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रविवार, 5 अगस्त 2012

वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका (कथा-कहानी) का तस्लीम परिकल्पना सम्मान-2011 रश्मि रविजा




वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका (कथा-कहानी) का तस्लीम परिकल्पना सम्मान-2011
रश्मि रविजा मन का पाखी
मन का पाखी और अपनी, उनकी, सबकी बातें दो ब्लॉग हैं रश्मि के और अब तो चर्चित ब्लॉग  
खैर बातें कहीं हों , कोई ब्लॉग पहले हो या बाद में रश्मि की कहानियों में , आलेखों में एक आम जीवन झलकता है 
और जीवन की सच्चाई मुखर रहती है,
और जो निशां बनते हैं , वे बहुत कुछ सोचने को छोड़ जाते हैं .
यूँ मन का पाखी 2009 में हमारे बीच आया एक "कशमकश" लेकर और अपनी उनकी ... बातें 2010 में शिक्षको को अब निभानी पड़ेगी काउंसिलर्स की भी ... जैसे विचार के साथ .

रश्मि के लेखन में विचारों के मशाल जलते हैं जो परिवर्तन का आह्वान करते हैं तथा आए दिन की कई 
बारीकियां दे जाते हैं . जब मन बोझिल हो जाए तो गंभीरता को एक मुस्कान दे जाती है और सारी बन्द 
खिड़कियाँ स्वतः खुल जाती हैं .

पर मुश्किल है रश्मि की कि वो

सच से कैसे आँखें चुराएं ??


मेरे कुछ दोस्तों को मेरी लिखी कहानी तो अच्छी लगी ,पर उनका कहना है, यह इतनी दुखभरी क्यूँ है?...
एक शायर की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं.उन्हें यहाँ कहना इसलिए भी जरूरी है,क्यूंकि मेरी दूसरी पोस्ट देखकर भी 
मेरे दोस्त यही सवाल दुहारायेंगे.....

गुल की, खुशबु की, फिजा की बात करते हो
अमां तुम किस वतन के हो,कहाँ की बात करते हो
भूले से भी न करना चर्चा, कभी इन सिसकती हवाओं का
अगरचे लौट भी जाओ ,जहाँ की बात करते हो

खैर, तस्वीर इतनी भी बुरी नहीं. चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, हम सबको ख़ुशी के दो पल चुरा लेना बखूबी आता है 
और यही जीवन है.जबतक दुःख का स्वाद न चखें,
ख़ुशी कितनी लजीज है ,इसका पता कैसे लगेगा?? दुःख किसी न किसी रूप में हर एक के जीवन में आता ही है,
इस से आँखें तो नहीं चुरा सकते हम. 
इसे दवा की कड़वी घूँट की तरह निगलना ही पड़ता है.

हिमांशु एवं ममता इतना निराश होने की जरूरत नहीं ..क्या पता कथानायक को इस से भी अच्छी नौकरी मिल जाए 
और उसके जीवन में रूपा जैसी किसी लड़की का आगमन भी हो जाए. दुःख या सुख कुछ भी चिरस्थायी नहीं पर 
हाँ अवश्यम्भावी जरूर हैं. खुद के बारे में यही कह सकती हूँ,शायद मैं ख़ुशी एन्जॉय करती हूँ और दुःख गहराई से 
महसूस करती हूँ.इसीलिए रचनाओं में वह झलक जाता है.सायास कभी कुछ नहीं लिखा.
दिल ने जो कहा कलम ने बात मानी,दिमाग को बीच में आने ही नहीं दिया.
प्रस्तुत है इस बार मेरी लिखी कुछ पंक्तियाँ

"लावारिस पड़ी उस लाश और रोती बच्ची का क्या हुआ,
मत पूछ यार इस देश में क्या क्या न हुआ

जल गयीं दहेज़ के दावानल में, कई मासूम बहनें
उन विवश भाइयों की सूनी कलाइयों का क्या हुआ

खाकी वर्दी देख क्यूँ भर आयीं, आँखें माँ की
कॉलेज गए बेटे और इसमें भला क्या ताल्लुक हुआ

तूफ़ान तो आया बड़े जोरों का लगा बदलेगा ढांचा
मगर चाँद पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ

हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ

जब जब झलका आँखों में व्यर्थ सा पानी 'रविजा'
कलम की राह बस एक किस्सा बयाँ हुआ..."

