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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

2018 ब्लॉग बुलेटिन अवलोकन - 20


अब छोड़ो भी - 

    इतना आसान है क्या ! अलकनंदा सिंह जी के इस ब्लॉग में शब्दों एक अद्भुत धार है। तो चल पडी इस धार पर, और एक नुकीली धार उठा लाई ताकि हम इससे अवगत हो सकें। 

 

शब्‍दों का चयन सोच समझकर करना चाहिए, क्‍योंकि रोष में बोला गया एक भी घातक शब्‍द तलवार से भी ज्‍यादा भयानक वार कर सकता है और शब्‍द वाण से लक्षित व्‍यक्‍ति  (यदि वह निर्दोष है तो) का जीवन हमेशा के लिए बदल जाता है। हालांकि बोलने वाले को इसका अहसास भी नहीं होता कि उसने किस तरह एक समूचे व्‍यक्‍तित्‍व की हत्‍या करने का अपराध किया है। हद तो तब होती है जब शब्‍दवाण चलाने वाला स्‍वयं को ''सही-सिद्ध'' करने में लग जाता है।  

दक्षिण भारत का ऐसा ही एक मामला कल सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुना गया, जिसमें एक महिला द्वारा एक युवती को ''वेश्‍या'' कहने पर उस युवती ने आत्‍महत्‍या कर ली। सुप्रीम कोर्ट ने आत्‍महत्‍या के लिए उकसाने में दोषी महिला रानी उर्फ सहायारानी की सजा को बरकरार रखा और ''शब्‍दों की ताकत बताने वाली'' उक्‍त टिप्‍पणी की।

कहने को तो वेश्‍या एक ऐसा शब्‍द है जिसे बोलने में माइक्रो सेकेंड ही लगते हैं मगर ये एक समूचे वजूद को तिलतिलकर मारने के लिए अहिंसक दिखने वाला हिंसक तरीका है, इस एक शब्‍द में बोलने वाले की मानसिकता और उसके लक्ष्‍य का भलीभांति पता तो चल ही जाता है।

कम से कम में ज्‍यादा घातक वार करने वाला ये शब्‍द एक स्‍त्री के लिए कई चुनौतियां एकसाथ पेश करता है जिसमें सबसे कठिन चुनौती होती है स्‍वयं को निर्दोष साबित करना और इससे स्‍वयं को मुक्‍त करा पाना। इसकी सफाई में कहा गया एक-एक शब्‍द उसको झकझोर कर रख देता है। चारित्रिक दोष बताने वाला ये एक शब्‍द अक्सर बिना सुबूतों के ही अपनी प्रचंड मारक शक्‍ति से वार करता है। इससे जूझते हुए कुछ महिलाएं सामना करती हैं तो कुछ किसी सबक के रूप में लेती हैं और कुछ ऐसी भी होती हैं दिल पर ले बैठती हैं, जैसा कि उक्‍त मामले में सामने आया है।

निश्‍चित ही आत्‍महत्‍या करने वाली युवती वेश्‍या नहीं थी और ना ही उसकी ऐसी प्रवृत्‍ति रही होगी, तभी तो वह इस शब्‍द को सहन नहीं कर पाई और आत्‍मघात कर बैठी परंतु ऐसे शब्‍दवाणों को चलाने वालों से जूझना कहीं ज्‍यादा सही होता, बजाय इसके कि आत्‍महत्‍या कर ली जाये। किसी भी चारित्रिक दोष के आरोप से स्‍वयं को मुक्‍त करा पाना आसान नहीं होता, स्‍वयं को बार-बार तोलना पड़ता है। 

साइकोलॉजिकल थेरेपी में इस बात का ज़िक्र भी है कि जो लोग शब्‍दों के ज़रिए दूसरों को दुख पहुंचाने की मंशा रखते हैं, दरअसल वे स्‍वयं नकारात्‍मक सोच वाले और असुरक्षित होते हैं। इसी से ही वे इतना डर जाते हैं कि घातक शब्‍दों का सहारा लेते हैं ताकि कहीं कोई उनकी कमजोरी को ना समझे।

मेरा मानना तो ये है कि जो व्‍यक्‍ति अपने ही चरित्र व सुरक्षा को लेकर डरा होता है, उसी का दिमाग ढंग से नहीं सोच पाता और किसी कमजोर पर अपनी इसी सोच का ज़हर उगल देता है। जब यह सोच किसी महिला पर उड़ेली जाती है तब ''वेश्‍या'' कहना किसी को गरियाने के लिए सबसे आसान है।

कम से कम दूसरों को पराजित करने के लिए चारित्रिक दोष जताने वाले शब्‍दों से तो बचा ही जाना चाहिए वरना परिणाम ऐसे ही होते हैं, जिनके बारे में अब सुप्रीम कोर्ट को बताना पड़ रहा है कि शब्‍दों की मार सबसे भयानक होती है। शब्दों की ताकत, तलवार और गोली की ताकत से अधिक होती है।

अब हमें सोचना होगा कि समाज में अपनी ताकत दिखाने के लिए अपशब्‍दों का सहारा न लिया जाए क्‍योंकि अपशब्‍द किसी की जान भी ले सकते हैं और सुप्रीमकोर्ट की सुनवाई का आधार भी बन सकते हैं।

शब्‍दों की मारक क्षमता निश्‍चित तौर पर किसी भी हथियार से ज्‍यादा घातक होती है इसलिए शब्‍दों का सही चयन न सिर्फ बहुत से विवादों से बचाता है बल्‍कि आपके संस्‍कारों का भी परिचायक होता है।

शायद ही किसी को इस बात में संदेह हो कि शालीन शब्‍दों का प्रयोग करके भी अपनी बात पूरी ताकत के साथ कही जा सकती है। जरूरत है तो बस अपने शब्‍दों पर और उन शब्‍दों में निहित शक्‍ति को समझने की।

1 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

कलम रुकती नहीं है ना ही मोहताज होती है टिप्पणी की।

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