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शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

तस्लीम परिकल्पना सम्मान-2011 की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री बाबुशा के कुछ पन्ने..

Profile pictureतस्लीम परिकल्पना सम्मान-2011' के लिए सर्वश्रेष्ठ कवयित्री बाबुशा के

कुछ पन्ने..

जहाँ खुद से मिलाती वह कहती है - "मेरी रूह ख़ानाबदोश है और मेरे ख़्वाब आवारा ! जो मैं आज हूँ , कल मैं वो नहीं ! मेरा एक ही नियम है कि मेरा कोई नियम नहीं! मैं हर जगह हूँ और कहीं भी नहीं ! मैं नहीं हूँ सचमुच 'मैं', नहीं मैं कुछ भी नहीं।"
और मैं उस कुछ नहीं के अरण्य में अपनी किरणों के साथ दूर तक निकल जाती हूँ .... क्योंकि इस कुछ नहीं में बहुत कुछ मिलता है . जैसे -
जीने का नशा मन भर के कर लें,
कि आज एक बार जी भर के मर लें,
बूँद बूँद पानी में ख़ुद को तर लें,
चलो..
बरिस्ता की कॉफ़ी सी भाप है बाबुशा , शीशे पर ठहरी खोने के क्रम में सिहरती बूंदों सा इक ख्याल है इनका पन्ना ... कई बार पढ़ते हुए सोचा है कि सचमुच की कोई लड़की है ये , जिसमें होंगी कुछ आम सी बातें भी या सपनों में गुजरता इक ख्वाब है जो कहता है - 2007 के बाद 2010 में
पढ़ते हुए एक लौ सी बाबुशा लहराती है , उसकी सोच की हल्की हल्की तपिश पूरी सोच को जगा जाती है , वहम होता है या विश्वास कि ख्यालों की चिंगारी एक लड़की से नज़्म में परिवर्तित कर देती है ...
ऐसा भी होता है - जब होती हैं

कैप्सूल में बंद कविताएँ

नन्हीं हथेलियों के लिए बनाते हुए दस्ताने
उसने कितने ही स्वप्न बुन डाले
सुन लिए वो सबसे पहले शब्द
जो अब तक बोले ही नहीं गए
देखा बिना सहारे के
पहला कदम उठाते हुए
जो अब तक उठाया ही नहीं गया
पूरे भी नहीं हुए थे दस्ताने
कि ख़त्म हो गयी ऊन की लच्छी!"

प्रेम नदी , सागर , पर्वत , हवा , ख़ामोशी में उभरती पुकार ........... और यहाँ
मैंने तन पर बस प्रेम पहना है
खुरदुरा
फिर भी महीन,
यह एक टुकड़ा प्रेम
कभी फैल कर आकाश ढंक लेता है
कभी इतना सिकुड़ जाता है कि
निर्वस्त्र कर देता है....

जो लिखता है कविता उसके साथ या पढनेवाले के साथ कुछ भी हो सकता है , होता है . बाबुशा के कलम सी आँखों में रात के तीसरे पहर रोज़ उसकी बालकनी में एक बरगद उग आता है...! यह बोध का बरगद है...!
सुख और दुःख की कॉकटेल....बोधि-बरगद....आइन्स्टीन और.......ताज़ा बकवासें.....

सुख और दुःख की कॉकटेल

पूरा जीवन ही इस जाम से भरा होता है !!!

कलम , कविता या कहानी एक तिलस्मी संसार बनाती है . शीर्षक से एक रहस्य उभरता है , पर कौन है यह

चौथा आदमी


वहाँ चार आदमी थे

पहला - शब्दों से भरा हुआ था

उसके मुंह से ही नहीं

नाक, कान और आँखों से भी

शब्द टपकते थे !

शब्दों के ढेर पर खड़ा

उसे गीता कंठस्थ थी ;

परन्तु उसे कृष्ण का पता न था !


दूसरा - अर्थों से भरा हुआ था !

वह हर समय

परिभाषाएं गढ़ता

मौसम-खगोल-रहस्य

आकाश- पाताल

भूगोल, राजनीति

कला, प्रेम की

व्याख्या करता

अर्थों को खोजती उसकी नज़रें

मेरे उभारों और

गोलाइयों की विवेचना करती थीं !


