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शनिवार, 8 दिसंबर 2018

2018 ब्लॉग बुलेटिन अवलोकन - 7


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 सार्थकता की तलाश में बढ़ती गिरिजा कुलश्रेष्ठ  किसी मंत्र जाप की तरह निरंतर अग्रशील हैं।  मोतियों के मनके उनके उद्देश्य हैं, और शंखनाद उनकी कलम  ...  
उनके ब्लॉग हैं, 



मुझे याद नहीं कि मैं नानी के पास कब आई . मैंने सुना था कि मेरे छोटे भाई ने बहुत जल्दी आकर मुझे माँ की गोद से खोह दे दी थी . तब मेरा ठिकाना नानी की गोद ही था .
छोटी सी नदी के किनारे बसे गाँव में नानी का छोटा सा कच्चा घर था .नानी उसे लीप पोतकर चमकाए रखतीं थीं . हमारे चार पाँच खेत थे जिनमें हर मौसम की फसल होती थी . बाजरा ,गेहूँ , चना ,मूँग ,मटर, गन्ना ,मूँगफली ,..सब्जियाँ ..आसपास ही आमों के कुंज थे और नदी किनारे एक बाग जिसमें बेशुमार फूलों व फलों वाले पेड़ थे . वसन्त ऋतु यानी फरवरी-मार्च में जब कचनार की डालियाँ सफेद गुलाबी और बैंगनी रंग के फूलों से लद जातीं ,अमराइयाँ बौर से सज जातीं और शिरीष मोगरा नीबू आदि के फूलों की महक चारों ओर फैल जाती तब अपना वह गाँव किसी परीलोक सा लगता था .नानी खूब मेहनत करती थीं .उनकी एक गाय थी जिसे वे गोमती कहकर पुकारती थीं . सुबह शाम वे गोमती के लिये खेत से चारा काट लातीं . दूध दुहतीं , घर के सारे काम करतीं साथ ही मेरा भी बहुत ध्यान रखतीं थीं . तब मेरे आससपास खुशियाँ ही खुशियाँ थीं .दबाब का तो कोई काम ही नही था . माँ से दूर होने का तब मुझे कोई मलाल नही था .
 अम्मा (मैं नानी को अम्मा कहती थी ) मुझसे कभी नाराज नहीं हो सकतीं ,चाहे कुछ भी हो जाए ---मैं यही कहा करती थी . ऐसा कहना निराधार नही था . जहाँ तक मुझे याद है , पहले नाराज होना तो दूर मैंने अम्मा  की आँखों में हल्की सी रुखाई तक न देखी थी . ऐसे कितने ही मौके आए जब वे नाराज हो सकतीं थीं बल्कि उन्हें नाराज होना ही चाहिये था , पर नहीं हुई . मिसाल के तौर पर एक घटना बताना काफी होगा क्योंकि वह मेरी सचमुच एक बड़ी गलती थी और बड़ा नुक्सान भी .
हुआ यह कि एक सुबह अम्मा दही मथ रही थीं और वहीं उनके पास बैठ कर मुझे यह देखना बहुत रोचक लग रहा था कि रई (मथानी) में लिपटी रस्सी के दोनों सिरों को बारी बारी खींचते हुए अम्मा बड़े मजेदार तरीके से हिल रही हैं . रई घरर मरर की आवाज के साथ पूरे वेग से दही में घूम रही थी और तूफानी गति से घूमता हुआ दही मठा बन रहा था और मक्खन मोटे मोटे बुलबुलों और कणों के रूप में ऊपर तैरने लगा था . अम्मा दही जमाने में और दही से मक्खने निकालने में बड़ी कुशल थीं . उन्हें मालूम रहता था कि दही जमाने के लिये दूध कितना गरम होना चाहिये . फिर दही से मक्खन निकालने के लिये कब , कितना और कैसा पानी  डालना है . अगर जरा भी इधर से उधर हुआ तो मठा से मक्खन निकालने के लिये टेढ़ी खीर , लोहे के चने चबाना जैसे मुहावरे खूब काम में लाए जा सकते हैं . अम्मा के सामने ऐसी स्थिति मैंने कभी नही आते देखी . खैर....अम्मा रई चलाने में तल्लीन थी कि तभी उन्हें बाहर से बसन्ती माईं ने पुकारा . वहाँ मेरा ननिहाल होने के नाते गाँव की हर महिला मेरी मामी या मौसी थी और हर बूढ़ी अम्मा नानी होती थी .और पुरुष लोग मामा .हम लोग गाँव में बड़ों को रिश्ता लगाकर ही पुकारते हैं .चाहे कोई भी हो . बसन्ती जमादारिन को मेरी माँ बसन्ती भौजी कहती थी इसलिये मैं बसन्ती माईं . बसन्ती एक लम्बी , दुबली पतली ,बड़ी बड़ी भावभरी आँखों वाली साँवली और बहुत ही विनम्र महिला थी (है) . उनके बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है सो कभी अलग से ..
