वंदना गुप्ता, नाम ही काफ़ी है यह बताने के लिए कि कलम जब आग उगलती है तो वंदना उसे रगों में भर लेती हैं या फिर उसकी रगों में प्रवाहित होती हैं। इस बेबाक आग से आपसब परिचित होंगे ही, तो इनके आग्नेय शब्दों से मिलते हैं -
आज की आधुनिक
क्रांतिकारी स्त्री से
शिकार होने को तैयार हो ना
क्योंकि
नये नये तरीके ईज़ाद करने की
कवायद शुरु कर दी है मैने
तुम्हें अपने चंगुल मे दबोचे रखने की
क्या शिकार होने को तैयार हो तुम ……स्त्री?
तो इस बार तुम्हे जवाब जरूर मिलेगा ……
हां , तैयार हूँ मै भी
हर प्रतिकार का जवाब देने को
तुम्हारी आंखों मे उभरे
कलुषित विचारों के जवाब देने को
क्योंकि सोच लिया है मैने भी
दूंगी अब तुम्हे
तुम्हारी ही भाषा मे जवाब
खोलूँगी वो सारे बंध
जिसमे बाँधी थी गांठें
चोली को कसने के लिये
क्योंकि जानती हूँ
तुम्हारा ठहराव कहां होगा
तुम्हारा ज़ायका कैसे बदलेगा
भित्तिचित्रों की गरिमा को सहेजना
सिर्फ़ मुझे ही सुशोभित करता है
मगर तुम्हारे लिये हर वो
अशोभनीय होता है जो गर
तुमने ना कहा हो
इसलिये सोच लिया है
इस बार दूँगी तुम्हे जवाब
तुम्हारी ही भाषा मे
मर्यादा की हर सीमा लांघकर
देखूंगी मै भी उसी बेशर्मी से
और कर दूंगी उजागर
तुम्हारे आँखो के परदों पर उभरी
उभारों की दास्ताँ को
क्योंकि येन केन प्रकारेण
तुम्हारा आखिरी मनोरथ तो यही है ना
चाहे कितना ही खुद को सिद्ध करने की कोशिश करो
मगर तुम पुरुष हो ना
नही बच सकते अपनी प्रवृत्ति से
उस दृष्टिदोष से जो सिर्फ़
अंगो को भेदना ही जानती है
इसलिये इस बार दूँगी मै भी
तुम्हे खुलकर जवाब
मगर सोच लेना
कहीं कहर तुम पर ही ना टूट पडे
क्योंकि बाँधों मे बँधे दरिया जब बाँध तोडते हैं
तो सैलाब मे ना गाँव बचते हैं ना शहर
क्या तैयार हो तुम नेस्तनाबूद होने के लिये
कहीं तुम्हारा पौरुषिक अहम आहत तो नही हो जायेगा
सोच लेना इस बार फिर प्रश्न करना
क्योंकि सीख लिया है मैने भी अब
नश्तरों पर नश्तर लगाना …………तुमसे ही ओ पुरुष !!!!!!!