तीसरा - मौन से भरा हुआ था

उसके माथे पर चन्दन चमकता

उसके मौन के चारों ओर

अपार भीड़ थी

उसे पूजा जाता था

उसका तना हुआ चेहरा देख लगता था

उसने अपनी जुबान का

गला दबा रखा हो

उसकी जबान को छोड़

बाक़ी सब कुछ बोलता था

उसके मौन में बहुत शोर था


चौथा आदमी -

वह खालीपन से भरा हुआ था !

घुटनों के बल बैठा

आकाश को निहारता

उसकी खाली आँखें भरी हुयी थीं

खींचतीं थीं

जैसे ल्युनैटिक्स को

खींचता है चाँद

और मैं खिंच गयी थी !


उसके ख़ालीपन में मैंने

छलांग लगा दी !

हम एक के भीतर एक थे

पर दो थे !

हमारी सटी हुई त्‍वचाएं जल्द ही

ऐसी महीन रेशमी चादर में

बदल गयीं

कि हवाएं उसके आर-पार जाती थीं !

बौछारें वहां मुक़ाम बना टिक जाती थीं

हम दोनों की सटी हुई त्‍वचाओं के बीच भी

हमने ख़ाली ही छोड़ी थी वो ख़ाली जगह

अब -

उस ख़ाली जगह में;

गिलहरियाँ फुदकती हैं ,

पपीहे गीत गाते हैं ;

तितलियों का रंग वहीं बनता है

चाँद की कलाएं बदलने के बाद वहीं आकर रहती हैं

वहीं बहती रहती है शराब ,

झरने वहीं से फूटते हैं

और एक दरवेश ;

एक हाथ से आकाश थामे ;

दूसरे से धरती सम्भाले -

अपनी ही धुरी पर

घूमता रहता है गोल-गोल !"


इतवार - ६ दिनों की लम्बी यात्रा करके आता है ... और ऐसा भी हो जाता है

टूटी चूड़ी में फंसा हुआ ...

मेरी टूटी हुयी चूड़ी में

फंसा हुआ इतवार


मुझे मालूम था

कि तितलियाँ जहां आँख मिचौली खेल रही थीं

उसके ठीक नीचे एक गहरी घाटी में

जमा हो रही थीं अवसाद की परतें -"

मैं कहती हूँ किसी इश्तेहार का क्या अर्थ बाक़ी है

कि जब हर कोई चेसबोर्ड पर ही रेंग रहा है

आड़ी- टेढ़ी या ढाई घर चालें तो वक़्त तय कर चुका है

काले सफ़ेद खाने मौसम के हिसाब से

आपस में जगह बदलते हैं


फिर क्यों झूठे सत्य की तलाश में भटका जाए


एक नट सदियों से रस्सी पर चल रहा है

न उसने संतुलन का भ्रम दिखाया

न हवा में शरीर फ़ेंक कलाबाजी का नमूना पेश किया

उलटे सिक्के फेंकने वाले तमाशबीनो की ओर उछाल दिया

फोंटाना द त्रेवी का रूट मैप


पानी का देवता सिक्कों की माला पहन तुम्हे दुबारा बुलाता है

हर दुःख दरकिनार कर तुम चल पड़ते हो

अपनी ही परछाईं देखने

जबकि कहीं का भी पानी तुम्हें अपनी ही शक्ल दिखाता है

पर कामना से भरे हुए तुम

रोम के पानी में ख़ुद को बेहतर पाते हो


झूठ है तो दुनिया क़ायम है

सत्य कोयले की खदान में लगी आग है

याद है..

एक बार पृथ्वी आग का गोला थी ?


मेरे मकान की ईंटें कब की पक चुकी हैं

गर्म फ़र्श पर नंगे पाँव चलना अब मुश्किल है

मेरे कमरे में अब आग की लपटों की दीवारें होंगी

राख के ढेर पर बैठे हुए मैं

भटकी हुयी 'एलिस' को राह बता दूंगी

मोड़ का आख़िरी घर उसका है

जबकि पहला घर और बीच के सारे घर भी उसके ही हैं


पूरी दुनिया को नींद में चलने की बीमारी है

उस डॉक्टर को भी जो नींद में पर्ची पे पर्ची लिखे जा रहा है !"


कितनी संजीदगी है ज़िन्दगी के इस खुले सत्य में ....

