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रविवार, 27 मार्च 2016

एक अधूरी ब्लॉग-बुलेटिन

जब हम बहुत छोटा थे त एगो कहानी हमारे कोर्स के किताब में था. एगो लड़का एक रोज अपने इस्कूल से अपने कोनो साथी का पेंसिल अपने साथ ले आया. जब घर में उसकी माँ देखी त ऊ लड़का बताया कि उसके सहपाठी का है. माँ कुछ नहीं बोली. फिर धीरे-धीरे ऊ लड़का रोज एक न एक चीज इस्कूल से लेकर आने लगा अऊर उसकी माँ कभी कुछ नहीं बोली. समय बीतता गया अऊर देखते देखते ऊ लड़का जवान हो गया. अब ऊ छोटा-छोटा चीज नहीं चोराता था, बल्कि बड़ा-बड़ा चोरी करने लगा था. खाली चोरी भी नहीं, उसके अपराध के लिस्ट में हर तरह का अपराध सामिल था.

एक रोज ऊ पकड़ा गया अऊर उसको हत्या के इल्जाम में फाँसी का सजा सुनाया गया. जब उससे उसका आखरी इच्छा पूछा गया तो बोला कि ऊ पना माँ से मिलकर उसको कुछ कहना चाहता है. जब उसकी माँ को बुलाया गया तो ऊ माँ के कान में कुछ बोला अऊर माँ का कान काट लिया. जब जज उसको पूछा कि ऊ कान में का बोला था, तो ऊ जवाब दिया, “हम अपनी माँ के कान में बोले कि जब हम पहिला रोज पेंसिल लेकर  आए थे इस्कूल से, अगर ओही रोज ऊ मेरा कान खींचती त आज हम फाँसी के फन्दा पर नहीं होते!”

अब ई कहानी में माँ काहे है, बाप काहे नहीं, ऊ लड़का का तर्क केतना सही है केतना गलत, ऊ लड़का का अपराधी बनने के पीछे खाली बचपन में चोराया गया पेंसिल का हाथ था या अऊर भी केतना कारन था... ई सब सवाल का जवाब ऊ कहानी में नहीं था. पढा लिखा लोग सोच सकता है, समाजसास्त्र का लोग इसका कारन खोज सकता है अऊर मनोबैग्यानिक लोग इसका बिस्लेसन कर सकते हैं. लेकिन ई कहानी भी आज बड़ा होकर बहुत जटिल हो गया है, जटिल होता हुआ अपराध के जइसा.

निर्भया काण्ड के बाद बी.बी.सी. एगो डॉक्युमेण्टरी बनाया था जिसमें निर्भया के माँ-बाप के मुँह से निर्भया के निर्मम अपराधी को जुवेनाइल कहते हुये देखाया था, जैसे: जुवेनाइल ने ये किया, जुवेनाइल ने वो किया. अइसा लगता था कि ऊ अपराधी का नाम जुवेनाइल है. उसका नाम छुपाना, अपराध छुपाना अऊर उसको सुधरने का मौका देना. वाह, कमाल है.

अब ई बात त बैग्यानिक लोग बता सकते हैं कि आदमी का दिमाग केतना उमर तक पूरा हो जाता है अऊर आदमी का चरित्र केतना उमर तक फाइनल हो जाता है. हालाँकि बहुत सा सिनेमा में देखाया गया है कि आदमी का चरित्र उसका परिस्थिति अऊर माहौल से बनता है या उसके खून के हिसाब से निर्धारित होता है, माने चोर का बेटा चोर. राज कपूर साहब ‘आवारा’ फिलिम में बताते हैं कि खराब माहौल खराब इंसान बनाता है अऊर दोसरा तरफ ‘धरम करम’ फिलिम में एही बात को उलट कर बताते हैं कि अच्छा माँ-बाप का बेटा अच्छा होता है, परिस्थिति चाहे जइसा हो.

अभी दिल्ली में डॉ. नारंग के हत्या का मामला गरमाया हुआ है. बहुत सा लोग को इसमें राजनीति देखाई दे रहा है. बहुत सा लोग ई सरकार को दोसी, अऊर ऊ सरकार  को चुस्त चौबन्द बता रहा है. हैश-टैग के जमाना में हैश-टैग क्रांति फैला हुआ है.

