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मंगलवार, 5 मार्च 2019

एक व्यक्तिगत चरित्र और एक सामूहिक




प्रायः हर व्यक्ति का एक व्यक्तिगत चरित्र होता है और एक सामूहिक ,
एक तरफ़ जहाँ वह अहिंसात्मक विचारों से भरा होता है, वहीं मन के अरण्य में उसके हिंसात्मक विचार योजनाओं की शक्ल बनाते हैं । 


 



Anupama Pathak 

कभी-कभार
ज़िन्दगी
लगभग ठीक-ठाक
चलती हुई
उस रास्ते ठिठक कर 
रूक जाती है
जहाँ मृत्यु ही
एकमात्र-विकल्प-सा
उपस्थित होता है
ऐसे में
आस का खग
ठूंठ पेड़ की सबसे अंतिम शाख पर बैठ
किरणों से आँख मिलाता है
कभी-कभी
जीवन में वसंत ऐसे भी आता है
कभी-कभी
जीवन से वसंत ऐसे भी जाता है

तुम देश के किस हिस्से से हो
बंदी सैनिक से पूछा गया
देश के सारे हिस्से मेरे भीतर ही तो हैं
उसने मुस्कुराकर कहा..
घर कहाँ है तुम्हारा?
जहाँ मेरी सेना मुझे तैनात करती है
वहीं मेरा घर होता है
अबकी कड़क आवाज़ में जवाब आया ..
यहाँ आने का मक़सद क्या था
सैनिक के चहरे पर रहस्यमयी मुस्कान तैर गई
ये कैसे बता दूँ मैं ..
अपनी स्थिति का अनुमान है तुम्हें
जानते हो न तुम्हारा वापस वतन लौटना नामुमकिन है
अच्छा होगा तुम सारी गुप्त जानकरियाँ साझा कर लो ..
सैनिक का चेहरा रक्तिम हो आया
वो दहाड़ा
देश के नीले आकाश को हम शहादत से लाल करते हैं
इसकी मिट्टी वीरांगनाओं से छूटते आलते से लाल होती है
मृत्यु का ख़ौफ़ किसे है ..
बहुत बड़ी ग़लती कर रहे हो बरखुरदार
नहीं महाशय
जितनी ग़लती करनी थी कर ली
अब तो ग़लतियों से सीखने की बेला है
अब जीत का इतिहास लिखेंगे हम
ये नया भारत है
ये इसके अभिनंदन की बेला है ..
क़ैद में हो फिर भी इतना अभिमान तुम्हें है
अभिमान कहाँ ,
मैं तो विनत हूँ
कि मेरी सेना मेरा अहंकार है
मेरा देश मेरा अभिमान है ..

डाक्टर शोभा : विंग कमांडर अभिनंदन की माँ
मद्रास मेडिकल कॉलेज से स्नातक व रॉयल कॉलेज आफ सर्जनस् इंग्लैंड से परास्नातक । इन डिग्रियों के साथ किसी भी युवती को दुनिया के सबसे विकसित हिस्से में आसानी से नौकरी मिल जाती परन्तु उस युवती ने स्वेच्छा से Médecins Sans Frontières (MSF ) का सदस्य बन अपनी सेवाएँ देने का निर्णय लिया । इस संस्था को Doctors Without Borders के नाम से भी जाना जाता है । यह संस्था ज़्यादातर युद्धरत देशों में जा कर कार्य करती है ।
पूरी दुनिया में जहाँ भी युद्ध होता वही डा. शोभा चिकित्सीय टीम के साथ आम नागरिकों की मदद के लिए मौजूद रहती । अपने लम्बे कैरियर में उन्होंने गल्फ़ वॉर , इराक़ , हैंती , पपुआ न्यू गिनी ,लाइबेरिया , लाओस , आइवरी कोस्ट आदि देशों में कार्य किया ।
द्वितीय गल्फ़ युद्ध के दौरान सुलेमानिया ( इराक़ ) में एक फिदाइन हमले में वे बाल बाल बची । उनके जीवन का सबसे बड़ा मिशन था 2010 हैती में जहाँ भूकंप की वजह से लाखों लोगों की मृत्यु हुई थी
चीफ़ मेडिकल कोऑर्डिनेटर के रूप में डा. शोभा का मुख्य कार्यों में थे :- शल्य क्रिया , युद्धरत क्षेत्र में रेप पीड़ितों की देख भाल व एड्स की महामारी से बचाव के उपाय ।
डा. शोभा ने कई बार विभिन्न देशों से आए नौकरी के प्रस्ताव ठुकाराए क्योंकि इस काम में उन्हें संतुष्टि मिलती थी व परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियाँ भी निभानी थी ।
जिसने अपना पूरा जीवन बारूद की गंध व युद्ध क्षेत्र में बिताया हो .. ज़रा सोचिए उस माँ के बच्चे कैसे होगे !!
अपने बच्चे को ले आयी है यह माँ कल रात वाघा सीमा पर । शेर लौट आया हैं पाकिस्तान से ।❤️
डा. शोभा वर्धमान ... विंग कमांडर अभिनंदन की माँ व एयर मार्शल एस. वर्धमान की पत्नी ।
जय हिंद 🇮🇳🙏🏻