दांवपेंच की जद्दोजहद मे उलझे तुम
सम्भल जाना इस बार
क्योंकि जरूरी नही होता
हर बार शिकार शिकारी ही करे
इस बार शिकारी के शिकार होने की प्रबल सम्भावना है
क्योंकि जानती हूं
आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य मे आहत होता तुम्हारा अहम
कितना दुरूह कर रहा है तुम्हारा जीवन
रचोगे तुम नये षडयत्रों के प्रतिमान
खोजोगे नये ब्रह्मांड
स्थापित करने को अपना वर्चस्व
खंडित करने को प्रतिमा का सौंदर्य
मगर इस बार मै
नही छुडाऊँगी खुद को तुम्हारे चंगुल से
क्योंकि जरूरी नही
जाल तुम ही डालो और कबूतरी फ़ंस ही जाये
क्योंकि
इस बार निशाने पर तुम हो
तुम्हारे सारे जंग लगे हथियार हैं
इसलिये रख छोडा है मैने अपना ब्रह्मास्त्र
और इंतज़ार है तुम्हारी धधकती ज्वाला का
मगर सम्भलकर
क्योंकि धधकती ज्वालायें आकाश को भस्मीभूत नही कर पातीं
और इस बार
तुम्हारा सारा आकाश हूँ मै …………हाँ मै , एक औरत
गर हो सके तो करना कोशिश इस बार मेरा दाह संस्कार करने की
क्योंकि मेरी बोयी फ़सलों को काटते
सदियाँ गुज़र जायेंगी
मगर तुम्हें ना धरती नज़र आयेगी
ये एक क्रांतिकारी आधुनिक औरत का तुमसे वादा है
शतरंज के खेल मे शह मात देना अब मैने भी सीख लिया है
और खेल का मज़ा तभी आता है
जब दोनो तरफ़ खिलाडी बराबर के हों
दांव पेंच की तिकडमे बराबर से हों
वैसे इस बार वज़ीर और राज़ा सब मै ही हूँ
कहो अब तैयार हो आखिरी बाज़ी को ……ओ पुरुष !!!!
============================== =======================कहानी
ये वक्त चींटी की तरह काटता है. कैसे समझाऊँ? स्क्रॉल करते करते रूह बेज़ार हो जाती है , अपने अन्दर की अठन्नी अपना चवन्नी होना स्वीकार नहीं पाती. ये वक्त के केंचुए अक्सर मेरी पीठ पर रेंगते हुए झुरझुरी पैदा बेशक करते रहें लेकिन कभी हाथ बढ़ाकर तसल्ली के चबूतरे पर नहीं बिठाते. ऊब के जिस्म से आती बू से वाकिफ है मेरा कमरा, मेरा बिस्तर, मेरी सोच, और मेरी तन्हाई. कयास लगाने को जरूरी है घट में पानी का बचा होना . यहाँ अरसा हुआ खुद को ही ख़ारिज किए. कोई और करे उससे पहले जरूरी था राजतिलक खुद को खुद लगाना. दिन एक सुलगता आँवा और उसमे पकती है मेरी उम्र की परछाईं मद्धम मद्धम . बताओ अब कौन सा राग सुनाऊँ कि जिससे लौट सकूँ एक बार फिर परछाइयों के शहर में जिसकी गुलाबी रंगत में अक्सर बसंत पहरा देता था और सावन गीत गाता था ...
संभावनाओं की नाव पर चढ़ तो गए हो मगर भूल गए हो पतवार और नाविक को ...यहाँ कश्तियाँ राम भरोसे नहीं चला करतीं .....चप्पुओं से जुगलबंदी जरूरी है जैसे खुदा का होना ......विषय तार्किक हो या न हो , मेरी चुकता किश्तों से अब नहीं कटेगा एक नया पैसा ...कि काट रही हूँ आजकल वक्त के पायंचे . जो रफू करने की फ़िक्र ही न रहे .
शीशम और सागवान से अब नहीं बनायीं जाती वक्त की चौखटें कि जिनके पार जाने पर वापसी संभव हो .. वक्त के हाथों में लगी है मेहंदी. चुप एक कोने में सिसकती है और उम्र ... हाहाहा ...बातों की मोहताज है अरसे से, किसी अपने के स्नेहभरे हाथ की, किसी बिखरी प्यास की ...कि लगे मुकम्मल जी ली ज़िन्दगी.
"ओह! तुम और तुम्हारी ये फिलोसोफिकल बातें. पागल बना देंगी एक दिन."
"अब तक तो नहीं हुए तो अब क्या होंगे" चिढाते हुए रीना ने कहा.
"तुम बोर नहीं होतीं ऐसी बातें करके" चिढ़ते हुए साहिर ने जवाब दिया.
"अरे ज़िन्दगी की सच्चाई ही तो कही है. क्या यही नहीं है ज़िन्दगी का सच, हमारी ज़िन्दगी का"
"क्या सच है बताओ ज़रा? बेसिर पैर का भाषण भर है बस" उसी अंदाज़ में साहिर अपनी रौ में बोलता गया.