आज के दौर में हमारे हाथ कई खूबसूरत दिन तोहफे की तरह मिले , ताकि अपनी व्यस्तताओं के मध्य से हम उनकी 
खासियत को जीलें . जैसे - प्रेम का दिन वेलेंटाइन डे, मित्रता का दिन , माँ , बेटी ..... दिन ही दिन . 
प्यार के दिन गुलाब से होते हैं , पर

कुछ 'वैलेंटाइन डे'...ऐसे भी, गुजरते हैं



काफी साल पहले की घटना है,जब मेरे बच्चे बहुत छोटे थे पर मुंबई में 'वैलेंटाइन डे'
की धूम कुछ ऐसी ही रही होगी,तभी तो इनलोगों ने अपने टीचर से पूछा होगा,कि ये 'वैलेंटाइन डे' क्या बला है?
और टीचर ने इन्हें बताया कि आप जिसे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं ,
इस दिन,उसे कार्ड,फूल और गिफ्ट देकर विश करते हैं. अब बचपन में बच्चों की सारी दुनिया माँ ही होती है 
(एक बार छुटपन में मेरे बेटे ने एक पेंटिंग बनायी थी जिसमे एक घर था और एक लड़का हाथों में फूल लिए घर की तरफ जा रहा था...मैंने जरा उसे चिढ़ा कर पूछा ,"ये फूल, वह किसके लिए लेकर जा रहा है?" 
और उसने भोलेपन से कहा था,"अपनी ममी के लिए" ) .
अब टीचर की इस परिभाषा पर दोनों बच्चों ने कुछ मनन किया और मेरे लिए एक कार्ड बनाया और 
गुलदस्ते से एक प्लास्टिक का फूल ले कर कार्ड के साथ सुबह सुबह मेरे तकिये पर रख गए...
मेरी आँखें खुली तो दोनों भागते हुए नज़र आए और दरवाजे से झाँक रहें थे.
इनलोगों के स्कूल जाने के बाद मैंने सोचा,कुछ अलग सा करूँ.? 
बच्चों ने कार्ड दिया है तो कुछ तो करना चाहिए और मैंने सोचा..
जब मेहमान आते हैं तभी ढेर सारी,डिशेज बनती हैं.क्रौक्रीज़ निकाली जाती हैं.सफ़ेद मेजपोश बिछाए जाते हैं..
चलो आज सिर्फ घर वालों के लिए ये सब करती हूँ. मैं विशुद्ध शाकाहारी हूँ पर घर में बाकी सब नौनवेज़ खाते हैं.
सोचा,एक ना एक दिन तो बनाना शुरू करना ही है,आज ही क्यूँ नहीं?.मैंने पहली बार फ्रोजेन चिकेन लाया और 
किसी पत्रिका में से रेसिपी देख बनाया.स्टार्टर से लेकर डेज़र्ट तक.बच्चे समझे कोई डिनर पर
आ रहा है...जब ये खेलने गए तब मैंने सफ़ेद मेजपोश और क्रौक्रीज़ भी निकाल कर लगा दी.
दोनों बेटे जब खेलकर आए तो उन्हें बताया.वे भी बड़े खुश हुए और मैंने देखा किंजल्क मेरी महंगी परफ्यूम प्लास्टिक के फूलों पर
छिड़कने लगा,जब मैंने डांटा तो बोला,'मैंने टी.वी. में देखा है,ऐसे ही करते हैं"...जाने बच्चे क्या क्या देख लेते हैं.
मैंने तो कभी नोटिस ही नहीं किया.
खैर सब कुछ सेट करने के बाद मैंने पतिदेव को फोन लगाया.उनके घर आने का समय आठ बजे से रात के दो बजे 
तक होता है.हाँ, कभी मैं अगर पूरे आत्मविश्वास से सहेलियों को बुला लूँ...कि वे तो लेट ही आते हैं तो 
वे आठ बजे ही नमूदार हो जाएंगे .या फिर कभी मैं अगर बाहर से देर से लौटूं तो गाड़ी खड़ी मिलेगी नीचे.
ये टेलीपैथी यहाँ उल्टा क्यूँ काम करती है,नहीं मालूम.
मैंने फोन पर कहा,कि आज तो बाहर चलेंगे,मैंने खाना नहीं बनाया है.वे बोले, "अरे, कहाँ इन सब बातो में पड़ी हो"..मैंने कहा "ना....when u r in rome do as romans do इसलिए खाना तो बाहर ही खायेंगे".बोले 
'मुझे लेट होगा बाहर से ऑर्डर कर लो'.मैंने कहा ,'ठीक है, पर बच्चे वेट कर रहें हैं,
सुबह कार्ड बना कर दिया है,डिनर तो साथ में ही करेंगे' फिर या तो मैं फोन करती या 
मुझे फोन करके बताया जाता कि,अभी थोड़ी देर और लगेगी.आखिर 11 बजे मैंने कहा,
'अब अगर एक बजे आयेंगे तब भी एक बजे ही सब डिनर करेंगे' और फोन रख दिया

बच्चों को तो मैंने खिला दिया ,उनका साथ भी दिया और इंतज़ार करने लगी.पति एक
बजे ही आए और आते ही बोला, "तुमने ऐसा १ बजे कह दिया की देखो एक ही बज गए"
कहीं पढ़ा था, "wokaholic hates surprises "अब वो मेरे जीवन का मूलमंत्र बन गया है

वो दिन है और आज का दिन है,सफ़ेद मेजपोश और क्रौक्रीज़ मेहमानों के आने पर ही निकलते हैं.