 हाँ तो वे जब बसन्ती माईं ने पुकारा तो अम्मा दही की नाद की रखवाली मुझे सौंपकर बाहर चली गईं . 
“आखिर दही से इतना मक्खन कैसे निकल आता है ? और रई की रस्सी खींचते हुए अम्मा कमर हिलाते हुए इस तरह हिलती क्यों हैं ? “ 
ये सवाल मेरे मन में बहुत दिनों से दही की तरह ही उमड़ घुमड़ रहे थे . उस दिन मौका पाकर मैंने अपने सवाल का उत्तर खुद ही निकालना चाहा . मैंने जल्दी से मथानी की रस्सी के दोनों छोर पकड़े , जो नानी की कोहनियों के समानान्तर थे  जबकि मेरे सिर से ऊपर थे . छोरों को पकड़ने के लिये मुझे पंजे भी उकसाने पड़े पर मैंने हिम्मत नहीं हारी और पूरी ताकत से रस्सी के दोनों छोर खींचते हुए अम्मा की तरह हिलने की कोशिश की और तभी गजब हुआ कि झटके के साथ दही की नाद लुढ़क गई . चार-पाँच लीटर दूध का अधमथा दही आँगन में हिलोरें लेने लगा . मेरी जान ही सूख गई . आज मेरी जमकर पिटाई होने से कोई रोक नही सकता . काम ही ऐसा किया था मैंने . पर ताज्जुब कि अम्मा खास नाराज नही हुई .वे  दही फैलने हुए नुक्सान पर दुखी जरूर हुई और मुझे बस हल्के से झिड़कते हुए आइन्दा ऐसा न करने की सीख दी  .
इसी तरह कई बार जाने अनजाने मैंने गबरू को खूँटे से खोल दिया था . वह शैतान उछलकर कुलाँचे भरता हुआ अपनी माँ कजरी का पूरा दूध पी गया था इस तरह नानी कई बार चाय से भी वंचित रह गईँ थीं पर मुझे सिर्फ समझाया डाँटा तो कभी नहीं . वे जब नदीं में नहाकर पूजा अर्चना करके घर चलने को कहतीं , मैं सीप शंख बटोरती रहती थी तब वे किनारे बैठकर मेरे चलने का इन्तजार करतीं बिना किसी झल्लाहट के . अम्मा की वह उदारता और ममता का सम्बल पाकर मैंने खुद को उनके प्रति किसी आशंका या भय से मुक्त कर रखा था .
वही अम्मा एक दिन मुझसे नाराज होगईं . नाराज भी ऐसी वैसी नहीं बहुत ही जबरदस्त . यहाँ तक कि वो माँ या पिताजी के पास भेजने तैयार होगईं थीं . 
वास्तव में उनके बर्ताव में कुछ रूखेपन का अनुभव तो मुझे उसी दिन से होने लगा था जिस दिन से मेरा नाम स्कूल में लिखाया गया था .