"हम्म, अब तो यही कहोगे. भूल गए न किस दौर से गुजरे हैं हम दोनों. आज उसी को कलमबद्ध कर रही थी और तुम हो कि सच को भाषण का नाम दे रहे हो" चलो जाओ, कुछ नहीं कहना अब मुझे. उठ गयी रीना लैपटॉप को बंद करके. जानती थी अब मूड जाने कब रंगत पकड़ेगा. धीरे धीरे पैर जमीन पर रखा और खड़ी हुई चलने को तो एक एक कदम मन भर का था. खुद को घसीटना ही तो था अब जीने का क़र्ज़ उतारने को.
“यहाँ सारे मौसम एक से ही रहते हैं. फर्क नहीं पड़ता बरखा ने डेरा लगाया है या बसंत ने... इनका आना और जाना बस साँसों के आने जाने समान ही तो है. किस डाल पर कौन सी चिड़िया फुदकी , कब उड़ी , अब क्या करना है जानकर. अरसा हुआ तोड़ चुके हैं नाता इस जहान की हर उठापटक से. कोई भी तो अपना सा नहीं जो दो घड़ी अपनी जिंदगी के देता तो लगता जीवित हैं हम. बस दूध वाला, किराने वाला, और कामवाली बाई ही बताते हैं जिंदा हैं हम वर्ना अपनों के लिए तो एक अरसा हुआ मरे हुए...क्या बेटा और क्या बेटी. अब तो हमारी लाशें ही बोलेंगी जो बोलना होगा. किसी दिन देखना ऐसे ही अनंत की यात्रा पर निकल जायेंगे हम दोनों-चुपचाप” रीना का बोलना जारी था और साहिर चुपचाप उसकी बडबडाहट सुन रहा था. जानता था गलत नहीं है एक भी शब्द रीना का.
“मैंने ये फेसबुक क्यों ज्वाइन किया? क्या इसलिए कि मुझे मज़ा आता है. नहीं अब इस उम्र में क्या मज़ा और क्या चाहना. बस कुछ देर खुद को भुलाने को और जीने को यहाँ चली आती हूँ ताकि वक्त हमें काटे उससे पहले हम उसे काट लें. कभी कभी काफी अच्छा भी पढने को मिल जाता है तो कभी कभी एक ही टॉपिक पूरे पटल पर छाया रहता है तो लगता है यहाँ भी हमारी सी ही दशा है...वो ही एक सी रुत.” धीरे धीरे खुद को स्टिक के सहारे चलाते हुए और सामान को सही रखते हुए रीना बडबडाये जा रही थी .
“हाँ, समझ रहा हूँ मैं, मैंने कौन सा तुम्हें मना किया है कुछ करने से. करो जो चाहे करो, खूब पढो, लिखो लेकिन एक बात पूछता हूँ क्या ये सब करने से कुछ बदलेगा? हमारे जीवन में कोई बदलाव आएगा? वो ही खामोश दिन और सन्नाटे से भरी रात.” बेबस सी आवाज़ में साहिर ने पूछा.
“क्यों तुम ऐसा सोचते हो? एक बार तुम भी ऐसा करके देखो, देखना तुम खुद को कितना बिजी कर लोगे. वर्ना देखो, सारा दिन या तो कुर्सी पर बैठे बैठे बिता देते हो या फिर अखबार पढ़कर या फिर बालकनी में बैठकर. क्या मैं समझती नहीं अपनों के दिए ग़मों से रोज खुद की झाड पोंछ करते हो और सोचते हो – आखिर क्या कमी रही हमारी जो उन्हें हमारी परवाह ही नहीं रही. बोलो क्या झूठ कह रही हूँ?” साहिर के चेहरे पर फैली अनगिनत पीड़ा की लकीरों को पढ़ते हुए रीना ने कहा.