कुछ साल बाद एक बार 14th feb को ही मेरे बच्चों के स्कूल में वार्षिक प्रोग्राम था.दोनों ने पार्ट लिया था.
मुंबई में जगह की इतनी कमी है कि ज्यादातर स्कूल
सात मंजिलें होते हैं.स्कूल कम,5 star होटल ज्यादा दीखते हैं.क्लास में G,H तक devision होते हैं,
लिहाज़ा वार्षिक प्रोग्राम भी ३ दिन तक चलते हैं और रोज़ दो शो किये जाते हैं,तभी सभी बच्चों के माता-पिता 
देख सकते हैं.उस बार भी इन दोनों को दो शो करने थे यानि सुबह सात से शाम के ६ बजे तक. 
स्कूल में ही रहना था.मुझे फर्स्ट शो में सुबह देखने जाना था,और उसके बाद मैं घर मे अकेली रहने वाली थी.
यूँ ही झींक रही थी कि अकेली रहूंगी,खुद के लिए क्या बनाउंगी ,क्या खाऊँगी..पतिदेव ने दरियादिली 
दिखाई और कहा, 
'मेरा ऑफिस रास्ते में ही है,प्रोग्राम के बाद वहीँ चली आना,लंच साथ में करते हैं'.मैंने चारो तरफ देखा,
ख़ुदा नज़र तो नहीं आया पर जरूर आसपास ही होगा,तभी यह चमत्कार संभव था,वरना ऑफिस 
में तो बीवी का फोन तक उठाना मुहाल है. 
और यहाँ लंच की दावत दी जा रही थी.जरूर पिछले जनम में मैंने गाय को रोटी खिलाई होगी.
खैर प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद मेरी सहेली ने मुझे ऑफिस के पास ड्रॉप कर दिया और हम पास के 
एक रेस्टोरेंट में गए.वहाँ का नज़ारा देख तो हैरान रह गए.पूरा रेस्टोरेंट कॉलेज के लड़के लड़कियों से खचाखच भर हुआ था.
हम उलटे पैर ही लौट जाना चाहते थे पर हेड वेटर ने this way sir ...please this way कह कर रास्ता रोक रखा था.
पति काफी असहज लग रहें थे,मुझे तो आदत सी थी.मैं अक्सर सहेलियों के साथ इन टीनेजर्स के भीड़ के बीच CCD 
में कॉफ़ी पी आती हूँ.
बच्चों के साथ ' Harry Potter ' की सारी फ़िल्में भी देखी हैं.मुझे कोई परेशानी नहीं थी.पर नवनीत का चेहरा देख ,
ऐसा अलग रहा था कि इस समय 'इच्छा देवी' कोई वर मांगने को कहे..तो यही मांगेंगे कि 'मुझे यहाँ से गायब कर दें'.
वेटर हमें किनारे लगे सोफे की तरफ चलने का इशारा कर रहा था.पर नवनीत के पैर जैसे जमीन से चिपक से गए थे.
मुझे भी शादी के इतने दिनों बाद पति के साथ कोने में बैठने का कोई शौक नहीं था,पर सुबह से सीधी बैठकर पीठ अकड सी गयी थी,सोफे पर फैलकर आराम से बैठने का मन था.शायद नवनीत मेरा इरादा भांप गए और दरवाजे के पास छोटी सी 
एक कॉफ़ी टेबल से लगी कुर्सी पर ही बैठ गए,जैसे सबकी नज़रों के बीच रहना चाहते हों.वेटर परेशान था,
'सर इस पर खाना खाने में मुश्किल होगी',...'नहीं..नहीं हमलोग कम्फर्टेबल हैं..जल्दी ऑर्डर लो.'

मूड का तो सत्यानाश हो चुका था.और पूरे समय गुस्से में थे, बीच बीच में बोल पड़ते
,'इन बच्चों को देखो,कैसे पैसे बर्बाद कर रहें हैं:..माँ बाप बिचारे किस तरह पसीने बहा कर पैसे कमाते हैं और इनके शौक देखो'.वगैरह..वगैरह...मैंने चुपचाप खाने पर ध्यान केन्द्रित कर रखा था.ज्यादा हाँ में हाँ मिलाती तो क्या पता कहीं 
खड़े हो एक भाषण ही ना दे डालते वहाँ.वेटर ने डेज़र्ट के लिए पूछा तो उसे भी
डांट पड़ गयी,'अरे टाईम कहाँ है, जल्दी बिल लाओ"..
जब बाहर निकल, गाड़ी में बैठी तो नाराज़गी का असली कारण पता चला,उन्हें लग रहा था,कि सब सोच रहें होंगे 
वे भी ऑफिस से किसी के साथ लंच पर आए हैं.मन तो हुआ कह दूँ कि,'ना..जिस तरह से आप सामने वाली दीवार घूर रहें थे और चुपचाप खाना खा रहें थे,सब समझ गए होंगे हमलोग पति-पत्नी ही हैं.'...
या फिर कहूँ 'ठीक है अगली बार से पूरी मांग भरी सिंदूर और ढेर सारी चूड़ियाँ पहन कर आउंगी ताकि सब समझ जाएँ 
कि आपकी पत्नी ही हूँ.'पर शायद उनके ग्रह अच्छे थे,ऑफिस आ गया.और मेरी बात मुल्तवी हो गयी.
दूसरे दिन सहेलियों को एक दूसरे से पता चला और सबके फोन आने शुरू हो गए,सबने चहक का पूछा ,"'क्या बात है...सुना,पति के साथ लंच डेट पर गयी थी,कैसा रहा?'..और मेरा पूरा अगला दिन सबको ये किस्सा सुनते हुए बीता.आज यहाँ भी सुना दिया."


