

अर्चना तिवारी ने कहा…

शुक्रिया ओंकार जी।

अर्चना तिवारी ने कहा…

शुक्रिया संगीता जी।

अर्चना तिवारी ने कहा…

शुक्रिया यशोदा जी।

अर्चना तिवारी ने कहा…

शुक्रिया मीना जी।

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

गिरती-पड़ती-भागती दिन-भर में इस लिंक को तीन बार Open की परन्तु पूरा पढ़ नहीं पाई बिना पढ़े टिप्पणी क्या करती... अभी चौथी बार Open की पूरा पढ़ ली अब टिप्पणी क्या करूं... सोच रही हूँ..

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

Bahut khoob

anshumala ने कहा…

वाह अच्छी सकारात्मक कहानी | अक्सर कहानियों लघु कथाओं आदि में दुःख ज्यादा झलकता हैं क्योकि अक्सर वो सामाजिक रूढ़ियों सोच पर चोट होती हैं | उन सभी के बीच एक प्यारी सकारात्मक सुख की कहानी कहने वाली अच्छी कहानी |

Anita ने कहा…

भीड़ यानि भेड़चाल..जो सोचती नहीं..सही-गलत का हिसाब नहीं लगाती..

भावपूर्ण कहानी..

संजय भास्‍कर ने कहा…

श्रेष्ठ रचनाएँ सकारात्मक कहानी

Chandresh ने कहा…

काफी अच्छा कहा है। हार्दिक शुभकामनाएं।

Preeti 'Agyaat' ने कहा…

भावपूर्ण रचनाएँ..हार्दिक शुभकामनाएँ अर्चना जी

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

सार्थक कविता एवं रोचक कथा के लिए बहुत बधाई अर्चना तिवारी जी!

~सादर
अनिता ललित

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

अर्चना जी की कविताएँ और कहानियाँ हमेशा विचारोत्तेजक होती हैं। दिनों में संदेश बहुत स्पष्ट और फोकस्ड होता है... न व्यर्थ की भाषणबाज़ी और न ही बेकार की लाग लपेट। इनकी लघुकथा अपने 'विस्तार' में एक चित्र सा खींच देती हैं और कथानक स्पष्ट तथा घटनाएँ सजीव हो जाती हैं। एक संवेदनशील रचनाकार होते हुए भी कभी संवेदना की बैसाखी नहीं थामतीं।
दोनों रचनाएँ उत्कृष्ट!

अर्चना तिवारी ने कहा…

शुक्रिया। 😊

अर्चना तिवारी ने कहा…

शुक्रिया।

अर्चना तिवारी ने कहा…

शुक्रिया चंद्रेश जी

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