“हम्म, छोडो रीना, बेकार है ये सब याद करना. बस तुम इतना याद रखना कल को मुझे कुछ हो जाए तो मैंने कहाँ ऍफ़ डी रखी हैं और कितने पैसे अकाउंट में जमा हैं . वही तुम्हारा अंतिम सहारा होंगे. अब इस दुनिया में जी नहीं लगता. सच पूछो तो सिर्फ तुम्हारे कारण ही जिंदा हूँ. तुम्हें कुछ हो गया होता तो मैं एक दिन भी जिंदा न रहता.” साहिर, जो छोड़ चुका था जीवन की हर उम्मीद. शायद रीना ही वो वजह थी जिसके लिए वो साँसों के क़र्ज़ चुकता कर रहा था.
“तुम फिर ऐसी बात करने लगे. अरे, मौत क्या अपने हाथ में होती है? उसे तो आना ही है और आकर ही रहेगी लेकिन जब तक न आये क्यों न हम दोनों एक-एक पल को ऐसे जीयें जैसे यही आखिरी पल हो. शायद इस तरह जीवन काटना आसान हो जाए. जाने कितनी बार तुम्हें कह चुकी हूँ लेकिन तुम हो कि अपनी निराशा से बाहर ही नहीं आते.” उलाहना देते हुए रीना ने कहा.
“तुम भी न बच्ची बन जाती हो कभी कभी. तुम्हारी पहले वाली आदत अब तक नहीं गयी. अंत में से आरंभ ढूँढने की” गहन दृष्टि से रीना को देखते हुए साहिर ने कहा.
“हाँ, साहिर, अब ज़िन्दगी जाने कब दगा दे जाए. कम से कम हमारे पास जीने के लिए एक दूसरे की कुछ ऐसी यादें तो हों जो हमने अब तक जी ही न हों. पके आम हैं कब गिर पड़ें कौन जाने. हमें तैयार रहना होगा हर पल इस होनी के लिए. लेकिन उससे पहले जरूरी है इस निराशा को खुद से दूर रखना और स्वीकारना जो स्थिति है. स्थिति से कोई भाग सकता है क्या? स्वीकारो और आगे बढ़ो” उपदेशात्मक स्वर में रीना ने कहा.
“तो उसके लिए क्या करना होगा मैडम? आपके तो गुठने साथ नहीं देते और मेरा दिल. तो बताओ कैसे तुम्हारे संग बॉल डांस करूँ? कैसे तुम्हारे संग किसी ऊंची पहाड़ी पर तुम्हारा हाथ पकड़ दौड़ता चला जाऊँ? इस ख्वाब को अब अगले जन्म के लिए रख लो रीना. इस जन्म को तो इसी हिसाब किताब में गुजारना होगा कि सुना था कि बेटे ही साथ छोड़ देते हैं लेकिन बेटी भी वैसा ही करती है, ये अब जाना.” एक बार फिर साहिर बात को घुमाकर उसी दिशा में ले गया जिससे बचाने की रीना कोशिश कर रही थी.
“तुम फिर डिप्रेशन वाली बात करने लगे. अब बच्चों के लिए हम बोझ के सिवा कुछ नहीं. उनके किस काम आ सकते हैं. हाँ, यदि हमारे हाथ पैर अच्छे से चलते होते तो अपने बच्चों की परवरिश के लिए आया बनाकर वो हमें बुला भी लेते और उनके कुछ पैसे बच जाते मगर अब हमें बुलाने से क्या फायदा? और कह देते चलो मम्मी पापा आ जाओ इस बहाने घूम जाओगे मगर अब उलटे हम पर ही पैसे खर्च करने पड़ेंगे फिर वो विदेश में रहते हैं कैसे हमारी देखभाल करेंगे अपनी नौकरी छोड़कर, सोचो जरा. छोड़ा करो, किसी से कोई उम्मीद ही क्यों करते हो?”
“ये उम्मीद नहीं, बस मन है कि मानता नहीं.” हताश स्वर में साहिर ने कहा.