कहानियों , संस्मरणों में कहीं मिठास है तो कहीं सीख , कहीं ख़ामोशी तो कहीं चीखें ..... पाठक इस ब्लॉग से 
एक आत्मीयता पाते हैं . 
कुछ ख़ास लिंक्स आपके लिए -

कहानी 'छोटी भाभी' की

आयम स्टिल वेटिंग फॉर यू, शची (लघु उपन्यास) 14 किश्तें


आखिर कब तक ??

कौन तय करेगा...क्या लिखना सार्थक है..और ...

उम्र की सांझ का, बीहड़ अकेलापन


पन्ने पन्ने कई लोग मिलते हैं , बस उन्हें पलटते जाने की ज़रूरत है .... चलिए इस शक्सियत के 
सम्मान में एक कहानी और उतार दूँ यहाँ ...........

किसिम किसिम के किस्से

इसके बाद आए दिन के हालात -

दो चीज़ें सोचा था जिंदगी में कभी अकेले नहीं कर पाउंगी....अकेले किसी रेस्टोरेंट में जाना...
या फिर अकेले कोई फिल्म देखना. लगता था दोनों ही चीज़ें कभी भी इतनी जरूरी नहीं होंगी कि 
उनके बिना काम ना चल सके. कभी किसी को रेस्टोरेंट में अकेले चाय-कॉफी पीते या खाना खाते देखती 
तो उस पर तरस ही खाती कि बेचारा पता नहीं किस मजबूरी के तहत अकेले बैठा है रेस्तरां में . 
किसी 'बेचारी' को काफी दिनों तक अकेले देखने का मौका मिला भी नहीं था.
जब कभी अकेले शॉपिंग के लिए जाती हूँ तो लौटते समय बच्चों के लिए कुछ पैक करवाना ही होता है
(ये टैक्स हर माँ को देना पड़ता है...बच्चे चाहे कितने बड़े हो जाएँ..पर माँ के घर आने पर पूछते ही हैं.
."क्या लाई मेरे लिए.?"..) 
पार्सल का इंतज़ार करते दुखते पैर पास पड़ी कुर्सी पर बैठने को मजबूर तो कर देते...
पर नज़र इधर उधर दौड़ती रहती..'कोई परिचित देख ले तो क्या सोचेंगे कि अकेले बैठ कर खा रही है' .
{जैसे कोई गुनाह कर रही है :)} ) 
इसलिए मैं टेबल की तरफ करीब-करीब पीठ करके बैठती कि कोई ये ना समझ
ले, मेरा यहाँ कुछ खाने का इरादा है ( वैसे कोई ऐसा समझ भी लेता तो क्या...
कोई पैसे उन्हें तो नहीं देने होते :)}.
पर इस बेवकूफ मन का क्या कहें कुछ भी उटपटांग सोचता है....
वैसे शुक्र है कि मन ही बेवकूफ है...दिमाग नहीं
{अब ये मुगालता भी सेहत के लिए कोई नुकसानदेह नहीं :)} .
एक बार अपनी मुम्बई वाली सहेलियों से भी पूछा क्यूंकि ये सब पहले जॉब में थी. 
बच्चों की देखभाल के लिए
स्वेच्छा से नौकरी छोड़ी है...सोचा इन्हें तो कभी ना कभी अकेले किसी रेस्तरां में चाय के घूँट भरने ही पड़े होंगें .
पर इन सबने भी बहुत सोचा...और फिर बताया...'ना ऐसा मौका तो नहीं आया कभी..कलीग साथ होते ही थे.'
लड़के/पुरुषों के लिए यह कोई ख़ास बात नहीं...पर हम महिलाओं के लिए जरूर बहुत अलग सा अनुभव है.
जब आकाशवाणी जाना शुरू किया...तब भी लौटते हुए स्टेशन से एक सैंडविच और कॉफी लेती और 
लोकल ट्रेन में चढ़ जाती.(जिसकी गाथा मैं यहाँ लिख चुकी हूँ. ) आकाशवाणी जाने के रास्ते में एक 
कैफे पड़ता है....वहाँ कॉफी की इतनी स्ट्रॉंग खुशबू आती है..कि कदम जिद्दी बच्चे सा अड़ जाते और 
उन्हें ठेल कर वहाँ से हटाना पड़ता. एक दिन हुआ यूँ कि सुबह की रेकॉर्डिंग थी और हम महिलाएँ..
घर के सारे काम सही समय पर सुचारू रूप से पूरा कर देंगी..अपनी मैचिंग इयर रिंग्स..बैंगल्स..
सैंडल..सबके लिए हमारे पास समय होगा...बस नहीं होगा
समय, तो कुछ उदरस्थ करने का . हर महिला के लिए ये काम बस सेकेंडरी ही नहीं ..
 अंतिम स्थान पर होता है .
( महिलाओं की इस लापरवाही पर एक पोस्ट कब से लिखने की सोच रखी है ) .
तो मैं अपनी बिरादरी से अलग कैसे हो सकती हूँ. सारे काम निबटाए...और कुछ खाने का वक़्त तो बचा 
ही नहीं..किसी तरह एक बिस्किट मुहँ में डाल पानी पिया और निकल पड़ी. हमेशा की तरह...
रेकॉर्डिंग लम्बा खींच गया..और मेरे पेट में चूहे कबड्डी-खो-खो...सब एक साथ खेलने लगे. 
आकाशवाणी भवन से निकली तो इस बार तो बस कदम उस 
कैफे के सामने चिपक ही गए..मैने भी उनका कहा नहीं टाला. और एक ग्रिल्ड सैंडविच और कॉफी ली. 
