जीते तो सब हैं, लेकिन कुछ लोग बखिया उधड़े,रिसते एहसासों के सहयात्री बन जाते हैं। इनकी कलम अपने वजूद पर इतराती है, धूप,सूखा,आँधी - तूफ़ान, चुप चेहरों से सुलगते,छलकते,सुबकते,ठिठकते,मु
आज के प्रतियोगी मंच पर हैं
रमपतिया की तलाश में एक कविता
तुम हँसती थी
दिल खोल कर
एक बड़ी बुलन्द हँसी ।
छोटी-छोटी बातों पर ही
जैसे कि ,तुम्हारा मरद
पहन लेता था उल्टी बनियान
या दरी को ओढ़ लेता था
बिछाने की बजाय
या कि तुम दे आतीं थीं दुकानदार को
गलती से एक की जगह दो का सिक्का
तुम खिलखिलातीं थीं बेबाकी से
दोहरी होजाती थी हँसते-हँसते
आँखें ,गाल, गले की नसें ,छाती...
पूरा शरीर ही हँसता था तुम्हारे साथ,
हँसतीं थी घर की प्लास्टर झड़ती दीवारें
कमरे का सीला हुआ फर्श
धुँए से काली हुई छत
और हँस उठती थी सन्नाटे में डूबी
गली भी नुक्कड तक...पूरा मोहल्ला...।
ठिठक कर ठहर जाती थी हवा
हो जाते थे शर्मसार
सारे अभाव और दुख ,चिन्ता कि
शाम को कैसे जलेगा चूल्हा
या कैसे चुकेगा रामधन बौहरे का कर्जा
बढते गर्भ की तरह चढते ब्याज के साथ ।
रमपतिया !
तुम रोती भी थीं
तो दिल खोल कर ही
हर दुख को गले लगा कर
चाहे वह मौत हो
पाले-पनासे 'गबरू' की
या जल कर राख होगई हो पकी फसल
या फिर जी दुखाया हो तुम्हारे मरद ने
तुम रोती थीं गला फाड़ कर
रुदन को आसमान तक पहुँचाने
तुम्हारे साथ रोतीं थीं दीवारें
आँगन ,छत , गली मोहल्ला और पूरा..गाँव
उफनती थी आँसुओं की बाढ़
रुके हुए दर्द बह जाते थे
तेज धार में .
नाली में फंसी पालीथिन की तरह.
ओ रमपतिया !
तुम्हें जब भी लगता था
कुछ अखरने चुभने वाला
जैसे कि बतियाते पकड़ा गया तुम्हारा मरद
साँझ के झुरमुट में,
खेत की मेंड़ पर किसी नवोढ़ा से
फुसफुसाते हुए ।
या कि वह बरसाने लगता लात-घूँसे
बर्बरता के साथ
जरा सी 'ना नुकर 'पर ही
या फिर छू लेता कोई
तुम्हारी बाँहें...बगलें,
चीज लेते-देते जानबूझ कर
तुम परिवार की नाक का ख्याल करके
नही सहती थी चुप-चुप
नही रोती थी टुसमुस
घूँघट में ही
और दुख को छुपाने
नही हँसती थी झूठमूठ हँसी
चीख-चीख कर जगा देती थी
सोया आसमान ।
भर देती थी चूल्हे में पानी
जेंव लो रोटी
मारलो ।
काट कर डाल दो
रमपतिया नही सहेगी
कोई भी मनमानी ।
और तब थर्रा उठतीं थीं दीवारें
आँगन ,छत ,गली मोहल्ला गाँव ..
औरत को जूते पर मारने वाले
बैठे-ठाले मर्द भी...
बचो भाई ! इस औरत से,
क्यों छेड़ते हो छत्ता ततैया का ?
रमपतिया !
ओ अनपढ़ देहाती स्त्री !!
काला अक्षर भैंस बराबर
पर मुझे लगता है कि उस हर स्त्री को
तुम्हारी ही जरूरत है जिसने
नही जाना -समझा
अपने आपको ,आज तक
तुम्हारी तरह ।
रमपतिया तुम कहाँ हो ?
16 टिप्पणियाँ:
पर मुझे लगता है कि उस हर स्त्री को
तुम्हारी ही जरूरत है जिसने
नही जाना -समझा
अपने आपको ,आज तक
तुम्हारी तरह ।
रमपतिया तुम कहाँ हो ?