“चलो थोड़ी देर पार्क में टहल कर आते हैं” रीना ने साहिर को उन यादों से दूर ले जाने हेतु कहा.
जोर से हँसते हुए साहिर ने कहा, “देवी जी, तुम और टहलने की बात कर रही हो? कहीं टहलने जाओ और सचमुच ही टहल न जाओ.”
“अच्छा, तो मेरा मजाक उड़ाया जा रहा है. अब इतनी भी मोम की गुडिया नहीं हूँ. और फिर तुम्हारी बाईपास सर्जरी हो चुकी है तो डॉक्टर ने भी कहा है न रोज टहलने को. अब कोई सुनवाई नहीं, चलो उठो” आर्डर देते हुए रीना ने कहा.
“अरे, बाहर बहुत तेज जाड़ा है. मानो मेरी बात, रहने दो, बाद में सारी रात तुम्हारी दर्द से चिल्लाते बीतेगी.” समझाने वाले अंदाज़ में साहिर ने कहा.
“तुम चलो न, मन में जाड़ा नहीं है न, मन चंगा तो कठौती में गंगा” कह रीना ने गुठ्नों पर पैड पहने और पैरों में जूते पहने, सर पर टोपी और बदन को गर्म कपड़ों से ढकने के बाद शाल भी ओढ़ ली. “लो हो गयी पैक, देखती हूँ अब ठण्ड कहाँ से घुसेगी.” कह रीना ने अपनी स्टिक उठाई और टुक-टुक करते हुए चल पड़ी तो साहिर ने भी अच्छे से खुद को कपड़ों में पैक किया और चल पड़ा उसके पीछे-पीछे.
पार्क घर से कोई ज्यादा दूर नहीं था. गली के नुक्कड़ पर ही पार्क था. ये कॉलोनी थी ही ऐसी जहाँ पार्क पास होने से सभी को सुविधा थी. दोनों एक दूसरे का हाथ थामे धीमे-धीमे चलते हुए पार्क में अन्दर गए और टहलने लगे. सुबह का वातावरण वो भी जाड़े में, इक्का दुक्का जोगिंग करने वाले युवा ही वहाँ आते या फिर कसरती लोग. दोनों एक चक्कर लगाते और बेंच पर बैठ जाते. सूरज मियाँ भी ठण्ड से ठिठुरे होते तो बाहर आने में आनाकानी करते. दस मिनट बैठते फिर एक चक्कर लगाते. इस तरह दोनों पार्क के चार चक्कर लगाते और घर लौट आते. यही उनका रोज का नियम था.
घर क्या दो कमरों का ग्राउंड फ्लोर का फ्लैट था. हर फ्लोर पर दो फ्लैट एक दूसरे से सटे हुए. ऊपर जाने के लिए लिफ्ट थी. इस तरह चार मंजिला ईमारत थी. दिल्ली जैसे शहर में ऐसे रहना भी कहाँ आसान होता है. नीचे की नीचे ही सब सब्जी आदि खरीद लेते. किराने वाले को सामान लिखवा देते तो वो भिजवा देता. फिर किराने का सामान कोई ज्यादा नहीं होता. दो चार दालें , आटा, चावल, चीनी, चाय, तेल , साबुन आदि. अब कौन सा पहले की तरह भर कर सामान आता था इसलिए कोई दिक्कत नहीं थी उन दोनों को इस तरह रहने में भी लेकिन दिन और रात समान हो चुके थे उनके लिए. नींद भी उम्र से होड़ करने पर तुली जाती थी मानो कहती हो जितना तू बढ़ेगी उतना मैं घटूंगी. दोनों को यहाँ रहते कोई ज्यादा वक्त भी नहीं गुजरा था . महज पाँच साल . पाँच सालों ने ही उनकी ज़िन्दगी बदल दी थी. बेटे और बेटी दोनों के ब्याह कर चुके थे. दोनों के दो-दो प्यारे-प्यारे बच्चे थे. जब इकट्ठे होते तो आँगन किलकारियों से गूँज उठता था. आकाश की जॉब मल्टीनेशनल कंपनी में होने के कारण उसे अमेरिका जाना पड़ा तो सुरभि को अपने पति की जॉब के कारण जर्मनी. एकाएक दोनों जैसे खाली हो गए थे. इसी वजह से जाने से पहले आकाश ने ग्राउंड फ्लोर के फ्लैट में उन्हें शिफ्ट कर दिया था ताकि ऊपर चढ़ने उतरने की दिक्कत न हो, न ही बाहर आने जाने में. शुरू में तो दो साल बाद आये भी लेकिन उसके बाद अब तो नाम भी नहीं लिया दोनों ने आने का. अब पता नहीं बात भी करते हैं या नहीं? मैं, उनके बराबर के फ्लैट वाली सुनीता, अक्सर दोनों की नोंक-झोंक सुनती और यही देखती कहीं उन्हें कोई जरूरत न हो. पता है, यहाँ उनका कोई नहीं इसलिए ख़ास ध्यान रखती हूँ. लेकिन ऐसी उम्मीद नहीं थी कि बच्चे ऐसा करेंगे.