सेल्फ सर्विस थी. सो एक ट्रे में कॉफी और सैंडविच सजाए एक खाली टेबल ढूंढ कर बैठ गयी.
पहले तो अपनी मोबाइल निकाल थोड़ी देर तक उसे घूरने का नाटक किया..फिर धीरे से इधर उधर नज़र दौडाई
तो पाया सब अपने में गुम हैं...यहाँ मुंबई में किसी को फुरसत नहीं कि देखे बगल वाले टेबल पर कोई क्या कर
 रहा है ...{बस मुझ अकेले को छोड़ कर :) } और किसी महिला का अकेले कॉफी पीना भी उनके लिए कुछ 
अनहोनी नहीं थी. अब मैने जरा कॉन्फिडेंस से सर उठा कर मुआयना करना शुरू किया तो भांति भांति के 
दृश्य मिले. बिलकुल बगल वाली टेबल पर एक लद्धड़ सा आदमी..मतलब कि मैली सी सिंथेटिक शर्ट 
( अब या तो उसका रंग ही ऐसा था या फिर उसे शर्ट बदलने का मौका नहीं मिला होगा) ...
धूसर से रंग की पैंट और पैरों में चप्पल पहने, चेहरे पर थोड़ी उगी दाढ़ी और बिखरे बाल लिए बैठा था. 
पर उसके आजू-बाजू में दो कमाल की ख़ूबसूरत बलाएँ बैठीं थीं. ब्लो ड्राई किए हुए बाल..कानों में, कंधे छूते 
लम्बे इयर रिंग्स, शॉर्ट ड्रेस और बित्ते भर की ऊँची सैंडल...बता रही थी, दोनों या तो कोई मॉडल हैं 
या मॉडल बनने का सपना संजोये हुए हैं. और दोनों लडकियाँ झुक कर उस आदमीसे जिस 
तरह बात कर रही थीं...मुझे लगा वो जरूर मॉडल को-ऑर्डिनेटर होगा या फिर कोई फोटोग्राफर होगा...
तभी वे उसे इतना भाव दे रही थीं.कैफे के आस-पास ही दो मशहूर कॉलेज हैं...'जय हिंद कॉलेज' और 'के.सी.
कॉलेज ' (तमाम बौलीवुड के सितारे यहाँ के स्टुडेंट रह चुके हैं ). उनके स्टुडेंट्स का तो यहाँ होना लाज़मी ही था.
बस रूप-रंग से ही सब भारतीय दिख रहे थे...वरना पहनावा और बोली तो पश्चिमी ही था. लड़के थ्री फोर्थ में और
लडकियाँ बस केप्री..या स्कर्ट में थीं.यानि कि जींस भी यहाँ ओल्ड फैशन में शुमार हो गया था. एक लड़के और
लड़की हाथ में हाथ डाले आए (वेरी कॉमन साइट )..लड़का ऑर्डर करने गया और इसी बीच उस लड़की ने बड़ी 
सफाई से गले तक के अपने टॉप को धीरे से खिसका कर ऑफ शोल्डर कर लिया.और फिर नज़रें घुमा
कर चारों तरफ देखने लगी कि लोग उसे नोटिस कर रहे हैं या नहीं..मैने झट अपनी नज़र दूसरी तरफ फेर ली.
और कई बार हम देख कर ये सोचते हैं कि पैरेंट्स ऐसे कपड़े पहन कर घर से निकलने कैसे देते हैं.?
एक टेबल पर दो लड़के और एक लड़की बैठे थे. उसमे एक तो गर्लफ्रेंड बॉयफ्रेंड थे..क्यूंकि उनका PDA
( Public display of affection )चल रहा था लैपटॉप पर झुके दोनों कुछ देख रहे थे....{अब लैपटॉप का स्क्रीन
मुझे नहीं दिखा :)} दूसरा लड़का उदासीन सा सडक निहार रहा था...पर लैपटॉप उसी का था क्यूंकि बीच बीच में
दोनों प्रेमी उस से कुछ पूछते...वो लैपटॉप अपनी तरफ कर ठीक कर देता और फिर...फिर उनकी तरफ खिसका
वीतराग सा बाहर देखने लगता...मुझे लगा ..ये बस एक्टिंग कर रहा है..और उसके कान खड़े हैं..दोनों की बात
सुनने के लिए.पास में ही हाईकोर्ट भी है..तो वकीलों का दिख जाना भी मामूली बात है. दो वकील अपना काला
कोट पहने..जबकि उसे उतारकर हाथों में ले सकते थे. बहुत गर्मी नहीं थी..पर सर्दी भी नहीं थी. दोनों जन एक
टेबल पर उत्तर-दक्षिण की तरफ मुहँ करके बैठे थे. अब या तो दोनों विरोधी वकील थे ..या फिर कोर्ट में बहस
करने के बाद vocal chord को आराम देना चाहते थे या फिर...स्ट्रेटेजी सोचने में .... या फिर कौन सा झूठ कैसे
बोला जाए यह तय करने में व्यस्त थे (वकीलों से क्षमायाचना सहित...खाली दिमाग का महज एक 
खयाल भर है).पर जितनी देर बैठे रहे...एक शब्द नहीं बात की आपस में.
मेरी ही तरह एक अकेली लड़की ने एक पूरी टेबल घेर रखी थी. एक तरफ बैग पटका हुआ था...और कुछ 
कागज़ बिखरे हुए थे...वो कागज़ पर लिखे जा रही थी..अब या तो कोई जर्नलिस्ट थी या कोई स्टुडेंट...
पर अच्छा लग रहा था...आज के जमाने में भी किसी को कलम से यूँ कागज़ रंगते देख. पर सबसे 
