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सोमवार, 13 अगस्त 2012

श्रेष्ठ ग़ज़लकार का तस्लीम परिकल्पना सम्मान-२०११ इस्मत ज़ैदी को ...





जगजीत सिंह की दिलकश आवाज़ और ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ -
गाहे-गाहे इसे पढा कीजे
दिल से बेहतर कोई किताब नहीं..." और दिल की तरह इस्मत जैदी का ग़ज़ल ब्लॉग

शेफ़ा कजगाँवी - شفا کجگاونوی और यह खबर कि

वर्ष की श्रेष्ठ ग़ज़लकार का तस्लीम परिकल्पना सम्मान-2011

इस्मत ज़ैदी को ...

2009 से अपनी ग़ज़ल में बांधती गईं इस्मत ... खुद की पहचान भी किसी ग़ज़ल से कम नहीं -
इस्मत के सम्मान पर बरबस कहने का दिल करता है -
बड़े हसीं हैं नज़ारे तुम्हारी बस्ती(ब्लॉग) में
............
हम अपने शौक से हारे तुम्हारी बस्ती (ब्लॉग) में :) ... निःसंदेह , इस गज़लकारा की हर ग़ज़ल ज़िन्दगी से मिलकर आती है ...

शेफ़ा कजगाँवी - شفا کجگاونوی: 10/09/09


अब जमीं है न ये बिस्तर है कहाँ पर बैठें
हम दरख्तों पे हैं और पैरों को छूता पानी
हर जगह तैरती बचपन की मेरी यादें हैं
मेरा संदूक बहा ले गया बढ़ता पानी
आज सैलाब बहा ले गया जाने क्या क्या
सारी उम्मीद खत्म करके ही उतरा पानी..."

इस्मत की ग़ज़ल हो या कविता ... क्यूँ लिखा को उसने बखूबी स्पष्ट किया है . उनके

ही शब्दों में - कविता के बारे में मैं कुछ कहना या भूमिका बांधना नहीं चाहती

आप सभी लोग ख़ुद ही समझदार हैं

कल तक थे जो भाई साथ
करने लगे वे दो दो हाथ
अम्न्पसंदी मानवता
आज बन गई कायरता
मारपीट है आगज़नी है
राज्य राज्य के बीच ठनी है
भाई भाई के रक्त का प्यासा
छाने लगा कैसा ये कुहासा
यूँ देखो कोई बात नहीं है
बिना बात ही आग लगी है
नेताओं को वोट की लालच
सम्मुख आने लगे सभी सच
भाषण भी भड़काने वाले
कहाँ गए समझाने वाले?..."

दिल दिमाग पर सामयिक बोझ को महसूस करते हुए इस्मत कहती हैं -
"अक्सर यहाँ वहां होने वाले दंगों के बाद लगी आग ने ये लिखने पर मजबूर किया
मजबूरी इसलिए क्योंकि ऐसी ग़ज़लें खुशी में नहीं लिखी जातीं ।.......

आग ही आग है हर सिम्त बुझाओ लोगो
जल रहे बस्ती में इन्सान बचाओ लोगो
दुश्मनी खत्म हो और दोस्ती का हाथ बढे
हो सके गर तो ये एहसास जगाओ लोगो
दुश्मनी किस से है क्यों है ये अलग मसला है
नन्हे बच्चों पे तो मत दाओं लगाओ लोगो
टूटी ऐनक है जले बसते हरी चूड़ी है
जाओ बस्ती में ज़रा देख के आओ लोगो
बेखाताओं को न मारो यही कहते हैं धरम
जो नहीं जानते ये उन को बताओ लोगो
जब के रावण था मरा राम ने ये हुक्म दिया
साथ इज्ज़त के रसूमात निभाओ लोगो
दिल है बेचैन 'शेफा' मुल्क की इस हालत पर
अब भी खामोश हैं हम ख़ुद को जगाओ लोगो..."