मुझमें सबमें
आपकी भूमिका बहुत कुछ छुपाते हुए धीमे से हमारी कहानी कह जाती है
वाह गिरिजा जी वाह ! आपकी इस रामपतिया को सर झुका कर वंदन करने का मन हो रहा है ! एकलव्य की तरह इसकी मूर्ति बना इसे अपनी गुरु बनाने का मन हो रहा है ! कहाँ चली गयी रामपतिया ! उसे बुलाइए कि वह शहरों की इन सन्नारियों को भी जीने का सलीका सिखा जाए जिन्हें स्वयं के विदुषी होने का बहुत गुमान है लेकिन परम्पराओं की श्रंखलाओं से मुक्ति का मार्ग उन्हें भी दिखाई नहीं देता !
आदरणीय गिरिजा दीदी का लेखन एक छाप छोड़ जाती है
शाम को कैसे जलेगा चूल्हा
या कैसे चुकेगा रामधन बौहरे का कर्जा
बढते गर्भ की तरह चढते ब्याज के साथ ।
बहुत खूब...
सादर नमन
रमपतिया तुम कहाँ हो ?
रमपतिया तो वही है, बस समय ने उसके रूदन और हंसी का स्वर बदल दिया है.
सशक्त रचना .....
रमपतिया !
ओ अनपढ़ देहाती स्त्री !!
काला अक्षर भैंस बराबर
पर मुझे लगता है कि उस हर स्त्री को
तुम्हारी ही जरूरत है जिसने
नही जाना -समझा
अपने आपको ,आज तक
तुम्हारी तरह ।
रमपतिया तुम कहाँ हो ?
वाकई आज ऐसी ही रमपतिया की जरूरत है हर घर आँगन में ........बहुत प्रेरक कविता ........बधाई
गिरिजा दी के साथ मेरा सम्बन्ध अत्यंत आत्मीय है... और हमें जोड़ने वाला न तो अंतर्जाल है , न कोई गर्भनाल है! दीदी की कविताएँ एकमात्र ऐसी डोर हैं जो मुझे उनसे जोड़ती हैं, छोटे भाई से भी बढ़कर, एकलव्य की तरह। उनकी कहानियाँ, यात्रा वृत्तान्त, कविताएँ, खण्ड काव्य, बाल साहित्य अपने आप में एक संस्थान हैं, जिन्हें पढ़कर उनका शिल्प सीखा जा सकता है, शब्दों का चयन और उन्हें नगीने की तरह पिरोना सीखा जा सकता है!
रमपतिया वो पहली रचना थी जिसने मुझे दीदी से जोड़ा था। इनकी कविताओं की असाधारण महिलाएँ बड़ी साधारण हुआ करती हैं, लेकिन ऐसी कि शीश नवाने को जी चाहे!
नतग्रीव हूँ इस रमपतिया के समक्ष!!
नैसर्गिकता का बखान करती रचना ...👌👌
गिरिजा जी को पढ़ना सदा ही मन को एक गहरे अनुभव से गुजारता है. अति संवेदनशील होने के साथ-साथ लोक और ग्राम्य जीवन से जुड़ाव, संबंधों को गहराई से महसूसने की ताकत ने इनके लेखन को एक गरिमा प्रदान की है. रमपतिया हममें से हरेक के भीतर कैद है..कभी कभी मुखर भी होती रही है, कुछ याद आया..
बहुत खूब
मार्मिक, संवेदनशील रचना
निःशब्द करती लेखनी ....
सादर
आदरणीया गिरिजा जी के लिए बस प्रणाम ही कह सकती हूँ। उनकी रचनाओं को आँकना मेरे लिए 'छोटा मुँह, बड़ी बात' होगी।
बिछड़े साथी फिर मिल रहे हैं , अब नहीं विलग होना है । बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ।
गिरिजा दी, रमपतिया के रूप में आआपने बहुत ही सशक्त नारी को उकेरा हैं। बहुत ही प्रेरणादायक व्यक्तित्व हैं उसका।
वाह! बहुत ही बढ़िया चित्रण!
हार्दिक बधाई गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी!
~सादर
अनिता ललित
बहुत ही सशक्त रचना...बधाई गिरिजा जी👏👏👏👏
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