हम ई सोच रहे हैं कि इसमें भी दू-चार ठो जुवेनाइल सामिल है. जुवेनाइल के माय भी सामिल है. अब मीडिया, मानवाधिकार अऊर बाल मनोबैग्यानिक लोग उसको बचाने आएंगे अऊर डॉ. नारंग का मौत नारा बनकर रह जाएगा.

कभी-कभी बुझाता है कि कुछ लिखना बेमकसद रह जाता है. कोई कंक्लूडिंग रिमार्क नहीं सूझता है. त जाने दीजिये अधूरा पोस्ट छोड़ देते हैं. आप लोग समझदार हैं, सरकार सम्बेदनसील है, त कनक्लूड करिये लीजियेगा. बस इति!
                                                                                                                           सलिल वर्मा 

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अस्पताल के उस कमरे

विजय गौड़ at लिखो यहां वहां

गुरुभक्त बालक

हीरामन

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी...?

आनन्द वर्धन ओझा at मुक्ताकाश....

आओ भी

चला निर्देशक हीरो बनने !

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कहानी - विजया - जयशंकर प्रसाद

बंधन कच्चे घागों का

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भोजपुरी बैटमैन बिरुद्ध सुपरमैन

याचक नहीं हूं मैं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

हम जैसे सख्त जान भी, बरबाद हो गए ! -सतीश सक्सेना

Satish Saxena at मेरे गीत !
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11 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

अधूरी नहीं है जी पूरी से आगे की भी पूरी है जय हो । बढ़िया बुलेटिन सलिल जी ।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

माँ की गलती तो थी ही - बढ़ावा तो मिल ही गया ... !
बाकी परिवार,समाज,संगत, असीमित चाह - बहुत से कारण हैं अपराध के पीछे !
नाम छुपाना, चेहरा छुपाना तभी तक सही है, जब तक सच में संदेह हो, लेकिन जो सरेआम है, उसे क्या पर्दा लगाना।
शानदार पोस्ट

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

बचपन में मंच पर सुल्ताना डाकू नाटक देखा था ,उसमें डाकू ने माँ का कान ( या शायद नाक)यही कहते हुए काट लिया था तभी से यह बात दिमाग में जमी हुई है और वास्तव में यह सच भी है .माता पिता अच्छे संस्कार दें अच्छी परवरिश करें तो बच्चे के गुमराह होने के अवसर बहुत ही कम हों लगभग न के बराबर .आपके उठाए सवाल व्यर्थ या अधूरे हो ही नहीं सकते .

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

बचपन में मंच पर सुल्ताना डाकू नाटक देखा था ,उसमें डाकू ने माँ का कान ( या शायद नाक)यही कहते हुए काट लिया था तभी से यह बात दिमाग में जमी हुई है और वास्तव में यह सच भी है .माता पिता अच्छे संस्कार दें अच्छी परवरिश करें तो बच्चे के गुमराह होने के अवसर बहुत ही कम हों लगभग न के बराबर .आपके उठाए सवाल व्यर्थ या अधूरे हो ही नहीं सकते .

Asha Lata Saxena ने कहा…

उम्दा बुलेटिन संयोजन |
मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार |

SKT ने कहा…

मोबाईल से रोमन लिपि में लिखा होने से अटपटा लगा, सो हटा लिया!
अब लैपटॉप से...
अधिकांश पटकथाओं का अंत होता है, समापन नहीं! जिंदगी स्वयं एक ऐसी ही पटकथा है! एक बेजवाब सवाल!...आपकी यह पटकथा भी कई सवाल उठाती है जिनके मुकम्मल जवाब शायद हैं ही नहीं!!

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति
आभार!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

एक मुकम्मल बुलेटिन ... :)

Aslam Shaha ने कहा…

बहोत खूब इस तरह की। जानकारी पढ़कर बचपन की याद आजाती है, शुक्रिया।
Tech Talk Hindi

Tech 4 News ने कहा…

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R. K. ने कहा…

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