उनकी रोज की बातें मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी थीं क्योंकि वो आगे के कमरे में ही बैठते और जाली वाला गेट ही बंद होता तो आवाजें मुझ तक आती रहतीं क्योंकि मैं किचन में होती. मेरी किचन बाहर की तरफ थी. जाने कब वो दोनों जैसे मेरी ज़िन्दगी का ही हिस्सा से बन गए जबकि महानगरों में रहने वाले अक्सर एक दूसरे से बात करना भी अपनी तौहीन समझते हैं. दुआ सलाम रोज ही हो जाती. अब तो मुझे उनकी बातों की आदत हो गयी थी यदि किसी दिन उनकी आवाज़ न सुनती तो पूछने जाती कहीं तबियत तो खराब नहीं. अक्सर सोचती ‘क्या इसी दिन के लिए इंसान औलाद पैदा करता है जो जब उन्हें जरूरत हो तभी अकेला हो जाए. मगर ये उनका दोष नहीं आजकल माहौल ही शायद ऐसा हो गया है. हर घर की यही कहानी है.शायद पहले हम अच्छे थे जब एकसाथ रहते थे और कभी किसी को किसी की कमी नहीं खलती थी. संयुक्त परिवार का महत्त्व शायद ऐसे ही वक्त पर महसूस होता है.’
उस दिन भी वो टहलने गए हुए थे और मैं कपडे धो रही थी. तभी शोर सुन बाहर आई तो देखा गली के कुछ लोग उन दोनों को ही उठाये चले आ रहे हैं, देख मैं दौड़ी-दौड़ी गयी तो पता चला, अचानक आंटी चलते-चलते गिरीं और वहीँ ख़त्म हो गयीं. वहाँ टहल रहे लड़कों ने उन्हें बेंच पर लिटाया और डॉक्टर को वहीँ लेकर आ गए और जैसे ही डॉक्टर ने बताया वो ख़त्म हो गयीं, अंकल उनका हाथ पकड़ कर वहीँ बैठ गए, न रोये, न कुछ बोले तो डॉक्टर को लगा कहीं गहरे सदमे में न चले गए हों, और जैसे ही उन्हें हिलाया तो वो भी एक तरफ लुढ़क गए. अब दो लाशें एक साथ लायी गयी थीं लेकिन मैं, मैं तो खुद एक सदमे की सी स्थिति में आ गयी थी. अब रोज किसकी नोंक झोंक सुनूंगी? ये कैसे संभव है एकसाथ दोनों का इस तरह दुनिया को छोड़कर जाना? हार्ट का ऑपरेशन तो अंकल का हुआ था, आंटी को तो सिर्फ बी पी की ही बीमारी थी तो क्या उसी वजह से ये हुआ? डॉक्टर ने बताया सर्दी के कारण अचानक हार्ट श्रिंक कर जाता है तो क्या ये उसी कारण हुआ? ओह, तो अंकल ये सदमा सहन कहाँ कर पाए होंगे वो तो खुद हार्ट पेशेंट थे. ऐसे भी कोई जाता है दुनिया से एकसाथ? सारे गली के लोग ताज्जुब तो कर ही रहे थे वहीँ क्योंकि वो सीनियर सिटीजन थे तो पुलिस को सबसे पहले इत्तिला दी गयी और उन्होंने उनके बेटे और बेटी को खबर की ताकि उनके आने के बाद उनका दाह संस्कार किया जा सके.
