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सोमवार, 17 दिसंबर 2018

2018 ब्लॉग बुलेटिन अवलोकन - 16

ब्लॉग लिखनेवाले ऐसे भी शख्स हैं, जिन्हें ज़रूरत नहीं होती किसी से कुछ कहने की, लोग उन्हें ढूंढ लेते हैं, और पढ़ते ही हैं।  उनके पास वक़्त नहीं होता टिप्पणियों को पढ़ने का,  ... मुझे पढ़ने की लगन है, तो पढ़ती जाती हूँ, भले ही मेरे पढ़ने की आहट न हो। 
[ रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी ]

हथकढ़

 
किशोर चौधरी 



होता तो कितना अच्छा होता कि हम रेगिस्तान को बुगची में भरकर अपने साथ बड़े शहर तक ले जा पाते पर ये भी अच्छा है कि ऐसा नहीं हुआ वरना घर लौटने की चाह खत्म हो जाती. 
  
अक्सर मैं सोचने लगता हूँ कि 
क्या इस बात पर विश्वास कर लूँ? 

कि जो बोया था वही काट रहा हूँ. 
* * *

मैं बहुत देर तक सोचकर 
याद नहीं कर पाता कि मैंने किया क्या था?

कैसे फूटा प्रेम का बीज 
कैसे उग आई उस पर शाखाएं 
कैसे खिले दो बार फूल 
कैसे वह सूख गया अचानक?
* * *

कभी मुझे लगता है 
कि मैं एक प्रेम का बिरवा हूँ 
जो पेड़ होता जा रहा है. 

कभी लगता है 
कि मैं लकड़हारा हूँ और पेड़ गिरा रहा हूँ. 
मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता?

कि मैं एक वनबिलाव हूँ 
और पाँव लटकाए, पेड़ की शाख पर सो रहा हूँ. 
* * *

प्रेम एक फूल ही क्यों हुआ?
कोमल, हल्का, नम, भीना और मादक. 

प्रेम एक छंगा हुआ पेड़ भी तो हो सकता था 
तक लेता मौसमों की राह और कर लेता सारे इंतज़ार पूरे. 
* * *

जब हम बीज बोते हैं 
तब एक बड़े पेड़ की कल्पना करते हैं. 

प्रेम के समय हमारी कल्पना को क्या हो जाता है?
* * *

प्रेम 
उदास रातों में तनहा भटकता 
एक काला बिलौटा है. 

उसका स्वप्न एक पेड़ है 
घनी पत्तियों से लदा, चुप खड़ा हुआ. 

जैसे कोई महबूब बाहें फैलाए खड़ा हो. 
* * *

मैं सपने में गश्त करता हूँ 
फिर लौट आता हूँ. 

सुबह जागते ही पाता हूँ 
कि कई गलियों की धूल पैताने पड़ी है. 

जैसे प्रेम के बारे में सोचते ही 
वह ख़ुद हमारे पास चला आता है. 
* * * 
मैं कभी-कभी खो जाता हूँ 
बीती बातों की याद में 
लौटते ही मुझे इस बात पर विश्वास होने लगता है 
कि मुझे उससे प्रेम था ही नहीं. 

वरना कभी तो उसकी याद से मुंह कड़वा होता 
कभी तो भर आती आँख भी. 

मैं फिर खो जाता हूँ कि 
तब हम दोनों क्यों एक दूजे के पास बैठे रहते थे 
क्यों बेचैनी होती थी कि कब मिलेंगे. 

6 टिप्पणियाँ:

गोपेश मोहन जैसवाल ने कहा…

बहुत सुन्दर रश्मि प्रभा जी. एक बहुत ख़ूबसूरत शेर याद आ गया -
'मुझे ये डर है, तेरी आरज़ू न मिट जाए,
बहुत दिनों से तबियत मेरी, उदास नहीं.'
और अगर तबियत उदास नहीं है तो जान लीजिए कि प्रेम-प्रीत का बिरवा मुरझा गया है.

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

क्या बात है। आज एक और नायाब पन्ना।

Meena Bhardwaj ने कहा…

"हथकढ़" ब्लॉग वास्तव में अपने आप में नायाब है अपने आप में अलग सा जिसे पढ़ना सुखद अनुभव है ।

Anuradha chauhan ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

Meena sharma ने कहा…

किशोर चौधरी जी के ब्लॉग पर कई रचनाएँ पढ़ीं। कुछ रचनाएँ पहले भी पढ़ी हैं हथकढ़ पर। एकदम अलग सा स्वाद है। यही लगा हमेशा ऐसी रचनाएँ पढ़ना है तो उनमें डूबने के लिए तैयार रहो। बहुत शुक्रिया रश्मि प्रभा जी। सादर।

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