एक दिन ,जब पहली बारिश के दूसरे दिन जब खेत जुताई के लिये हल बैलों से सज गए थे और बौछारों की थपकी से धूल-मिट्टी मेरी तरह ही सुबह देर तक मीठी नीद में सोगई लग रही थी , नानी ने स्कूल लेजाकर मेरा नाम लिखा दिया . और जैसा कि मैंने बताया ,उसी दिन से नानी के बर्ताव में थोड़ी कसावट आने लगी थी . जो नानी मुझे धूप फैलने तक नही जगाती थीं वे चिड़ियों की चहचहाहट के साथ ही झिंझोड़ने लगीं—
“उठ लाली , स्कूल नही जाना क्या . उठ जा .पहली घंटी बजने ही वाली है .
स्कूल की पहली घंटी बहुत लम्बी होती थी और बेहद खौफनाक .शिकारी की बन्दूक की आवाज जैसी . जिस तरह बन्दूक की आवाज से पक्षी उड़ जाते हैं उसी तरह घंटी से मीठे मीठे सपने उड़ जाते थे जो खासतौर पर उसी समय आते थे . मैं सोचती थी कि नानी ने स्कूल का झंझट बेकार ही पाल लिया है . वे खुद बतातीं थीं कि वे कभी स्कूल नही गई पर ऐसी कौनसा काम था जो उन्हें नहीं आता . रेशम के धागे से वे कपड़े पर सुन्दर बेल-बूटे बना सकती थीं . चिन्दियों से गुड्डे-गुड़िया और मिट्टी से हाथी ,बैल ,घरोंदे और कई तरह की मूर्त्तियाँ बनाना उन्हें खूब आता था . और अलग अलग चीजों से पंखे, दरी,टोकरी रस्सी आदि तमाम चीजें भी वे घर में ही बना लेतीं थीं . उन्हें ढेरों कहावतें, मुहावरे , चौपाइयाँ और दोहे कण्ठस्थ थे. हर त्यौहार , विवाह और जन्मोत्सव के गीत आते थे . गाँवभर में उनकी जो इज्जत थी वह किसी पढ़े-लिखे की क्या होगी तो फिर पढ़ना क्यों जरूरी है , नानी क्यों मुझे व्यर्थ ही स्कूल खदेड़ने लगी हैं ?
“तू अभी नही समझेगी बेटी .”---यह कहकर वे मेरे सारे तर्कों को हवा में रुई की तरह उड़ा देतीं थीं . खैर उनके कहने से मैं स्कूल जाने भी लगी थी .लेकिन जल्दी ही मुझे समझ में आने लगा कि स्कूल के नाम से जो ऊब होती है ,उसके कुछ ठोस आधार होते हैं . हालाँकि उनका मेरी कहानी से कोई निकट सम्बन्ध नही है क्योंकि मुझे स्कूल में ऊब तो कभी नही हुई फिर उस समय कक्षा में मेरी स्थिति बंजर में उग आई फसल जैसी थी . उसकी वजह थी मेरी पक्की वर्णमाला और सौ तक की गिनती जो माँ ने रात में सोने से पहले बिस्तर पर  लेटे-लेटे ही रटवा दी थी . वास्तव में मेरी कहानी में संघर्ष तो जब तब निरीक्षण के लिये आने वाले इंस्पेक्टर महोदय से शुरु हुआ पता नहीं क्यों ,कोई बुरा अनुभव न होने के बावजूद इन महोदय के नाम से ही पेट में गुड़गुड़ होने लगती थी . वे बच्चे दूसरे थे जो भूत ,चुड़ैल या डाकू के नाम से डरते थे , मुझे आतंकित करने के लिये इंस्पेक्टर का नाम ही काफी था पर इतना भी नही कि उससे भी बड़ा स्कूल से भागने का खतरा उठाते . पर एक दिन वह करना पड़ गया .
