विन्ध्य पर्वत श्रणियों के बीच
बसे, नैसर्गिक
सुन्दरता से निखरे बुन्देलखण्ड में संस्कृति, लोक-तत्त्व, शौर्य-ओज, आन-बान-शान की अद्भुत छटा के दर्शन
होते ही रहते हैं. यहाँ की लोक-परम्परा में कजली का अपना ही विशेष महत्त्व है. महोबा
के राजा परमाल के शासन में आल्हा-ऊदल के शौर्य-पराक्रम के साथ-साथ अन्य बुन्देली रण-बाँकुरों
की विजय की स्मृतियों को संजोये रखने के लिए कजली मेले का आयोजन आठ सौ से अधिक वर्षों
से निरंतर होता आ रहा है. सावन महीने की नौवीं से इसका अनुष्ठान शुरू होता है. घर-परिवार
की महिलाएँ मिट्टी लाकर उसे छौले के दोने (पत्तों का बना पात्र) में भरकर उसमें गेंहू, जौ आदि को बो देती हैं. नित्य पानी-दूध
चढ़ाकर उसका पूजन किया जाता है. इसके पीछे उन्नत कृषि, उन्नत उपज होने की कामना छिपी रहती
है. सावन की पूर्णिमा को इन पात्रों (दोने) में बोये गए बीजों के नन्हें अंकुरण (कजली)
को निकाल पात्रों को तालाब में विसर्जित किया जाता है. उन्नत उपज की कामना के लिए इन्हीं
कजलियों का आदरपूर्वक आदान-प्रदान करके शुभकामनायें दी जाती हैं.
महोबा के राजा परमाल की पुत्री
चंद्रावलि अपनी सहेलियों के साथ प्रतिवर्ष कीरत सागर तालाब में कजलियों को सिराने
(विसर्जन करने) जाया करती थी. सन 1182 में दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान ने राजकुमारी
के अपहरण की योजना बनाई और तय किया कि कजलियों के विसर्जन के समय ही आक्रमण करके उसका
अपहरण कर लिया जाये. पृथ्वीराज चौहान जानते थे कि महोबा के पराक्रमी आल्हा और ऊदल की
कमी में जीत आसान होगी. पृथ्वीराज चौहान के पुत्र सूरज सिंह और सेनापति चामुंडा राय
ने महोबा को घेर लिया. रानी मल्हना ने आल्हा-ऊदल को महोबा की रक्षा करने के लिए तुरंत
वापस आने का सन्देश भिजवाया. सूचना मिलते ही आल्हा-ऊदल अपने चचेरे भाई मलखान के साथ
महोबा पहुँचे और पृथ्वीराज की सेना पर आक्रमण कर दिया. इस भीषण युद्ध में आल्हा-ऊदल
के अद्भुत पराक्रम, वीर अभई के शौर्य के चलते पृथ्वीराज चौहान की सेना हार कर रणभूमि
से भाग गई. इस युद्ध में राजा परमाल का पुत्र रंजीत सिंह तथा पृथ्वीराज चौहान
का पुत्र सूरज सिंह वीरगति को प्राप्त हुए.
ऐतिहासिक विजय प्राप्त करने के
बाद राजकुमारी चंद्रावलि और उसकी सहेलियों के साथ-साथ राजा परमाल की पत्नी रानी मल्हना
ने महोबा की
अन्य महिलाओं संग भुजरियों (कजली) का विसर्जन किया. इसी के बाद पूरे महोबा में रक्षाबंधन
का पर्व धूमधाम से मनाया गया. तब से ऐसी परम्परा चली आ रही है कि बुन्देलखण्ड में रक्षाबंधन
का पर्व भुजरियों का विसर्जन करने के बाद ही मनाया जाता है. आज भी इस क्षेत्र में बहिनें
रक्षाबंधन पर्व के एक दिन बाद भाइयों की कलाई में राखी बाँधती हैं. यहाँ के लोग आल्हा-ऊदल
के शौर्य-पराक्रम को नमन करते हुए बुन्देलखण्ड के वीर रण-बाँकुरों को याद करते हैं.
आइये
अब चलते हैं आज की बुलेटिन की ओर.
++++++++++
6 टिप्पणियाँ:
नमन उस शौर्य और पराक्रम को आज जिसके मायने अलग हो गये हैं । सुन्दर बुलेटिन सेंगर जी ।
सुन्दर जानकारी कजली की...हमारी लघुकथा शामिल करने के लिए आभार !
भुजरियों (कजली) के बारे बहुत अच्छी ऐतिहासिक जानकारी के साथ सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार!
भुजरियों को कजली भी कहा जाता है यह जानकारी नई और अच्छी है . मुरैना सबलगढ़ के बीच भी भुजरिया मेला एक बड़ा उत्सव होता है .रचनाओं का चयन भी अच्छा लगा .
आभार आपका , रचना को सम्मान देने के लिए !!
मेरी लघु कथा हवेली को सम्मिलित करने का आभार
एक टिप्पणी भेजें
बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!