🦋पहचानो,अपनाओ,स्वीकारो अपना वज़ूद तभी तो दुनिया स्वीकारेगी ।🦋
"धरती की कोख़ से जन्मी हूँ
धरती सा ढ़लना सीखा है ।"
आठ मार्च आ रहा है..... 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस'
दोस्तों मैंने हमेशा से कहा है कि... कोई एक दिन का पट्टा कैसे किसी महिला के नाम पर हो सकता है ....हमारी तो तीन सौ पैंसठ दिनों पर पक्की वसीयत ठहरी ।
बहरहाल...हर दफ़ा ही इस मामले में कुछ विरोधाभासी ले आती हूँ ,,,जो सबको तो नहीं कुछ मॉर्डन से ढ़ोंग रचने वाले ऑर्थोडॉक्स सद्जनों को खटकता ही है ।
लिबास नहीं साहब सोच बदलिये ।
एज्यूकेटेड और लिट्रेट में दिखता नहीं है पर भैये समझ का बहुतई बड़ा अंतर है ।
समझाना या सबूत देना कठिन है कि ..मैं स्वस्थ नीयत पर सवारी करने वालों में से एक हूँ...किसी पर भी व्यक्तिगत आक्षेप मेरा मक़सद कतई नहीं रहा ।
सृष्टि ने हमें प्रारंभ से ही संरचनात्मक दृष्टि से पुरुषों से पृथक बनाया है ।
काल के प्रवाह में प्राचीन वैदिक काल से लेकर आज वर्तमान काल तक नारी ने हर उतार-चढ़ाव देखा,झेला....और एक हौंसले की उड़ान वाली हिम्मत से बदला भी है ।
युग-परिवर्तन की इस बयार के परिप्रेक्ष्य ने अब नारी को "अबला से सबला "व " आश्रित से कर्मठ क़दम ताल पुरूष सहायिका " बना के एक नई दिशा की करवट ली । और अब हम सब स्वयं ही गवाह हैं कि नारी किसी क्षेत्र में पुरूष से पीछे नहीं है~~ वरन् कई क्षेत्रों में पुरुषों से आगे भी परचम लहराया है ।।
सोच ने पुनः करवट ली है ,,,पर कहते हैं ना कि,,,,जो बीत गई सो बात गई,,,,वो स्वर्ण युग नहीं आ सका,,,,!!
चाँद में दाग है वैसे ही,,,,आधुनिक मानसिकता में भी वो दाग लगा हुआ है,,,,जिसे सरल भाषा में कहूँ तो "दोगली मानसिकता" ।।~~
करनी व कथनी में फ़र्क़ वाली बयार अब अनवरत बह रही है~~ और इसी मानसिकता के चलते,,,"नारी सम्मान" अभी अधूरा रह ही जाता है ।।
हम स्त्रियों के ही एक बड़े सुशिक्षित झुण्ड ने जब तरक्कियों की विजय पताका लहराई तो... यहाँ हमने ही ...हमको बदहाल कर दिया...अदद् भेद उत्पन्न करके कि - घरेलू ग्रहणी टाइप बहिनजी को क्या पता कि ...आसमान की उड़ानें कैसे भरी जाती हैं ?
यहाँ तब हमने अपने हुनर को ,अपनी शक्ति को कलुषित अहंकार का कवच पहना दिया ।
स्त्री ही स्त्री में अवगुण बखान के द्वारा कमियाँ खोजने लगी ।
हम परव़ाज भर कर भूल गये कि ...आकाश के उस पार भी एक और आकाश है । धरती के नीचे भी सात तल और हैं ।
हम अपने ही वज़ूद का बंटवारा कर के ...कामकाजी बन गये ।
भूल गये कि.. घर में एक आँचल भी तो है ...जिसकी ओट में सुरक्षित रहे,खाये,सोये ,,,उस आँचल ने ही तो सींचा,पाला पोसा ।
भूल गये अहम् की महक में उस आँचल की वो अगरबत्ती,मोंगरे,हल्दी,लहसुन,सौंठ,अमचूर,मठरी,चिप्स,अचार और कच्चे दूध भरी वो जीवनदायी ख़ुशबू ।
अरे ,,,कैसे भूल गये कि वो ही तो रही नेपथ्य में बिना किसी भत्ते,बिना किसी मेटरनिटी लीव,बिना किसी वीकेंड और टी.ए.डी.ए. के.... ट्वेंटी फोर बाई सेवन .... हमारे लिये ।
ताकि... बना सकें हम सुदृढ़ भविष्य... उसने रखी वो फाउंडेशन वो नींव पक्की हमारी संस्कारों के गारे से ईंट दर ईंट ।
