यूँ मैं जमीन पर ही कल्पना करती हूँ
जमीन पर ही जीती हूँ
पर कई बार
हौसलों की खातिर
क्षितिज से मिल आती हूँ :)
ले आती हूँ थोड़ी चिंगारी
जंगल में फैली आग से
समेट लाती हूँ कुछ कतरे
जल,वायु,अग्नि,धरती - आकाश से
जमीन पर खड़े रहने के लिए।
सूरज से वाष्पित कर अपने को
मैं आकाश से जमीन पर उतरती हूँ
गंगा बनने का हर सम्भव प्रयास करती हूँ …
क्षितिज खुले आकाश में
धरती के सीने से दिखता है
सूरज को मुट्ठी में भरने की ख्वाहिश
धरती से होती है
तो जमीनी कल्पना में ही
मुझे जमीनी हकीकत मिलती है
जमीनी ख़ुशी जमीनी दुःख
जमीन से जुड़ा ज़मीर
जमीन से उगती तक़दीर
यही मेरी सम्पत्ति है
इसी सम्पत्ति से मैं स्वयं का निर्माण करती हूँ
शिव की जटाओं से निःसृत होती हूँ
……… धरती के गर्भ में पावन गंगा सी बहती हूँ
जमीनी हकीकत जब पवित्र नहीं रह जाती
तब काल्पनिक पाताल में अदृश्य हो
शिव तांडव में प्रगट होती हूँ
न स्वयं को खोती हूँ
न स्वयं में खोती हूँ
मैं जमीनी कल्पना और हकीकत के बीच
निरंतर जागती हूँ
भयाक्रांत करती लपटों से घिरकर
अविचल
कल्पनाओं का जाप
हकीकत के तपिश में करती हूँ
हकीकत का जीर्णोद्धार
कल्पनाओं के रंगों से करते हुए
सृष्टि के गर्भ में अदृश्य कारीगरों का आह्वान करती हूँ
कल्पना और हकीकत को एकसार करने में
मैं पल पल जीती हूँ
पल पल अपने जन्म को एक काल्पनिक सार्थकता देते हुए
मैं हकीकत के ऐतिहासिक पन्नों में उतरती हूँ
कल्पना को हकीकत
हकीकत को कल्पना बनाना
- जमीन से जुड़ा मेरा प्राकृतिक उद्देश्य है
2 टिप्पणियाँ:
एक सुन्दर कविता सुन्दर सूत्रों के साथ ।
बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति।
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