देश , समाज के हर विषयों पर गज़लकारा ने अपने मन में उठते भावों को लिखा है ...
"वह नहीं चाहती आरक्षण
वह नहीं चाहती संरक्षण
इस दौर की नारी सबला है
ये मत सोचो वह अबला है
नारी में अक्षुण शक्ति है
बुद्धि है उसमें युक्ति है
वह राजनीति हो ,शिक्षा हो
या धर्म के क्षेत्र की दीक्षा हो
विज्ञानं हो या साहित्य विधा
हो क्षेत्र चिकित्सा का ,कि कला
हो मदर टेरेसा या इंदिरा
वह बचेंद्री हो या हो कल्पना
वह बनी कभी रानी झाँसी
वह हेलेन है ,वह है curie
हर क्षेत्र में उसने सिद्ध किया
अब नहीं चाहिए निर्भरता
आरक्षण की क्यों बात उठी ?
क्या कोई कमी नारी में दिखी?
तैयार है वह लड़ने के लिए
स्वदेश पे मर मिटने के लिए
क्यों उस की वीरता पर है शक ?
क्या उसकी बुद्धि से है डर?
छोड़ो नारी अधिकार ,हनन
मत बहलाओ ,दे आरक्षण
वह कहीं पुरूष से नहीं है कम
हैं उसमें भी सारे दम ख़म
वह पात्र तो है सम्मानों की
न बलि चढ़े अरमानों की
वह दूजे के सब दुःख हर ले
अन्याय परन्तु नहीं सहे
केवल सहयोग की है इच्छा
वह नहीं चाहती है भिक्षा
वह न्याय की ही अधिकारी है
अनुकम्पा उस पर भारी है"

ये कविता उन वीरों को समर्पित जिन्होंने आतंकवाद के विरुद्ध लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी

श्रद्धांजलि

दहशतगर्दी ख़त्म करूंगा ,
ऐसा था उसका सपना ,
बेरहमों को धूल चटाकर ,
प्रण था दृढ़ किया अपना .

साहस की दुनिया में उसका ,
बड़ा नाम जाना जाता ,
पुरस्कार थे ढेरों जीते,
वीर बहुत माना जाता.

उस दिन आतंकी थे सम्मुख ,
जम कर युद्ध किया उस ने,
उनमें से कुछ मार गिराए ,
बचे हुए किये वश में .

होनी को पर टाला किस ने ,
मृत्युतिथि उस की आई ,
वीरों की राहों पर चल कर ,
वीरगति उस ने पायी.

माता -पिता की आँख का तारा ,
कायरता ने छीन लिया ,
बहनों की राखी का धागा,
सदा सदा को टूट गया.

पत्नी का सिन्दूर मिट गया ,
रहा सहारा कोई नहीं ,
बच्चों को अब राह दिखाने ,
दिया जलाता कोई नहीं.

सहते हैं सब दुःख तकलीफें ,
माता -पिता पर गर्वित हैं,
घर की दीवारों पर उनके,
सारे मेडल शोभित हैं.

हर मेडल को देख के बच्चा ,
पापा पर अभिमान करे ,
उनके जैसा ही बनना है,
जग जिस का सम्मान करे .

उनके इस बलिदान को भारत,
कभी भुला ना पायेगा ,
आततायी को दूर भगा कर ,
श्रद्धा सुमन चढ़ाएगा .

हिन्दुस्तां में जैसे लखनऊ की नफासत है , वैसे ही उर्दू में भी एक नफासत है ..... तो इस नफासत को बरकरार रखने के लिये इस्मत की बातों के
साथ ही उनका लिखा आपसबों को नज़र करती हूँ ...
जनाब शाहिद मिर्ज़ा "शाहिद" साहब की एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल और उस के रदीफ़ से मुतास्सिर हो कर की गई एक कोशिश पेश ए ख़िदमत है ,...’मज़ाक़ में’ रदीफ़ की वो ग़ज़ल उन के ब्लॉग पर पोस्ट हुई और जनवाणी, मेरठ के कॉलम ’गुनगुनाहट’ में छपी ,, जिस का लिंक भी पेश ए ख़िदमत है
http://shahidmirza.blogspot.com/2011/04/blog-post.html

"................अक्सर मज़ाक़ में"
_______________________________

रिश्ते भी वो बनाए है अक्सर मज़ाक़ में
उन को मगर निभाएगा क्योंकर मज़ाक़ में

इक झूट सब के बीच वो इस तर्ह कह गया
फिर जाने कितने टूट गए घर मज़ाक़ में

हर लफ़्ज़ तीर बन के जिगर में उतर गया
हालांकि कह रहा था वो हंस कर मज़ाक़ में

जोकर की तर्ह मेरा भी किरदार हो गया
जग को हंसा रहा था मैं रो कर मज़ाक़ में

अपनी ज़ुबाँ पे इतना तो क़ाबू रखो ’शेफ़ा
तोड़े न दिल चलाए न ख़ंजर मज़ाक़ में
........................................................... बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी .... और यह दूर तलक गई उनकी बातें आज उनका सम्मान बन गयीं .

