एहसास -
कभी इस मुंडेर
कभी उस मुंडेर
दानों की प्रत्याशा में
गौरैया बन जाते हैं
प्यास लगी तो नदी,झरनों की तलाश में
लम्बी उड़ान भरते हैं
मिल गया दाना,पानी तो ठिठक जाते हैं
..... फिर जल्दी जल्दी चोंच में भर लेते हैं ....
वन्दना महतो - http://vandanamahto. blogspot.in/
आज भी
मेरे कमरे में, वो
हमेशा की तरह झाँक रही है.
मेरे सुख व दुःख,
आक्रोश व पश्चात्ताप,
जय व पराजय,
जैसे हर क्षण का सदियों से, वो
हिसाब रख रही है.
कभी तुम्हें-भूल मुझे सुलाने की प्रयत्न,
तो कभी तुम्हारी-ही याद में
जगे रहने की मनुहार करती है वो.
एक क्षण को तो तुमसे ही
दूर कर जाती है वो,
तो दूसरे ही क्षण तुम्हारी
ही बातें गुनगुनाती रहती है वो.
मेरे सबसे करीब रहते हुए भी
क्यूँ तुम इतनी दूर रहती हो,
कभी बुरी, तो कभी इतनी अच्छी क्यूँ लगती हो.
"अमावस की रात में भी रोशनी के दायरें मिलते हैं,
चाँद नहीं तो क्या हुआ, सितारें भी चमकते हैं"- यूँ कहते हुए
तुम कितना मुझे समझाती हो.
हाँ! मेरी खामोशी,
मेरा कितना ख्याल तुम रखती हो.
कमलेश अग्रवाल - http://astitva53.wordpress. com/
(यह एक रूपक कविता है जिसमें कुम्भार पिता,घड़ा पुत्री एवं ग्राहक दामाद के रूप में)
एक कुंभार ने बड़े जतन से एक घड़ा बनाया
उसे पकाया, पकाके उसे निखारा
तभी एक ग्राहक उसकी निगाह़ मे आया
जनाब, घड़ा ग्राहक को खुब पसंद आया
फ़िर क्या था...
घड़ा ग्राहक के संग चल पड़ा
अब मालिक बड़ा ही खुश था
अपनी किस्मत पर बड़ा ही गर्वित था
पर प्रभु को ये मंजुर नहीं था
कुछ महिनों बाद---वही ग्राहक कुंभार के पास आया
उसने कुंभार से कहा,
भाई कुंभार, ये घड़ा मेरे ही सिर मारना था?
तुम्हें पता है ये किस कदर रिश्ता है?
कुंभार ने हाथजोड़ नम्रता से कह,"जनाब, घड़ा तो रिसना ही अच्छा होत है"
यह सुन ग्राहक बिगड़ते हुये बोला,
"अच्छा ये बात है! तब रिसना घड़ा आप को ही मुबारक
रोज़ इसका ठंडा पानी पीओ और राम-राम कहो
इतना सुनते ही कुंभार मुंह लटकाये एक गुन्हेग़ार की भांति यूं बोला,
"लाईये साहब, मैं इसका रिसना बंद कर दुं और इसे आपके पसंद का ही कर दुं "
ग्राहक ये सुनते ही इठलाया, अपनी चतुराई पर मुस्कराया ,
घड़ा कुंभार को थमाते हुये बोला-
"ठीक से मरम्मत करना,अगलीबार शिकायत नहीं करुंगा,इसे तुम्हारे सिर ही पटकुंगा"
कुंभार ने घड़ा हाथ मे लिया बेबस हो घड़े से यूं कहा,
"मुझे तुम से कतई ये उम्मीद न थी...(२)
क्यों मेरे परिश्रम को लज्जित किया तुमने ?
क्या तुम नहीं चाहते कि मेरे और घड़े भी बिकें ?" घड़ा खामोश था
अंदर ही अंदर आंसु पिये था
आंखे नम कर वह यूं बोला,
"अब मालिक ऎसा न होगा, रिसना मेरा तुरंत ही बंद होगा
गुस्ताख़ी चाहता हुं इस शिकायत के लिये, न होगि चूक भविष्य के लिये "
कुछ दिनों बाद जब ग्राहक आया
कुंभार ने वह घड़ा सा-आदर ग्राहक को थमाया
विनीत सह हाथज़ोड ग्राहक से यों कहा..
"जनाब, इसका रिसना अब बिल्कुल बंद है
अब हर प्रकार से ये आप के ही अनुकूल है "
ग्राहक अब बड़ा खुश था, अपने किये पर बड़ा गर्वित था
पर बेचारा घड़ा बड़ा ही खिन्न व मज़बुर था
वह सोच रहा था..
