प्रिय कवि...
नहीं होती एक कोई, रचना सर्वोत्तम...
नहीं ही होता सर्वश्रेष्ठ कोई एक कवि...
तुम मुझे प्रिय हो कवि...
समूचे के समूचे, जैसे कि तुम हो...
अपने विषय, विश्लेषण, विवेचना मे...
प्रबोधक-प्रहार, प्रपंच-परिक्रमा मे...
... द्वंद, संताप, पश्ताचाप, प्रार्थना मे...
निश्चित रहो कवि...
तुम्हारे शब्दों से पहले...
मैं समझ सकता हूँ, तुम्हें...
... आखर-आखर धुएँ मे...
अभिव्यक्ति तुम्हारी...
विलीन होती हुयी...
अपेक्षाओं के नभ मे...
और 'होम' होते हुए तुम...
शब्द-शब्द संज्ञान मे...
सच कहता हूँ, कवि...
शब्द केवल, सिहरा सकते हैं...
... मर्म, समवेदनाएँ, सहानुभूति...
क्षणभंगुरता के पार...
शब्द फिर-फिर इन्द्रजाल हैं...
... कलम कि नोंक पर सतत सवाल हैं...
तुम मुझे प्रिय हो कवि...
जो मुझसे ही तो हो तुम...
आतुर, आशंकित, आकुल...
अविराम, व्यथित, व्याकुल...
शांत, स्थिर, तृप्त, मृदुल...
एक ही समय मे...
साधु, शैतान, सब्र, और संकीर्णता से...
निबटते हुए, निजता से, कुशलता से...
अपने भीतर के सब किवाड़ धकेल कर...
... बाहर, मुझ सा ही तो, निकल आते हो...
प्रयास का सम्मान बड़ा होता है...
तुम शब्दों से कितना ही गहरा...
कोहरा, भेद दो, रचो कालजयी...
... मुझे तुम्हारा तुम्हारे भीतर से...
उबर आने का प्रयास प्रिय है...
मुझे प्रिय हूँ मैं, और...
'तुम' मुझे प्रिय हो कवि... ... ... !!
देखना है अपने मिलखे का गाँव........
गाँव देखने से पहले मुझे ढूँढना है
एक वो ऊँचा पहाड़ी टीला
जहाँ से खड़े होने पर
मेरे और उस गाँव के बीच में
कोई कँटीला तार न आ सके.......
6 टिप्पणियाँ:
एहसास बिना किसी पते के घूमते हैं, उनको बेफिक्र आने दो …
वाह!
so true!
शुभ संध्या
उत्तम रचनाओं का संगम
आज बरसों बाद एक संदूक
दिखा पुराना...
सादर
बहुत अच्छी लगी लिंक्स-सह-कविता प्रस्तुति
आभार!
जय हो ... दीदी जय हो |
बहुत सुंदर प्रस्तुति ।
sundar prastuti.
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