माइग्रेन, ट्राइका और एक निहायत ही दो कौड़ी की बात


किश्तें , कश्ती , साहिल , नदी .... कई आयाम और विराम हैं इन पन्नों के और बाबुशा के , जितने गहरे जायेंगे , उतना पायेंगे .... पन्ने कई हैं जो लिखे जा चुके हैं ,
पन्ने जो लिखे के इंतज़ार में फड़फड़ा रहे हैं .... इन्हीं पन्नों से एक पन्ना जो बहुत कुछ कहता है

मुजरा, मृत्यु , ईश्वर और मैं यानी बाबुषा

मेरे हृदय में एक अदृश्य कोशिका है, जो धागे की गिटी की तरह पृथ्वी को लपेटे हुए है. मेरे मस्तिष्क में एक अदृश्य ट्यूमर है, जिसका आकार रौसेटा
पत्थर से भी बड़ा है. मेरे गर्भ में एक अदृश्य बच्चा है,जिसके पिता को भूलने की बीमारी है. मैं एक अदृश्य उंगली पकड़ कर सदियों से नींद में चल रही हूँ,
उस उंगली के चारों ओर दृश्य बिखरे पड़े हैं.
श्रेष्ठता ने अपना मान रखा है , और बाबुशा ने आपके समय का .... ये पन्ने अमूल्य धरोहर हैं ...


17 टिप्पणियाँ:

vandana gupta ने कहा…

बाबुशा जी को हार्दिक बधाई

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

सबसे पहले तो तहे-दिल से बधाई.... इस बेहतरीन सम्मान के लिए !!
सुश्री बाबुशा कोहली को.....
फिर रश्मि दी ने उनके एक से एक बेहतरीन कविताओं का जो नजराना पेश किया...
वो एक दम अलग है...!!
आभार !!

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

सभी कवितायें बहुत अच्छी। चौथा आदमी उत्कृष्ट रचना लगी

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सारी की सारी कवितायें गहरी उतरती हैं, स्पष्ट सी।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

बेशक! बाबुशा के पन्ने अनमोल धरोहर हैं। अभी उनके ही गाँव से से हो कर आ रहा हूँ।
...और उनके गाँव तक पहुँचाने के लिये रश्मि जी को साधुवाद!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

निसंदेह बाबूषा जी एक अच्छी रचनाकार है,,हार्दिक बधाई,,,,

amit kumar srivastava ने कहा…

उत्कृष्ट संरचना भावनाओं की और उतनी ही उत्कृष्ट प्रस्तुति |

Kailash Sharma ने कहा…

बबुशा जी को हार्दिक बधाई..सभी रचनाएँ बहुत उत्कृष्ट...आभार

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

बाबुशा को अधिक नहीं पढ़ा। यहाँ प्रकाशित कविताएं अच्छी लगीं। चौथा आदमी सबसे अच्छी लगी।..कवयित्री को बहुत बधाई।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बाबूषा जी को बहुत बहुत बधाइयाँ और आपका बहुत बहुत आभार रश्मि दीदी!

वाणी गीत ने कहा…

बाबुशा की लेखनी प्रभावित करती है . इन रचनाओं के अतिरिक्त उनकी वसीयत ने भी बहुत लुभाया!

अजय कुमार झा ने कहा…

बाबुषा जी पहले भी पढा है और आगे भी पढते रहेंगे । उनको इस उपलब्धि और सम्मान के लिए बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं पूरे बुलेटिन टीम और ब्लॉग जगत की तरफ़ से । रश्मि दीदी , आपका आभार जो यहां उनकी सुंदर रचनाओं के कतरों को सहेज़ कर इस पन्ने को संग्रहणीय बना दिया ।

vijay kumar sappatti ने कहा…

बाबुषा को दिल से बधाई . मैं अक्सर उनके शब्दों में खो जाता हूँ.

सदा ने कहा…

बाबुषा जी को बहुत-बहुत बधाई ... आपका आभार इस परिचय और प्रस्‍तुति के लिए

दीपिका रानी ने कहा…

आभार परिचय कराने का.. उनके ब्लॉग पर जाकर उन्हें और पढ़ती हूं।

सुज्ञ ने कहा…

बधाई और शुभकामनाएँ !!

राजीव तनेजा ने कहा…

बहुत बहुत बधाई....

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