इस्मत के सम्मान में मैं बस इतना कहना चाहूँगी कि
तू ग़ज़ल है अपने ख्यालों का
जिसकी तासीर तेरी बातों में होती है

अर्ज़ है आपकी खिदमत में उस ग़ज़ल की ग़ज़ल -


ख़्वाब बन कर मिला करे कोई
दर्द की यूँ दवा करे कोई

ज़िदगी की तरफ़ जो ले आए
"इब्ने मरियम हुआ करे कोई "

अपनी जाँ पर सहे सितम सारे
ऐसे भी तो वफ़ा करे कोई

ज़ुलमतें दूर कर दे ज़हनों से
शम ’अ बन कर जला करे कोई

क़स्र ए सुल्ताँ में कौन सुनता है
कुछ कहे तो कहा करे कोई

ज़िंदगी में मिले सुकूँ लेकिन
ख़्वाहिशों से वग़ा करे कोई

---------------------------------------------------------

ज़ुल्मतें = अँधेरे ; क़स्र = महल ; वग़ा = युद्ध


14 टिप्पणियाँ:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

इक झूट सब के बीच वो इस तर्ह कह गया
फिर जाने कितने टूट गए घर मज़ाक़ में!
बहुत ही गहरी बात और बहुत सादगी भरे अन्दाज़ में.. कमाल की गज़लें कही हैं इस्मत जैदी साहिबा ने.. न जाने कैसे अब तक इनसे मुलाक़ात नहीं हुई..
गज़लें और अच्छी शायरी वैसे भी मेरी कमजोरी है!! लगा रहेगा बा आना जाना!!

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

रश्मि जी बहुत बहुत धन्यवाद, शुक्रिया आप ने तो इतना कुछ लिख दिया मेरे बारे में कि अब मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या लिखूं :)मुझे गर्व है कि आप मेरी मित्र हैं इसलिये नहीं कि आप ने इतना कुछ लिखा है बल्कि इस लिये कि प्रतिदिन आप की एक नई क्षमता और प्रतिभा के दर्शन होते हैं ,अभी और कितनी परतें खुलनी बाक़ी हैं :)?तस्लीम परिकल्पना समूह का भी बहुत बहुत धन्यवाद
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने - जनाब आप को ग़ज़लें पसंद हैं ये जान कर बेहद ख़ुशी हुई ,,मेरे ब्लॉग पर आप का ख़ैर मक़दम है

http://www.ismatzaidi.blogspot.in/

ashish ने कहा…

इस्मत आप को बधाई . हम, तो उनकी ग़ज़लो के मुरीद है. २ पंक्तिया उनकी ग़ज़ल संसार से.


हमारे हौसलों का रेग ए सहरा पर असर देखो, अगर ठोकर लगा दें हम तो चशमे फूट जाते हैं.----- शेफ़ा कजगाँवी

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

क्या कहूं और कहने को क्या रह गया..... बधाईयाँ...

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

इस्मत जी को पढ़ना याने लफ्जों की एक शानदार दावत उड़ाना है.....

मुबारकबाद देती हूँ उन्हें......बस कुछ पकता रहे उनके ज़ेहन में...और वे परोसती रहें अपनी कलम से...

सादर
अनु

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

तस्लीम परिकल्पना में २०११ का श्रेष्ठ ग़ज़लकार के रूप में ,बहुत अच्छा चयन,,इस्मत ज़ैदी को ...बहुत२ बधाई शुभकामनाये,,,,

स्वतंत्रता दिवस बहुत२ बधाई,एवं शुभकामनाए,,,,,

शिवम् मिश्रा ने कहा…

वाह ... बहुत खूब ... मेरी ओर से भी इस्मत जी को बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें !

rashmi ravija ने कहा…

इस्मत जैदी को पढना हमेशा ही दिल को सुकून देता है, बहुत ही उम्दा गज़लकार हैं.....बहुत बहुत बधाई

वाणी गीत ने कहा…

इस्मत जी को बहुत बधाई !

मनोज कुमार ने कहा…

बेहद उत्कृष्ट कोटि के रचनाकार से परिचय कराने के लिए शुक्रिया।

vandana gupta ने कहा…

इस्मत जी को हार्दिक बधाई।

सदा ने कहा…

आपकी कलम से आदरणीय इस्‍मत जी का परिचय अच्‍छा लगा ... बहुत - बहुत बधाई सहित शुभकामनाएं ...

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर परिचय...इस्मत जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनायें !

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

इस्मत जैदी को ..बहुत बहुत बधाई ...!!

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