हुआ यह कि एक दिन कुन्दन ने बताया कि आज स्कूल में चीरा (टीका) लगाने वाले आ रहे हैं . यहाँ आपका यह जानना बहुत जरूरी है कि सुई लगवाना मेरे बचपन का सबसे डरावना प्रसंग रहा है . उतना ही जितना पटाखे और बन्दूक . तो जब मैंने सुना कि टीका लगाने वाले आ रहे हैं तो मुझे मजबूरन कुन्दन और लाली की शरण लेनी पड़ी . ये दोनों बहिन भाई बड़े खुरापाती थे .पढ़ने में जितने फिसड्डी थे शरारतों में उतने ही अव्वल . किसी की जेब में मेंढ़क का बच्चा रख देना , हाथ में करेछ की फली थमा देना ( जिससे भयंकर खुजली होती है ) बालों में चिरचिटा लगा देना जैसे कामों के लिये वे खूब पिटते थे . स्कूल से भागने में तो नम्बर वन थे .नानी ने उनसे दूर रहने की मुझे सख्त हिदायत दे रखी थी पर मैं क्या करती . टीका वाले डाक्टर से बचने का उपाय उनसे बेहतर कोई नहीं जानता था .  
“ऐसा करें कि घर से बस्ता लेकर चलें तो स्कूल के लिये पर स्कूल न जाकर बाग में पहुँचे ...कहो कैसी लगी मेरी बात ? “
कुन्दन की यह सलाह मुझे अच्छी लगी . क्योंकि इसमें खतरे की संभावनाएं कम थीं .  अम्मा समझेंगी कि हम स्कूल में हैं .और स्कूल में पंडित जी को इतने सारे बच्चों के बीच क्या पता चलेगा कि कौन आया और कौन गया ..
इस तरकीब से हमारी मुश्किल आसान हो गई .हमारे दिन बड़े मजे में बीतने लगे . सोचो कि कहाँ स्कूल की चहारदीवारी में भेड़-बकरियों की तरह घिरे रहना और कहाँ खुली हवा में दौड़ना , बगीचे में पेड़-पौधों व कई तरह के फूलों की रौनक के बीच खेलना ,फूल इकट्ठे करना ,कचनार के बीज , जो हमारे खेल में सिक्कों का काम चलाते थे ,चुनना , चिड़ियों की पहचान करना और पेड़ों के नाम रखना ...बाग में हमें जो आनन्द मिल रहा था हमें स्कूल से भागने और झूठ बोलने में जरा अफसोस नहीं था .
अम्मा खुश तीं कि उनकी लाड़ली खुशी खुशी रोज स्कूल जा रही है . वे काकाजी ( मेरे पिताजी )को बताना चाहती थीं कि वे अनपढ़ हैं तो क्या हुआ ,पढ़ाई की समझ है उनमें ..खुश होकर वे मुझे दूध दही के अलावा ताजा मक्खन भी देने लगीं .
काकाजी सुदूर गाँव में शिक्षक थे और मुझे अपना साथ ले जाना चाहते थे और मुझे पढ़ाने के लिये अपने साथ ले जाना चाहते थे पर अम्मा ने उन्हें पूरा भरोसा देते हुए मुझे रोक लिया .
पर जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा है कि –उघरे अन्त न होइ निबाहू ...एक दिन हमारी चतुराई का भंडाफोड़ होना था सो होगया . हुआ यूँ कि अम्मा को कुछ जरूरी सामान लेने ‘हाट’ ( साप्ताहिक ग्रामीण बाजार )जाना था . सोचा कि मुझे भी उनके साथ जाना अच्छा लगेगा सो मुझे लेने स्कूल पहुँच गईं .
"वह तो कई दिनों से स्कूल में नहीं दिखी . पता चला कि वह लाली और कुन्दन के साथ बाग में खेलती रहती है . मैं खुद आपको बताने वाला था .--पण्डित जी बोले-- पढ़ाई में ठीक ठाक है लेकिन इसी तरह चलता रहा तो ,कुछ कहा नही जा सकता ..अम्मा जी आप उसे मास्टर साहब के पास भेज दीजिये वरना....".
इस 'वरना' शब्द ने ही जरूर अम्मा के मन में आशंकाएं पैदा करदीं होंगी . तभी तो वे तमतमाई हुई सीधी बाग में जा पहुँचीं और बिना कुछ पूछे बताए मुझे लगभग खींचती हुई घर लाईं . कस कर दो तमाचे लगाए और एक कठोर फैसला भी सुना दिया –"अब तुझे लल्लू ( दामाद के लिये स्नेह व सम्मान सूचक सम्बोधन ) के पास भेजती हूँ . वे ही पढ़ाएंगे . मेरे वश की बात नहीं ...देखो तो लड़की की बात , स्कूल जाने की बजाय बगीचे में वह भी लाली और कुन्दू के साथ ..!"
