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मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

आध्यात्म




आस्तिक होना क्या है ?
क्या ईश्वर को मान भर लेना ?
नास्तिक हो गए 
यदि ईश्वर को नहीं माना तो ?
नहीं,
आस्तिक वो है जो अपने कर्तव्यों को जानता है 
अधिकारों के निरंकुश प्रयोग से दूर होता है 
और अपनी सोच में लचीलापन रखता है  
नास्तिक 
मूर्ति पूजा 
कर्मकांडों से दूर होता है 
पर अनदेखी शक्ति की ऊँगली थामे चलता है 
अपने भीतर की विविधता को तराशता है। 

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ 

 ,,, रामचरितमानस का अंश कितनी सहजता से जीवन का निचोड़ दे जाता है।  अदृश्य मान्य शक्ति ने होनी का रूप बनाकर रखा है, होता वही है जो होना है, तर्क से हम किसी बात को खींचते जाते हैं और अंततः एक गलत मोड़ दे देते हैं, अतः अपना कर्म ईमानदारी से करते जाना चाहिए।  

शब्दों की तलाश में मेरी कविता
निकल पडी है दूर तलक...
कालजयी होना है,
कहा था उसने मुझसे
समझी नहीं -
मेरे समझाने पर भी
बहुत रोका मैंने
ये कहकर
की कालजयी कविताएँ
जा चुकी है
काल के ही साथ . . .
और ले गई है साथ अपने
गूढ़ अर्थों वाले
आलंकारिक शब्दों को भी
जिन्होंने पकड़ रखा था
हाथ समासों का
जो घिसटते चले गए
उसी के साथ ...
सुना है काल के साथ ही
स्वाहा हो गए थे अरण्य भी ...
नतीजतन अब
मेरी कविता भटक रही होगी
सादे सपाट मैदान में ही कहीं
आशंकित हूँ ,
लौटेगी या नहीं
मेरे एकाकी जीवन में ........
कही बचे -खुचे
शब्द भी फुर्र न हों जाएं
उसके लौटने से पहले ....

*** उम्मीद धड़कती तो है ***
--------------------------------------
तुम मेरे भीतर
प्रेम की किसी
उन्मादी आँधी- सी
अपनी आकांक्षाओं को उड़ेलकर
इतनी तल्लीन रही हरदम
कि मैं चाहकर भी
प्रेम और वासना की
तथाकथित दूरी को
समझकर पाट न सका।
यथार्थ के द्वार तब खुले
हमारी मूक भावनाओं के
खुले आँगन में,
तुम्हारे संग को
जब दिवास्वप्न मानकर
मैं इक उम्र तक
बस स्वयं से
हर रात चर्चा बनाता रहा।
तुम आयी कब थी
मेरे गाँव के सीमान्त पर,
अब यह अकेला सवाल
मेरे घर में
कब से मुँह बाए खड़ा है!
हूँ मैं भी हैरान
कि जिस प्रसंग को
मैंने अपनी दाँव पर
सबके बीच छेड़ा था
उसकी कोई मौन झलक भी
क्यूँ
मुझे परेशान नहीं करती!
प्रेम और उसके किये जाने की
सारी शर्तों पे
मैं आज ढेर हूँ,
और तुम्हारी ही
बेचैन- निश्चेष्ट आँखों से
मृत होते तर्कों में
वही कुछ बचाए रखने की
कोई तो जुगत की है।
हाँ, बजबजाती नाली के
सैकड़ों कीड़े की तरह,
और जीवन और मृत्यु के बीच
किसी कड़ी जैसी
मैंने तुम्हें
अपनी टूटती आहों में
फिर भी
संभालकर ज़िन्दा रखा है।***

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5 टिप्पणियाँ:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

आनंद दायक है यह बुलेटिन.

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति । सुन्दर चयन ।

Satish Saxena ने कहा…

वाह ,
आभार बढ़िया लिंक्स पढ़वाने के लिए !!

कविता रावत ने कहा…

बहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
आभार!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

जय हो ... :)

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