ख़ूबसूरत नज़ारा था..बीच वाली मेज का...तीन सत्तर से ऊपर की पारसी महिलाएँ...स्कर्ट पहने थीं. ..
कंधे तक बाल सलीके से कंघी किए हुए थे.एक बाल भी अपनी जगह से इधर-उधर नहीं था. 
चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था..पर आँखें चमक रही थीं. होठों पर लिपस्टिक और सुन्दर सी 
चप्पलें थी पैरों में. तीनों कॉफी-पेस्ट्रीज़ -बिस्किट के साथ लगातार बातें किए जा रही थीं. 
अब या तो तीनो फ्रेंड थीं...या रिश्तेदार..पर पूरे कैफे में यही तीनो सबसे ज्यादा एन्जॉय कर 
रही थीं. मैने बड़ी मुश्किल से एक फोटो लेने की इच्छा पर काबू पाया...वे लोग बिलकुल भी मना नहीं करतीं. 
पर मुझे बीच में घुसकर उनकी बातों का तारतम्य तोडना..गवारा नहीं हुआ.
सोनल रस्तोगी की टिप्पणी ने ने याद दिलाया तो याद आया...एक लड़की का जिक्र भूल ही गयी थी...जो लॉंग
स्कर्ट पहने थी...स्लीवलेस टॉप और गले में लम्बी सी मोटे मोटे मोतियों की माला. ठीक एंट्रेंस के सामने वाली
टेबल पर एक मोटी सी किताब लिए बैठी थी..पर नज़रें किताब पर नहीं , दरवाजे से लगी थीं ...किसी के इंतज़ार
में थी..और जब वो शख्स आया तो उसने काफी बातें सुनाईं होंगी क्यूंकि वो लड़का हंस हंस कर सफाई दिए जा
रहा था ....ऐसा लगता था जिस हिसाब से उसे डांट पड़ती...उस हिसाब से उसकी बत्तीसी दिखती :)
एक नज़ारा और देखने को मिला...अपने उत्तर -भारत का आम नज़ारा. लड़की देखने-दिखाने का अब मुंबई में
रहते हैं,तो क्या..किसी लड़की को I Luv U बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाए तो माता-पिता को ये कवायद तो
करनी ही पड़ेगी. पहले मुझे कुछ समझ नहीं आया....कुछ लड़के-लडकियाँ..महिलाएँ...आये और जोर जोर से
बातें करते हुए, एक टेबल पर बैठ गए. कुछ मिसफिट से लग रहे थे,इस माहौल में ..मुझे लगा या तो ये लोग 
मुंबई घूमने आए हैं...या फिर शॉपिंग के लिए आए होंगे..कॉफी की तलब यहाँ खींच लाई होगी. थोड़ी देर बाद 
उनमे से एक लड़की उठी...और मेरे पीछे की तरफ गयी वहाँ से एक लड़की को साथ ले अपने टेबल पर 
चली गयी. तब मैने देखा..पीछे तरफ माता-पिता के साथ वह लड़की पहले से बैठी हुई थी. 
अब ये लोग मेरे सामने थे...लड़की कुछ भी नहीं बोल रही थी...बस मुस्कुरा रही थी. 
वे लोग भी कुछ ज्यादा बातें नहीं कर रहे थे...बस उसे घूरे जा रहे थे. थोड़ी देर बाद सारी मण्डली 
उठ कर लड़की के माता-पिता के पास चली गयी और लड़की-लड़के को वहाँ छोड़ दिया....अब
मुझे पता चला कि उनमें लड़का यानि भावी दूल्हा कौन है...बहुत ही कमउम्र का लड़का था..कानों में डायमंड 
और एम्ब्रॉयड्री वाली शर्ट पहन रखी थी. बिजनेसमैन की फैमली का लग रहा था..वरना नौकरीपेशा वाले 
घरों में इतनी जल्दी शादी नहीं करते. पर वे दोनों कुछ भी बात ही नहीं कर रहे थे...उनकी सामने पड़ी 
 कॉफी भी ठंढी होती जा रही थी...उन दो वकीलों की तरह दोनों उत्तर-दक्षिण की तरफ नहीं देख 
रहे थे बल्कि लड़की की नज़रें टेबल घूर रही थी और लड़के की सड़क. थोड़ी देर बाद एक लड़की 
(जरूर लड़के की बहन होगी..) ने लड़के से इशारे से पूछा..
.और लड़के ने हाँ में सर हिलाया...लड़की(भावी दुल्हन) की पीठ उस तरफ थी..इसलिए वो ये इशारे नहीं 
देख सकी.पर लड़की के माता-पिता वाले टेबल पर सबके चेहरे खिल गए. 
लड़की के पिता..तुरंत काउंटर की तरफ चले गए..(शायद पेस्ट्री लाने ) . अब लड़की से पूछा गया था या नहीं..
ये तो पता नहीं लग पाया..पर हो सकता है...
लड़की से पहले से ही पूछ लिया गया हो..
अब पहले वाला ज़माना तो रहा नहीं कि लड़की की राय लेना जरूरी ना समझा जाए. थोड़ी देर बाद वे लोग 
आकर लड़की/लड़के को भी अपनी टेबल पर ले गए.मुझे भी लगा..इस सुखद नोट पर यहाँ से उठ जाना चाहिए.
कोई बुरा नहीं रहा..अकेले कॉफी पीने का अनुभव...यानि की फिर से अकेले पी जा सकती है,कॉफी .. :)

