किसी भी आवेश में
कुछ भी कहने से
खुद को रोको !
वह क्रोध हो,
प्रेम हो,
घृणा हो,
या ईर्ष्या ...
उस वक़्त हर शब्द चिंगारी होते हैं ,
जला देते हैं वो कितने एहसास ...
हाँ,हाँ प्रेम की चिंगारी भी !
क्योंकि, कहे हुए शब्द संचित हो जाते हैं
मस्तिष्क में,
दिल में,
पूरे शरीर में फैलते जाते हैं
एकांत की सोच पर फन फैलाकर
आग उगलते हैं !
आकस्मिक मृत्यु की एक वजह
यह चिंगारी भी होती है
अदृश्य मुखाग्नि को कोई नहीं देख पाता
लेकिन, वह उसी शब्द की होती है
जो आवेश में कह सुनाई गई होती है !
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स्टोरी मिरर पर प्रोत्साहित व पुरस्कृत हुई ये रचना ....
मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी !!!!
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जिन्दगी को बेखौफ़ होकर जीने का
मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी !!!!
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जिन्दगी को बेखौफ़ होकर जीने का
अपना ही मजा है
कुछ लोग मेरा अस्तित्व खत्म कर
भले ही यह कहने की मंशा मन में पाले हुये हों
कभी थी, कभी रही होगी, कभी रहना चाहती थी नारी
उनसे मैं पूरे बुलन्द हौसलों के साथ
कहना चाहती हूँ, मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी ...
न्याय की अदालत में गीता की तरह
जिसकी शपथ लेकर लड़ी जाती है हर लड़ाई
सत्य की, जहाँ हर पराजय को विजय में बदला जाता है
गीता धर्म की अमूल्य निधि है जैसे वैसे ही
मेरा अस्तित्व नदियों में गंगा है
मर्यादित आचरण में आज भी मुझे
सीता की उपमा से सम्मानित किया जाता है
धीरता में मुझे सावित्री भी कहा है
तो हर आलोचना से परे वो मैं ही थी जो
शक्ति का रूप कहलाई दुर्गा के अवतार में
मुझे परखा गया जब भी कसौटियों पर
हर बार तप कर कुंदन हुई मैं
फिर भी मेरा कुंदन होना
किसी को रास नहीं आता
हर बार वही कांट-छांट
वही परख मेरी हर बार की जाती
मैं जलकर भस्म होती
तो औषधि बन जाती
यही है मेरे अस्तित्व की
जिजीविषा जो खुद मिटकर भी
औरों को जीवनदान देती है, देती रहेगी !!!
मैं पूरे बुलन्द हौसलों के साथ फिर से
कहना चाहती हूँ, मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी ....
5 टिप्पणियाँ:
अदृश्य मुखाग्नि को कोई नहीं देख पाता..... बेहद गहन व् सशक्त .. सादर आभार
सच कहा आपने यदि तोल मोल के नहीं बोला तो आग तो लगनी है कभी न कभी
बहुत अच्छी गंभीर विचार प्रस्तुति के साथ बुलेटिन का अंक
आदरणीय दीदी
सादर नमन
सटीक प्रस्तुति
सादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
बहुत बढ़िया, सदा की तरह उम्दा संकलन
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