वो ...घर में रहने वाली साधारण सी गृहिणी ही तो हमारे जीवन की सी.ई.ओ.थी ।
कैसे...भूल गये भला हम ?
..... ख़ैर , बस इतना ही कहना है कि... इतराइये ख़ुद पर ,चमकिये बेइंतिहा ,,मगर अपने ही वज़ूद पर प्रश्नचिन्ह मत लगाइये ।
करिये गर्व अपने स्त्री होने पर बारम्बार ....पर कतई ना करिये घमण्ड ... क्यों कि ये आपको अंधकूप में ले जायेगा ।
वहीं आप कामकाजी से ये भी कहूँगी कि- आपने साबित किया है...कि आप किसी से कम नहीं...क्योंकि आप संभालती है ...दहलीज़ के भीतर के चौक पूरने से लेकर से लेकर बाहर के डिठौने लगा कर ...सुरक्षित परव़ाज़ भरना ।
यहाँ हम दो तबके नहीं हैं,हम एक ही हैं...वही संरचना सबकी एक सी... तो गृहणी जमात भी इन्हें क्यूँ कर कटाक्ष करे भला ?...
कि- बाहर का देख लिया तो कौन सा तीर मार लिया ,,,घर का रसोई,सींना-पिरोना और गृहस्थी का शऊर भला कहाँ आता है इन्हें !
ऊँssहू... हम यहाँ भी गलतियाँ ही कर रहे हैं...ये भी तो दहलीज़ के बाहर बस दीख रहीं हैं...दहलीज के भीतर का मैनेजमेंट भी इनके बिठाये बौद्धिक सामंजस्य से ही फलीभूत है ।
दिन भर,हस्पतालों, विविध क्षेत्रों वाली बोर्ड मीटिंग्स, मैट्रो,खेतों,फ्रैक्ट्रियों,फैशन/मीडिया हाउसेज में दौड़ते भागते...जूझती हैं,,,,मानसिक तौर पर, हार्मोनल इम्बैलेंस से,स्लीपिंग डिसऑर्डर,मूड़ स्विंग्स से ,पोस्ट पार्टम डिप्रैशन,,और अनगिनत डेफिशिएंसी मतलब शारिरिक कमियों के आनुपातिक क्षरण से ।
और कुछ ऐसे कारक राक्षस..जो दिखाई नहीं देते बस मानसिक तौर पर डिके करते जाते हैं ।
हम अपनी ही अस्मिता पर उंगली उठाते हैं...दो तबके बनकर ... अगर हम हाउसवाइव्स हैं तो भी खुद ही खुद को कम आँककर काहे बेकार की ...हीनभावना को लपेट लेना है साड़ी बनाय के ...अरे आप किसी से कम हैं क्या ?
पीढ़ी दर पीढ़ी...पोषित होती है आपके अस्तित्व से तो ।
और अगर हम कामकाजी हैं तो भी हम घमण्ड क्यूँ कर सोख लें स्वयं में... हम शारीरीक नर्म बनावटों के बाद भी तो लगा काँधे से काँधा खड़े हैं हर कहीं ।
तो इस इतराने में गर्व महसूसिये और वही जताइये... ना कि अहंकार को इत-उत ओली से भरकर बिखराइये ।
हम जो भीतर की आत्मा पर वस्त्र पहनते हैं ना....वही परिधान हमारे बाहरी अस्तित्व का नेतृत्व करता है ।
सो....मन चंगा तो कठौती में गंगा ।....महको हे नारी कि ...तुमसे ही तो ये प्रकृति भी महकती है ।
सृष्टि निर्माणक बृह्मा जी भी मानते आये कि ,,"शक्ति ही ब्रह्माण्ड धारण करती है" ---
"अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्,
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा" (अथर्वेवेद )

2 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर संकलन। बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति।

Anita ने कहा…

युद्ध के हालात में लिखी गयी रचनाओं में एक ऐसी गहरी संवेदना होती है जो समष्टि को अपनी गिरफ्त में ले लेती है.
अभिनंदन ने देश के युवाओं को एक अदम्य प्रेरणा दी है.
महिला दिवस पर प्रीति राघव का सशक्त लेखन कई सवालों का हल लेकर आता, है, इस पठनीय संकलन के लिए बधाई..आभार !

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