ऐ जाते वर्ष ठहरो,
अभी सुनाना है बहुत कुछ
रोक लो घड़ी की सुइयों को
कुछ एहसासों को रेखांकित कर दो ...
2018 की अवलोकन यात्रा में प्रस्तुत है आज
अच्छा हुआ शेक्सपियर मौका देख कर १६१६ में ही निकल लिए. अगर आज होते और भारत में रह रहे होते तो देशद्रोही ठहरा दिये गये होते और कुछ लोग उन्हें बोरिया बिस्तर बाँध कर पाकिस्तान जाने की सलाह दे रहे होते. ये भी कोई बात हुई कि कह दिया ’नाम में क्या रखा है, गर गुलाब को हम किसी और नाम से भी पुकारें तो वो ऐसी ही खूबसूरत महक देगा’. इतनी बुरी बात करनी चाहिये क्या?
मैने भी एक बार कोशिश की थी जब मंचों से गज़ल पढ़ना शुरु की. तब मन में आया था कि अपने नाम ’समीर’ में से एक शब्द साईलेन्ट मोड में डाल देते हैं और खुद को मीर पुकारेंगे तो शायद मंच लूट पायें. बाद में मंच बुजुर्गों की सलाह मान कर नाम मे ’स’ पर से साइलेन्सर हटाया और गज़ल के व्याकरण समझने में मन लगाया. सिर्फ मीर और गालिब नाम रख लेने से आप मीर और गालिब सा लिखने लगेंगे, इससे फूहड़ और क्या सोच हो सकती है.
उस रोज पान की दुकान पर तिवारी जी बोले कि अब अपने घंसु को ही देख लो. माँ बाप ने कितनी उम्मीद से नाम घनश्याम दास रखा था मगर वे रह गये घंसु के घंसु. सुबह खाने को रुपये हैं तो शाम जेब खाली. घनश्याम दास नाम रख देने से कोई अपने आप बिड़ला तो नहीं हो जाता. सारा जीवन गुजार दिया घंसु ने मगर साईकल को ही गाड़ी कहते रह गया.
घंसु भी भला कहाँ चुप रहते. उखड़ पड़े कि ऐसे में आप ही कौन कमाल किये हैं? नाम के बस तिवारी हो और रोज शाम सूरज ढलते ही दारु और मुर्गा दबाते हो. सोचते हो कि अँधेरा हो गया अब भगवान क्या देख पायेगा कि आप क्या कर रहे हो? वहाँ ऊपर सब नोट हो रहा है. नाम तो आपका बदला जाना चाहिये.
तिवारी जी क्या जबाब देते. अब वे मूँह में पान भरे धीरे से मुस्कराते हुए कह रहे हैं कि शेक्सपियर सही कहे थे ’नाम में क्या धरा है..’
घंसु बोले कि तिवारी जी कुछ उधार मिल जाता तो सोच रहा हूँ एक चाय का ठेला खोल लूँ. नाम में तो वाकई कुछ नहीं धरा. अब काम में क्या धरा है वो अजमा कर देख लूँ. कौन जाने कल को देश की बागडोर ही हाथ लग जाये?
तिवारी जी उधार तो तब दें जब खुद के पास कुछ हो, अतः जैसा कि होता है सलाह ही दे दी. देख घंसु, देश में लाखों चाय वाले हैं. उस लाईन से देश की बागडोर पाने में काम्पटिशन बहुत है. उससे अच्छा तो एक बार फिर नाम बदल कर ललित, नीरव, विजय टाईप कुछ रख ले और बैंक से लम्बा कर्जा मांग. मांगने में तो तेरी क्षमताओं के आगे वो निश्चित ही फीके हैं, फिर भी कर्जा लेकर देश के बाहर भाग ही लिये. तो तू भी कोशिश करके देख ले. मिल जाये तो विदेश निकल लेना वरना तो विदेश जाना इस जन्म में तेरे भाग्य में नहीं.
घंसु असमंजस में है कि बात देश की बागडोर संभालने की थी और तिवारी जी कर्जा लेकर विदेश भाग जाने की बात कर रहे हैं?
तिवारी जी समझा रहे हैं कि तूँ असमंजस में न प़ड़. एक बार कर्जा लेकर विदेश निकल कर तो देख. जो देश की बागडोर संभालते हैं न, तब तू उनकी बागडोर संभालेगा. कुछ समझा? अब घंसु की मोटी बुद्धि भी समझ चुकी थी कि आगे क्या करना है?
मगर एक बात फिर भी नहीं समझ आई कि शहर का नाम बदलने से क्या हासिल? क्या इलाहाबाद का नाम बदल प्रयागराज कर देने से इलाहाबाद हिन्दु हो गया या पहले मुसलमान था? क्या संगम स्नान अब और अधिक पाप धो डालेगा? क्या गंगा अपने आप साफ हो जायेगी? क्या सुलाकी के लड्डु अब ज्यादा मीठे हो जायेंगे? क्या कुँभ की महत्ता बढ़ जायेगी? क्या पुराने दबंगों की दबंगाई अब नये दबंगो के हाथ चली जायेगी? किसी भी क्या का क्या जबाब होगा, कौन जाने मगर यह हर सरकार के हथकंड़े हैं. किसी के किसी वजह से, तो किसी के किसी के किसी वजह से.
