समझी नहीं -
मेरे समझाने पर भी
बहुत रोका मैंने
ये कहकर
की कालजयी कविताएँ
जा चुकी है
काल के ही साथ . . .
और ले गई है साथ अपने
गूढ़ अर्थों वाले
आलंकारिक शब्दों को भी
जिन्होंने पकड़ रखा था
हाथ समासों का
जो घिसटते चले गए
उसी के साथ ...
सुना है काल के साथ ही
स्वाहा हो गए थे अरण्य भी ...
नतीजतन अब
मेरी कविता भटक रही होगी
सादे सपाट मैदान में ही कहीं
आशंकित हूँ ,
लौटेगी या नहीं
मेरे एकाकी जीवन में ........
कही बचे -खुचे
शब्द भी फुर्र न हों जाएं
उसके लौटने से पहले ....
*** उम्मीद धड़कती तो है ***
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तुम मेरे भीतर
प्रेम की किसी
उन्मादी आँधी- सी
अपनी आकांक्षाओं को उड़ेलकर
इतनी तल्लीन रही हरदम
कि मैं चाहकर भी
प्रेम और वासना की
तथाकथित दूरी को
समझकर पाट न सका।
यथार्थ के द्वार तब खुले
हमारी मूक भावनाओं के
खुले आँगन में,
तुम्हारे संग को
जब दिवास्वप्न मानकर
मैं इक उम्र तक
बस स्वयं से
हर रात चर्चा बनाता रहा।
तुम आयी कब थी
मेरे गाँव के सीमान्त पर,
अब यह अकेला सवाल
मेरे घर में
कब से मुँह बाए खड़ा है!
हूँ मैं भी हैरान
कि जिस प्रसंग को
मैंने अपनी दाँव पर
सबके बीच छेड़ा था
उसकी कोई मौन झलक भी
क्यूँ
मुझे परेशान नहीं करती!
प्रेम और उसके किये जाने की
सारी शर्तों पे
मैं आज ढेर हूँ,
और तुम्हारी ही
बेचैन- निश्चेष्ट आँखों से
मृत होते तर्कों में
वही कुछ बचाए रखने की
कोई तो जुगत की है।
हाँ, बजबजाती नाली के
सैकड़ों कीड़े की तरह,
और जीवन और मृत्यु के बीच
किसी कड़ी जैसी
मैंने तुम्हें
अपनी टूटती आहों में
फिर भी
संभालकर ज़िन्दा रखा है।***
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5 टिप्पणियाँ:
आनंद दायक है यह बुलेटिन.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति । सुन्दर चयन ।
वाह ,
आभार बढ़िया लिंक्स पढ़वाने के लिए !!
बहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
आभार!
जय हो ... :)
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