यहाँ आकर पता चला आज का इंसान कितना हृदयहीन हो चुका है और खून कितना पानी. जिन बच्चों के लिए उम्र भर खटता रहता है वो इतने संवेदनहीन कैसे हो जाते हैं कि बेटे और बेटी, दोनों ने अपनी-अपनी मजबूरियाँ बताई और कह दिया, “आप ही लोग उनका दाह संस्कार कर दीजिये, हम नहीं आ सकते. वैसे भी अब आने का क्या फायदा, जब वो रहे ही नहीं.”
मतलब इसमें भी फायदा नुक्सान देखना. इतना कोरा जवाब? ये किस दौर में जी रहे हैं हम? कोई संवेदना बची ही नहीं अपनों के लिए भी. क्या इतना मनी माइंडेड बना दिया है हमें आज के दौर ने? ऐसी बेदिली न कहीं सुनी थी न देखी. पहली दफह मौका मिला था. अडोस-पड़ोस जिसने सुना वो ही अचंभित था. अब जितने मुँह उतनी बातें हो रही थीं लेकिन जो हो रही थीं वो सच ही तो थीं. मेरा उनसे कोई रिश्ता न था लेकिन यूँ लगा जैसे एक बार फिर मैंने अपने माँ पिता को खो दिया हो. सिर्फ उनकी बातें, उनका अकेलापन और उनका दर्द ही अब मेरी यादों की धरोहर बन गया था. अब सोचती हूँ तो लगता है जैसे पता नहीं वो उन्हें फ़ोन भी करते थे या नहीं? कई बार आंटी की आवाज़ आती तो थी बात करने की लेकिन अब लगता है जैसे वो खुद को बहलाती थीं बंद फ़ोन उठाकर क्योंकि अक्सर अंकल कहते थे, “बस करो रीना, क्यों खुद को धोखा दे रही हो. आज के दौर की हवाएं हैं जिनमे न नमी होती है और न ही बसंत. अब उनसे उम्मीद मत करो और न खुद को दिलासा दो.” उफ़! और मैं समझी ही नहीं, आज जाकर समझ आया है ये सच.
और सोचते-सोचते याद आ गयी मुझे आंटी की कही बात – “बस दूध वाला, किराने वाला, और कामवाली बाई ही बताते हैं जिंदा हैं हम वर्ना अपनों के लिए तो एक अरसा हुआ मरे हुए...क्या बेटा और क्या बेटी. अब तो हमारी लाशें ही बोलेंगी जो बोलना होगा. किसी दिन देखना ऐसे ही अनंत की यात्रा पर निकल जायेंगे हम दोनों-चुपचाप”
सच है, लाशें ही बोल पड़ीं और खोल दी रिश्तों के खोखलेपन की सारी कलई...
17 टिप्पणियाँ:
वाहः
लाजबाब लेखनी
झाँसी की रानी का परिचय सुखद है
बस एक ही शब्द..
ग़ज़ब...