मुझे अपना बचपन का साथी रमेश याद आ रहा है. जब वो होमवर्क न करके लाता तो मास्साब की मार से बचने के लिए वो उनको अन्य बातों में उलझाता कि मास्साब मुझे फलाने ने गाली बकी. फलाने ने मारा. मास्साब उसी को सुलझाने में ऐसा उलझते कि असल मुद्दा होम वर्क पूछने का वक्त ही नहीं मिल पाता. रमेश मेरी ओर देख मंद मंद मुस्कराता और धीरे से आँख मारता.
बाकी तो आँख मारने का अर्थ निकालने में आप समझदार हैं ही!
आग लगाई संस्कारों में
सारी शिक्षा भुला गुरु की
दाढ़ी तिलक लगाये देखो
महिमा गाते हैं कुबेर की !
डर की खेती करते,जीते
नफरत फैला,निर्मम गीत !
करें दंडवत महलों जाकर,बड़े महत्वाकांक्षी गीत !
खद्दर पहने नेतागण अब
लेके चलते , भूखे खप्पर,
इन पर श्रद्धा कर के बैठे
जाने कब से टूटे छप्पर !
टुकुर टुकुर कर इनके मुंह
को,रहे ताकते निर्बल गीत !
कौन उठाये नज़रें अपनी , इनके टुकड़े खाते गीत !
धन कुबेर और गुंडे पाले
जितना बड़ा दबंग रहा है
अपने अपने कार्यक्षेत्र में
उतना ही सिरमौर रहा है
भेंड़ बकरियों जैसी जनता,
डरकर इन्हें दिलाती जीत !
पलक झपकते ही बन जाते सत्ताधारी, घटिया गीत !
जनता इनके पाँव चूमती
रोज सुबह दरवाजे जाकर
किसमें दम है आँख मिलाये
बाहुबली के सम्मुख आकर
हर बस्ती के गुंडे आकर
चारण बनकर ,गाते गीत !
हाथ लगाके इन पैरों को, जीवन धन्य बनाते गीत !
लोकतंत्र के , दरवाजे पर
हर धनवान जीतकर आया
हर गुंडे को पंख लग गए
जब उसने मंत्री पद पाया
अनपढ़ जन से वोट मांगने,
बोतल ले कर मिलते मीत !
बिका मीडिया हर दम गाये, अपने दाताओं के गीत !
निर्दोषों की हत्या वाले
डाकू को,साधू बतलाएं
लच्छे दारी बातों वाले
ठग्गू को विद्वान बताएं
लम्बी दाढ़ी, भगवा कपडे,
भीड़ जुटाकर गायें गीत !
टेलीविज़न के बलबूते पर,जगतगुरु बन जाते गीत !
खादी कुरता, गांधी टोपी,
में कितने दमदार बन गये !
श्रद्धा और आस्था के बल
मूर्खों के सरदार बन गये !
वोट बटोरे झोली भर भर,
देशभक्ति के बनें प्रतीक !
राष्ट्रप्रेम भावना बेंच कर,अरबपति बन जाएँ गीत !
- पेड़ का एक तना. शाखों की मुकम्मल छाव. और कुछ शाखों के टूटने के ज़ख्म भी. चाहतो का एक बड़ा संसार जिसमे ज़ब्त हैं बहुत बहुत जीने की ख्वाहिशे. कुछ बारिश की बूंदे. कुछ छिटकती चांदनी. ज़िन्दगी की धूप. बहना. गिरना. उठना. चलना और चलते चलते छलकते जाना.
- जब जवाब पहचान हो
- और सवाल सुनना नागरिकता
- तब पहचानना कि किसके सवाल
- यज्ञ के अश्व है
- जो रौंद देना चाहते है दसो दिशाएं
- तुम समझना कि अंधी-सत्ता की महत्वाकांक्षा
- दुनिया को समझना नही
- दुनिया को सुलझाना है
- जैसे जीवन को सुलझा देती है विस्मृति
- मिथकों को इतिहास
- प्रेम को सम्बन्ध
- और कविता को तुम.
- मुझे विश्वास है समझने में
- जैसे बाढ़ को समझती है नदी
- ज्वार को समंदर
- स्मृति को मिथक
- और कवि को कविता
- सुलझा कर
- तान दी जाती है प्रत्यंचाएं
- समेट ली जाती है पतंगें
- और खारिज कर दी जाती है सारी पहेलियाँ
- केवल इसीलिए
- मेरे मन की दिशा वर्जित है
- तुम्हारे प्रश्नों के लिए
- तुम्हारे अश्वो के लिए
- तुम्हारे इश्वर के लिए.
2 टिप्पणियाँ:
लाजवाब अवलोकन एक माह बीत गया अभी लगता है जैसे शुरु ही है हुआ।
ब्लॉग बुलेटिन के समस्त आदरणीय चर्चाकारों, रचनाकारों को नववर्ष 2019 की हार्दिक मंगलकामनाएँ।
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