19 टिप्पणियाँ:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

.
बहुत प्रसनता की बात है यह तो …
आदरणीया रश्मि रविजा जी ,

हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं स्वीकर करें !

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

.
बहुत प्रसनता की बात है यह तो …
आदरणीया रश्मि रविजा जी ,

हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं स्वीकर करें !

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

"सारे कम्बीनेशन सही हैं
धूसर की साँझ
अँधेरा कमरा
ये उदास मन
और काली काफी"
और फिर रश्मि जी की कलम से निकली हुई बोलती हुई कहानियां :)
रश्मि जी ये लास्ट वाली कॉम्बिनेशन आपने डाली नहीं थी...:)
तहे दिल से बधाई...:)

Sadhana Vaid ने कहा…

जब ब्लॉग बुलेटिन में दो दो रश्मियों का प्रखर प्रकाश विस्तीर्ण हो जाता है तो ऐसा लगता है कई सूर्य उदित हो गये हों ! रश्मि रविजा जी मेरी बेहद प्रिय लेखिका हैं ! उनकी हर कहानी, हर कविता, हर आलेख मैं बहुत चाव से पढती हूँ ! आज उन्हें बुलेटिन में देख कर हार्दिक प्रसन्नता हुई ! उन्हें बहुत बहुत बधाई एवं रश्मिप्रभा जी आपका बहुत बहुत आभार उनके इतने खूबसूरत व्यक्तित्व व कृतित्व से नए सिरे से परिचित कराने के लिये !

शिवम् मिश्रा ने कहा…

वाह आज तो डबल धमाका है ... दो दो रश्मि दी ... जय हो ... आप दोनों को मेरा प्रणाम !

Nityanand Gayen ने कहा…

बहुत- बहुत बधाई

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं स्वीकर करें !

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

समग्र. धन्‍यवाद.

amrendra "amar" ने कहा…

bahut bahut badhai

Saras ने कहा…

मैं साधना जी की बात से पूरा इतेफाक रखती हूँ ...उनकी हर बात सौ फीसदी सही है ...DITTO लिख दूं उनकी टिपण्णी के आगे तो सही होगा ...सच में रश्मि को पहली बार जब मैंने पढ़ा .......तो बस पढ़ती रह गयी .....It is indeed a well deserved appreciation......Rashmi you really deserve this award......GONGRATULATIONS AND A HUGE ROUND OF APPLAUSE ...!!!!!!!

Khushdeep Sehgal ने कहा…

Rashmi Behna ki kirti ki rashmiyan aise hi phailti rahen...bahut bahut badhai...

Jai Hind...