सादर नमन
कविता और कहानी दोनो ही यथार्थ का चित्रण करती हुई । फिर से पढ़ना अच्छा लगा ।
बहुत बढ़िया।
@विभा रानी श्रीवास्तव जी हार्दिक आभार
@yashoda agrawal, @संगीता स्वरुप दी, @विश्वमोहन जी हार्दिक आभार आप सबका
ये नवीन अग्रवाल जी की प्रतिक्रिया :
नवीन अग्रवाल कविता और कहानी दोनों ने ही कहीं गहरे तक झकझोरा.. जहाँ कविता अपने आत्मसम्मान के लिये उठ खड़े होने का और पुरूष सत्तात्मक दमन को चुनौती देने का शंखनाद था वहीं कहानी स्वार्थी और एकाकी होते व्यक्ति परिवार और समाज के खोखलेपन का दस्तावेज.. ये दोनों रचनायें एक प्रश्नचिन्ह है हमारी सोच हमारी समझ हमारी परवरिश और हमारे पूरे सामाजिक ताने बाने और शिक्षा और समाज व्यवस्था पर भी कि हमने खुद को कितना स्वार्थी और अकेला बना लिया है..
बेहद सशक्त रचनायें है बहन वंदना गुप्ता की जो अंदर तक झकझोरती है और ये समझाती है कि हम इंसान है मशीन और गुलाम नही.. और इंसानियत का रास्ता ही व्यक्ति परिवार समाज और देश को खुशहाली और स्थायित्व देगा.. वर्ना तो हमने खुद को बर्बाद करने के सारे प्रपंच रच ही लिये है
बहुत खूब ,अभी कविता पढ़ी है कहानी का बाद में
पहले कहानी ही पढ़ी। मन को स्पर्श करती, यथार्थ का सामना कराती यह कहानी एकाकी वृद्धत्व की दीनहीन दशा को जब साकार करती है तो मन काँप जाता है। एकल परिवारों में पले, अपनी ही दुनिया में खोए बच्चे स्वार्थी ना होंगे तो क्या होंगे ? कहानी एक प्रश्न छोड़ जाती है। इस समस्या का हल क्या है ?
कविता जबर्दस्त है। हालांकि सामान्य भारतीय नारी को ऐसा बनने और करने में अभी वक्त लगेगा किंतु इतिहास गवाह है, क्रांति धीरे धीरे ही सही पर होती जरूर है।
दोनों रचनायें बहुत उम्दा । यथार्थ को आइना दिखाना सबको अच्छा नहीं लगता , लेकिन उसको समझ कर जीना ही जीवन दर्शन है ।
बिना लड़े हार मानने को तैयार नहीं अब स्त्री....
कविता जैसे क्रांति की मिसाल.
कहानी ने उदास कर दिया.जीवन स्तर बढ़ाने के लिए मशीन बन जाते संबंध हैं कहीं तो कहीं अपना बोया अपना काटना...
दोनों रचनाएं उद्वेलित करती हैं.
बहुत बहुत शुक्रिया @वाणी गीत जी , @रेखा श्रीवास्तव जी , @meena sharma जी, @रंजू भाटिया जी आप सबको रचनाएँ पसंद आयीं लिखना सफल हो गया :)
वन्दना जी के लेखन की आँँच तपाती है पाठक को ! ज्वालामुखी के लावे सी दहकती बहती कविता मन पर गहन प्रश्नचिन्ह छोड़ती है ! कहानी भी आज के जर्जर होते दरकते धसकते पारिवारिक ढाँचे की अत्यंत सशक्त अभिव्यक्ति है ! जाने कितने पाठकों की कहानी इन शब्दों में बयाँँ हो रही है ! हार्दिक बधाई वन्दना जी ! अनंत शुभकामनाएं !
आंदोलित करती कविता...
लाशें ही बोलेंगी- यथार्थ की सशक्त अभिव्यक्ति
दोनों रचनाएँ आज की ज्वलंत समस्याओं की ओर इशारा करती हैं..प्रभावशाली लेखन
कविता व कहानी दोनों ही मन को झकझोरने वाली! सशक्त लेखन हेतु बहुत बधाई वंदना जी!
~सादर
अनिता ललित
आप सबको कविता और कहानी पसंद आयी जानकर ख़ुशी हुई हार्दिक आभारी हूँ अनीता ललित जी, अनीता जी, प्रीती अज्ञात जी, साधना वैद जी
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