"बाप रे ..!" अम्मा के अन्दर यह गुस्सा कहाँ छुपा पड़ा था .मैं दहशत में डूब गई . जिस तरह तेज धमाके से कान सुन्न हो जाते हैं ,मेरे दिमाग की वही हालत थी . मैं विमूढ़ सी अम्मा को देखे जा रही थी जिनका सुन्दर कोमल चेहरा बहुत कठोर और कुरूप सा होगया था और लगातार बड़बड़ा रही थीं –
"हे भगवान ..बित्ते भर की लड़की मेरी आँखों में धूल झोंक रही है ...लोग क्या कहेंगे कि माँ पढ़ी-लिखी बाप मास्टर पर बेटी नानी की तरह अनपढ़ ...ना मैं नहीं रखूँगी अपने पास ..".
अम्मा की बातों से यकीन होगया कि यहाँ रहना इतने ही दिनों का है .इसके साथ ही मुझे काकाजी का पहाड़ी स्कूल याद आया जहाँ कमरे में दो दिन में ही मैंने दस बिच्छू .और काटने दौड़ती बतखें देखी थीं . वहाँ न गोमती गाय थी न हरेभरे खेत थे न ऐसी गलियाँ थीं और न नदी थी .और लाड़-प्यार तो काकाजी के बगल से भी नी गुजरा था कभी . बस गिनती रटो ,पहाड़े याद करो . अम्मा जैसा लाड़-प्यार और कहाँ ..
"अम्मा !मेरी अम्मा! अब मैं स्कूल छोड़कर कभी कहीं नही जाऊँगी . और मन लगाकर पढ़ूँगी .तुम जैसा कहोगी वैसा ही करूँगी पर मुझे यही रहना है तुम्हारे पास ." –यह कहते हुए मैं रोने लगी तो अम्मा ने मुझे छाती से चिपका लिया और खुद रोने लगी .
"मन लगाकर पढ़े तो मैं क्यों तुझे डाँटू ?और क्यों कहीं भेजूँ? ..पढ़ना लिखना बहुत जरूरी है बेटा ."
यह कहते हुए उन्होंने मेरे आँसू पौंछे . मुझे दो सन्तरे और बहुत सारा प्यार किया मेरी हथेलियाँ चूमी .
आज मैं खुद दादी नानी बन चुकी हूँ पर बचपन की यह घटना आज भी ताजी है . और यह भी कि खुद अनपढ़ होकर भी अम्मा कितनी सजग थीं मेरी पढ़ाई के लिये .

3 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी का लेखन अपने आप में एक मील का पत्थर है। सुन्दर अवलोकन।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

कथा कहानी हो या कविता और खण्ड काव्य, गिरिजा दी कि कलाम का कोई सानी नहीं। इतना सधा हुआ लेखन कि कसौटी कोई भी हो, ये खरी उतरती हैं। शब्दों का चयन, संदेश का सम्प्रेषण, शिल्प का गठन... चमत्कार से कम नहीं। अपने आप में एक संस्थान हैं और इतना कुछ लिखने के बाद भी मैं स्वयं को छात्र मानता हूँ।
रश्मि दी, आपका बहुत बहुत आभार।

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

रश्मि दी , आप पोस्ट को उजाले में ले आईं .उसे आदरणीय सुशील जी व सलिल भाई का वरद हस्त भी मिल गया और मुझे खबर भी न हुई इसी से मेरी लापरवाही का पता चलता है .इसे सलिल भैया से बेहतर और कौन जानता है . आप सबने मुझे जहाँ बिठा दिया है ,पता नही उस लायक मैं हूँ या नही या कि यहाँ कैसे और कब तक बैठ सकूँगी . और क्या कहूँ ..

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