काश ! ग्राहक के हाथों की पकड़् छूटे और वह इस दंभी दूनिया से ज़्ल्द ही उठे---
आत्माराम शर्मा - http://atmaramsharma. blogspot.in/
प्यार की खातिर
गुजर गए दिन
राजा और रंक में जो भेद होता है, वही उसमें और मुझमें था। मैं सपने देखता था और जाहिर है कि सपने देखने पर कोई पाबंदी न उस समय थी, न आज है। उसका भाई मेरा दोस्त था। दसियों बार मैंने उसके भाई से अपनी मन की बात कही थी। कहा था कि चार पैसे कमाने की लियाकत अगर मैंने पायी तो तुम्हारी बहन का हाथ मागूंगा, तब तुम मना नहीं करना। उसने कहा एीक है पहले कुछ बन तो जाओ। समय बदला और मेरी रोजी-रोटी की जुगाड़ जम गयी। मैंने उसके भाई को उसका वादा याद दिलाया। भाई ने पहले हां की, फिर अगले ही दिन बदल गया। मेरे दिल पर चोट लगी। मैंने बहुत चिरौरी की। कहा की ऐसा न करो। यह जो मैं आज हूं वह तुम्हारी बहन के प्रेम में पड़कर ही बना हूं। मेरी पूरी उपलब्धि तुम्हारी बहन की अमानत है। अगर तुम्हारी बहन मुझे स्वीकार नहीं करती तो मैं इस उपलब्धि को लिये-लिये कहां फिरूंगा। जैसा कि जालिम जमाना करता है, वही उसके भाई ने किया। वह नहीं माना और अपने वादे से मुकर गया। मैं रोया, मेरा दिल रोया और वक्त ने घाव भरने शुरू कर दिये।
वक्त की करवट
इतने लम्बे अरसे के बाद आज उसका फोन आया। वह मुझसे मिलना चाहता था। मैंने कहा किसलिये। वह बोला कुछ बात करना चाहता हूं। मैंने कहा आ जाओ। हमने मिलकर बातें की। बैएकर दारू पी। मुझे उसको दारू पिलाना अच्छा लग रहा था। अच्छा इसलिए क्योंकि वह परेशान था। फटेहाल था। बेरोजगार था। उसकी बातों में उसका पुराना दम्भ गलकर बह रहा था। मैंने उसे और दारू पिलायी। वह रोने लगा। बोला तुम मेरे लिये कुछ करो। हजार-दो हजार की नौकरी की जुगाड़ ही करा दो। उसकी आंखों में तैरती बेचारगी देखकर मुझे भीतर तक संतोष हुआ। मैंने कहा कि देखो यार तुम्हारी बहन के लिए अब भी मेरे दिल में कोमल भावनाएँ हैं। उन भावनाओं को आज मैं किस रूप में देखूं यह स्पष्ट नहीं है। क्योंकि वह भी शादीशुदा है और मेरा भी परिवार है। उन्हीं पुरानी मीएी भावनाओं को ध्यान में रख मैं तुम्हारे लिये जो बन पड़ेगा वह करूंगा। मेरा इतना कहना था कि वह लगभग रोते हुए मुझसे लिपटने लगा और बोला कि बिलकुल एीक कहते हो। मैं यही सोचकर तुम्हारे पास आया था कि तुम्ही मेरी बहन से सच्चा प्यार करते थे। उस सच्चे प्यार की खातिर मेरी मदद तुम जरूर ही करोगे और देखो मेरा सोचना कितना एीक निकला। आखिर तुम मेरी मदद करने के लिए मान ही गये।
देना पड़ेगा
स्टेशन पर उसे छोड़कर मैं वापस लौटा। मन में उसके लिए गालियां उमड़ रही हैं। स्वार्थी, कमीना। दूसरे क्षण उसकी बहन का कोमल चेहरा मेरी आंखों में उतर आया है। आज मेरी जो भी औकात है, वह उसके बाप के सामने प्रस्तुत करने के लिए ही मैंने कमाई थी। औकात की इस कमाई को मैं उसके सामने तो प्रस्तुत नहीं कर सका, लेकिन इस कमीने को मैं अपने व्यक्तित्व की एक फूटी कौड़ी भी देने को तैयार नहीं हूं। मेरी आंखों में उसकी बहन के कोमल चेहरे में याचना उभरती है। गाली देती हुई मेरी जीभ लड़खड़ाने लगती है। मैं कमजोर पड़ने लगता हूं। वह व्यक्तित्व जो मैंने उसकी बहन के लिए कमाया था, उसका भाई उसमें से कुछ हिस्सा मांगने आया था। शायद मुझे कुछ भुगतान करना पड़ेगा। मेरे दिल की कोमल भावनाओं के खातिर शायद मुझे उसकी कुछ मदद करनी पड़ेगी।
अगली उड़ान भरती हूँ ... गौरैया को खुद में जी लेती हूँ
9 टिप्पणियाँ:
सभी रचनाओं का चयन एवं प्रस्तुति अतिउत्तम .. आभार इस प्रस्तुति के लिए
बेहद उत्तम लिन्क और रचनायें।
वास्तव में ठिठकते एहसास ...ठहरते कदम ....
ठिठक रहे थे एहसास............
बड़ा ही सुन्दर संकलन..
खुदा करें इस उड़ान मे कभी कोई खलल न पड़े ... आमीन !
बहुत सुन्दर संकलन..
इन ठिठके अहसास को पढ़ कर हम भी ठिठक गए...
बस एक ही बात जानना चाहती हूँ ...एक सवाल जो हरदम किया है आपसे ...कहाँ से ढूंढकर लाती हैं यह मोती ..यह बेशकीमती पत्थर ..यह अद्भित रचनाकार !
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