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

रश्मि रविजा जी कहती हैं - उनके भीतर राक्षसी प्रवृत्ति है ...वो कहानियों के गंध सूंघती फिरती है...
:-)
सचमुच उनको पढ़ना आनंददायी है....उनका पाठकों से इंटरेक्शन भी लाजवाब है...
ढेरो शुभकामनाएं और स्नेह रश्मि जी को.
आपका बहुत आभार रश्मि दी.
सादर
अनु

निवेदिता श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत बहुत बधाई ......

rashmi ravija ने कहा…

ओह!!..इतना सारा मेरे बारे में लिखा है....पढ़ते..झिझक सी हो रही है..:):)
इतनी बारीकी से मेरे ब्लॉग का अवलोकन किया...आज तो सचमुच निशब्द हूँ...बहुत बहुत शुक्रिया
वैसे कहानियाँ , ज्यादा लोग लिखते ही नहीं...जज लोगों के पास choice ही कहाँ थी..:):)
सभी टिप्पणीकर्ताओं का भी शुक्रिया

वाणी गीत ने कहा…

हम भी इनके प्रशंसकों में से हैं .
रश्मि रविजा को बहुत बधाई !

सदा ने कहा…

आप दोनो ही बधाई की पात्र हैं एक का लेखन सर्वश्रेष्‍ठ तो दूजे का प्रस्‍तुतीकरण बेमिसाल ... अनंत शुभकामनाएं

सुज्ञ ने कहा…

बधाई और शुभकामनाएँ !!

GGShaikh ने कहा…

"तसलीम परिकल्पना सम्मान - 2011" रश्मि रविजा जी को ...

रश्मि रविजा जी का और उनके लेखन कर्म का, उनके विचारों का सम्मान एक सही और समय सर का सम्मान है...
इतनी प्रतिबद्धता से और इतने परिश्रम से आजकल कम ही लिखते होंगे ब्लोग पर ...अपने काम को और अपने ब्लॉग को रश्मि जी
ने स्वयं सम्मान दिया है और एक पहचान भी दी है ...उनके लेखन में समाज का दायरा दकियानूसी बिल्कुल भी नहीं है...एक प्रगतिशील 'टच' लाइन दर लाइन उनके लेखन में हमें मिलती है.किसी भी सामाजिक मुद्दे पर वह लिखती है तो बडी ही संयत्ता से लिखती है और सहृदयता से भी लिखती है. एक तरह की सही संलग्नता और अपनत्व और निजता लिए वे यहाँ अपने ब्लोग पर उपस्थित होती है. वे इतनी संयत है कि मजाल है जो उनके भावों का जाम जरा सा भी इधर या उधर छलक जाए...

हिंदी साहित्य से वे शुरु से ही जुड़ी रही है और 'धर्मयुग' 'सारिका' के समय से ही उनका रुझान साहित्य की और रहा है. उनका लेखकिय आत्मविश्वास भी यही कारण से इतना पुस्त व सबल है. विषय कोई सा भी हो वह उसे 'अपनी सी बात' बनाकर हम तक संप्रेषित करती है...उनकी रुचि का दायरा भी काफी वैविध्यतापूर्ण है, उनकी फिल्म समीक्षा भी उम्दा होती है, कभी-कभी तो उनकी समीक्षा पढ कर लगे कि वह किसी भी व्यावसायिक फिल्मी पत्रकार को पीछे छोड दे...सामाजिक सरोकार भी उनके वास्तवलक्षी, यथार्थ और सार्थक होते हैं और उनकी संवेदना भी समाज में सताए हुए प्रताडितों व लचारों के प्रति सहज व ममत्व लिए होती है... और प्रताडितों , सताए गए लोगों के पक्ष में भी वह सहज खड़ी दिखाई देती है...फिर बीच-बीच में आ जाता उनका ज़िंदगी के सुखों व ख़ुशियों से भरा-भरा उनका 'सखी मंडल'. सखी मंडल एक अपने से सामूहिक स्नेह का परिचायक है....जो हमें प्रभावित करता है आनंद और उर्जा भी प्रदान करता है...जहां कुथली, निंदा व इर्षिया का कोई स्थान नहीं...रश्मि जी का औदार्य, उनके दिल
की सच्चाई और उनका सकारात्मक सुलझापन ही यहाँ कारगर है. तदूपरांत उन्हों ने एक सक्षम संपादक की हैसियत से अपने ब्लॉग
पर अपने दोस्तों के आलेखों को भी बडी ही सूझ और परख के साथ स्थान दिया है...सस्नेह प्रस्तुत किया है और दोस्तों के इन आलेखों
की गुणवत्ता का अनुमान भी उन्हें पढ़कर ही लगाया जा सकता है कि उनका चयन कितना सही होता है.

रश्मि जी इस सम्मान की और हमारे धन्यवाद की पूरी हक़दार है और उन्हें पुरस्कृत करने वालों ने भी उनके काम कीसही समीक्षा व कद्र की है और उन्हें न्यायौचित सम्मान देने का समय सर जो निर्णय लिया जिसका लिए वे हमारे भी धन्यवाद केपूरे हक़दार हैं.

राजीव तनेजा ने कहा…

बहुत बहुत बधाई....

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