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शनिवार, 26 मार्च 2016

वोटबैंक पॉलिटिक्स - ब्लॉग बुलेटिन

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र जहाँ हर पांच साल में देश की सरकार चुनी जाती है। यहाँ केंद्र और राज्य के बीच फेडरलिज़्म (संघीय) शासन प्रणाली है। यह दोनों की अंग एक दूसरे के साथ काम करते हैं। इस लोकतान्त्रिक प्रणाली का आधार 1939 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित GOIAct है। इस एक्ट में भारत को ब्रिटिश उपनिवेश माना गया और नेहरू के सत्ता हस्तांतरण के बाद उसी पर जल्दीबाजी में भारत का संविधान थोप दिया गया। ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारी स्वतंत्रता का प्रस्ताव ब्रिटिश संसद ने पारित किया था और यह स्वतंत्रता हमें लड़कर या ब्रिटिश हुकूमत को किसी युद्ध में पराजित कर नहीं मिली थी। बहरहाल लोकतंत्र की बहाली के बाद असंगठित हिंदू कभी भी किसी भी राजनैतिक दल के लिए वोटबैंक नहीं रहे। वहीँ संगठित और फतवे के आधार पर वोट देने वाले मुस्लिम कांग्रेस के वोट बैंक बने रहे। कांग्रेस ने इस वोट बैंक की राजनीति को खुलकर समर्थन दिया और यह एक आम बात हो गयी। हिन्दू में भी कई धड़े अलग अलग समुदाय के नाम से अलग होने लगे और दलित स्वयं को हिन्दू कहलवाने से झिझकने लगे। बाबा साहेब के अनुयायी यह वर्ग प्रचंड रूप से संगठित था और इस कारण जल्दी ही राजनीतिक दलों को उनका महत्त्व समझ में आ गया। यह दलित और मुस्लिम वर्ग अब भारत में सबसे संगठित वोट बैंक है और प्रत्येक राजनीतिक दल उन्हें खुद की ओर आकर्षित करने के लिए लोक लुभावन प्रलोभन देता रहा(बेवकूफ बनाता रहा)। यह कांग्रेस पोषित वोट बैंक की कौम थी सो कांग्रेस पोषित मीडिया ने भी उसके वोट बैंक बनाए रखने के लिए कवरेज के हिन्दू विरोधी तौर तरीके अपना लिए। कांग्रेस ने भी मेन स्ट्रीम मीडिया को खड़ा करने के लिए अपनी पसंद के प्यादों को खड़ा किया। इन मीडिया के प्रतिनिधि कांग्रेस के खिलाफ बहुत कम ही मौकों पर गए और मुख्य रूप से सरकारी चारण-भाट बनकर रहे। इसका नुकसान यह हुआ कि हिन्दू जो कि युगों युगों से असंगठित था वह और भी किनारे होता गया। मीडिया और कांग्रेस, सपा, बसपा जैसे राजनैतिक दल खुलकर जाति आधारित लाइन लेने लगे। खुलकर बयान आने लगे, खुलकर इमाम के फतवे आने लगे और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि मीडिया में तो पहले ही सेटिंग थी और बाकी सब "चलता है, पॉलिटिक्स है" कहकर खुद को समझा लिया गया। बांग्लादेश से वोटर लाये गए, उन्हें बसाया गया और पूरा राजनैतिक संरक्षण दिया गया। देश की जनता को इसमें कुछ भी अजीब नहीं लगा। 

तकलीफ शुरू हुई जब 2014 में मोदी का चुनाव हुआ क्योंकि इस चुनाव में पहली बार हिन्दू संगठित हुआ। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस चुनाव में भी मुस्लिम समुदाय ने भाजपा को वोट नहीं दिया था। इस चुनाव के बाद मुस्लिम नेता, कांग्रेस और मीडिया बौखला गयी क्योंकि उसकी बनी बनाई सिस्टम के बाद भी उसकी हार हुई, यह अल्पसंख्यक और जाति आधारित राजनीति करने वाले अब खुलकर अपने हिन्दू विरोधी एजेंडे पर आ गए। अब यह स्थिति है कि रोहित वेमुला के बंद कमरे में खुद की परिस्थितियों से नाखुश होकर किये गए आत्महत्या पर छः महीने चिल्लाते हैं लेकिन उन्हें मालदा नहीं दिखता। वह एक गाँव की घटना को मुस्लिम विरोधी और असहिष्णु भारत से जोड़ देते हैं लेकिन उन्हें प्रशांत पुजारी नहीं दीखता है। जेएनयू के भारत विरोधी नारे अभिव्यक्ति की आज़ादी बने लेकिन वहीँ कमलेश तिवारी के (पता नहीं क्या टिप्पणी की थी इस आदमी ने) कथित विरोध बयान पर रोना पीटना मच गया। स्थिति अब इस हद तक है की स्क्रीन काली करके पत्रकार देश के असहिष्णु होने की बात कह देते हैं लेकिन वह कभी खुद को जातिवाद से ऊपर उठा ही नहीं पाते। उन्हें इतना घनघोर विषैला बनाने वाली कांग्रेस चुप चाप सिर्फ तमाशा देखती है क्योंकि उसे पता है कि अगली बार फिर से जब अपनी आदत के अनुसार हिन्दू असंगठित होंगे तो फिर से वह उसी जातिगत राजनीति की सीढ़ी पर सत्ता प्राप्त कर लेगी। 

अभी ताज़ा उदाहरण दिल्ली के डॉक्टर नारंग का है जिन्होंने मामूली सी घटना पर अपनी जान गँवा दी। तीस पैतीस लोगों का संगठित समूह जिसमे कथित तौर पर चार नाबालिग थे और हॉकी, विकेट, बल्ले से सुसज्जित यह लोग डॉक्टर साहब की जान ले गए। आदतन मेन स्ट्रीम मीडिया (जोकि दादरी को देश के असहिष्णु होने से जोड़ रहा था) उसे अब सांप सूंघ गया होगा। अब वह तब तक इंतज़ार करेगा जब तक उसे इस वोट बैंक वाली कौम को बचाने के लिए कोई तर्क या सेटिंग नहीं मिल जायेगी। ऐसा करना उसको विरासत में मिला है तो वह करेगा ही। अब भी अगर देश की जनता नहीं चेती तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में यह वोटबैंक सब कुछ ले डूबेगा। मैं चिंतित हूँ बहुत लेकिन आप आराम से टीवी पर मैच देखिएगा, कोई फर्क नहीं पड़ता है न, सब चलता है न.... मैं बुलेटिन और पूरे ब्लॉग जगत की ओर से ऐसे जाति आधारित वोटबैंक पॉलिटिक्स की भर्त्सना करता हूँ, ऐसा राजनीतिक खेल जिसमे जनता को सिर्फ जात से जाना पहचाना जाता हो, उसे मैं परिपक्व लोकतंत्र तो नहीं ही कह सकता हूँ!!!

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8 टिप्पणियाँ:

yashoda Agrawal ने कहा…

सटीक अग्र लेख
रचनाएँ भी उत्तम कोटि की
साधुवाद

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति ।

Parmeshwari Choudhary ने कहा…

बढ़िया लेख, हमेशा की तरह . बात अब जाति वाद तक ही नहीं रह गयी है . अब दलित समाज को ब्राह्मण विरोध के नाम पर हिंदू धर्म के खिलाफ उकसा कर धर्म परिवर्तन की गम्भीर छद्म योजना के संकेत प्रकट होने लगे हैं . देश में बढ़ते अन्तर-विरोध आतंकवाद के बढ़ते खतरे का सामना बहुत कठिन कर देंगे

BS Pabla ने कहा…

क्षणिक उत्तेजना में किये गये अपराध की तुलना विशिष्ट आरोप लगाकर किये गए अपराध से नहीं हो सकती

पोस्ट शामिल करने हेतु आभार

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

सामयिक बुलेटिन देव बाबू ... आभार |

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सहमत आपकी बात से ... पता नहीं क्या होता जा रहा है इन्हें ..
आभार मुझे शामिल करने का ...

Preeti 'Agyaat' ने कहा…

पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!

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