लहरों का आवेग,किनारों को छूना - कुछ नम मिट्टियों की यादें साथ ले जाना,अपनी गहराइयों में उन्हें रखना - और कहीं एक लम्हें का ठिठककर रुक जाना . उन एक लम्हों से मैं हर दिन गुजरती हूँ - नाम अलग अलग,पर शब्द भावों के सहयात्री . कभी मिले नहीं,न काल परिचय- फिर भी एक अनोखा रिश्ता . इन्हीं रिश्तों में ठिठके अपने अंदरूनी एहसासों को लिए मैं आई हूँ,पढकर जान ही लेंगे आप कि एहसास कहाँ,कब,किस तरह ठिठक जाया करते हैं. मुझे अच्छा लगता है चिड़िया बनना,चोंच में एहसासों के दाने उठा एहसासों के घर की छत पर उन्हें रख आना - भूख तो लगती है न ..... तो सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर आना होगा ही....गेंहू के सुडौल दानों से एहसास कभी धूप,कभी छाँव,कभी अचानक हुई बारिश से....
ओह,अब रहने भी देती हूँ भूमिका की सांकलों को यूँ हीं ..... एहसासों का निवाला लीजिये,और तृप्त हो जाइए -
प्रवीण यादव - http://pravinydv.blogspot. in/
मैं उसका हाथ थामे खड़ा हूँ.. चाँद की मद्धम रौशनी उसकी आँखों की चमक और बढ़ा रही है। मैं खामोश हूँ पर लाखों सवाल हैं जो उसकी लहराती लटों में उलझ उलझ कर मुझे बेचैन कर रही हैं... मुझे जवाब नहीं मिलता है और मैं भी उसकी सुनहली लटों में उलझ जाता हूँ।
मेरी बेचैनी को महसुस कर वो मेरी तरफ देखती है और मेरे सारे सवालों को पढ़ लेती है... उसकी आँखों की चमक अब बूंदें बनकर लुढ़कने को आतुर हैं। मैं देखता हूँ की उनमें चाँदनी की चमक से ज्यादा मेरी यादें घुली हैं.... ।
अब मेरे सवालों को जवाब की जरुरत नहीं हैं ... लाखों सवालों का जवाब बस एक बूंद ने दे दिया।
मैं चुप हूँ.. वो अब भी मेरी आँखों में झांक रही है मानो पूछ रही हो अब भी कोई सवाल बाकी है ?
मैं खो जाता हूँ उसकी आँखों में .... अब उसकी आँखों में मैं खुद को महसुस कर रहा हूँ। वो मेरा हाथ थामें चाँद को निहार रही है....और मेरी निगाहें उस चकोर के पीछे दौड़ रही है जो बेचैनी से चाँद को छू लेना चाहता है। मैं उसके हाथों के स्पर्श को सुनता हूँ जो मुझसे कह रही है- “ मुझे चाँद नहीं बनना मुझे बस तुम्हारा स्पर्श चाहिए। मैं उसका हाथ जोर से थाम लेता हूँ ... उसके चेहरे की सिकन गायब हो जाती है।
हम हाथ थामे नदी की भींगी रेत पर चलने लगते है .... किनारे की भींगी-भींगी रेत देखकर वो कहती है- “ लहरें क्यों किनारों को बिना कुछ कहे स्पर्श कर के लौट जाती है.. और किनारों के पास सिर्फ भींगी यादें छोड़ जाती है…. ”
मैं लहरों को देखकर कहता हूँ- “ लहरें लौटती नहीं हैं..... लहरें तो किनारे को अपना सर्वस्व सर्मपण कर देती है.....।
वो अपना सर मेरे कंधो पर टिका देती है.... और मैं चाँद को देखने लगता हूँ.....
अनाम मौसम सा
तेरा नाम
उमड़ते बादलों सा
तेरा चेहरा
कुछ पत्तियों के
आँख खुलने जैसी
तुम्हारी बातें...
अधखुली..अनकही
रोज बदलती तारीखों में
कोई एक दिन सा
अब भी होता है
मेरा दिन..
किश्तों में आते-जाते
बेपरवाह मौसम
नहीं जानते
आसपास.
तुम नही..
कभी नहीं..
रोज बदलती तारीखों में
बेमौसम
बरसती..
गुनगुनाती धूप
इतने कालचक्र को जीते
कहानियों में
नासमझ मन
जैसा होता है
अब भी मेरा बसंत..
कभी कभी ऐसा होता है की कविता , कविता नहीं बन पाती, मन के अंदर बहुत सारे एहसास एक साथ उठते हैं, पता नहीं चल पाता किस एहसास को कवितायों में कैद करूँ...कविता में कैद भी कर सकता हूँ या नहीं, पता नहीं......ऐसे में ही, कल शाम थोड़ा सा कुछ लिखने का प्रयास किया...इसे कविता कह लीजिए या फिर ऐसे ही कोई रैंडम थॉट...
कल सुबह तुम्हारी यादों के साथ उठा..
कमरे में नज़र घुमाई तो देखा,
टेबल की हर चीज़ बिखरी पड़ी थी..
तुमने जो डायरी दिया था, वो भी आधी खुली हुई सी,
टेबल से लटक रही थी..
एक पल सोचा टेबल फिर से समेट दूँ..
धुल जो पड़ी है टेबल पे, उसे साफ़ कर दूँ..
पर समेटने का दिल नहीं कर रहा था..
तुम्हारी यादों का हैंगओवर उतरा नहीं था.
वहीँ नीचे फर्श पे ,
वो खूबसूरत लाल-गुलाबी डिजाईन वाला लेटर गिरा हुआ था,
वो लेटर उसी लेटर-पैड का पहला लेटर था
जिसे तुमने आर्चीस से ख़रीदा था..
और देते वक्त मुझसे कहा था,
इस लेटर को हिफाज़त से रखना..
इसमें लिखी हुई बातों को हमेशा याद रखना..
उस लेटर को एक प्लास्टिक में लपेट रख लिया था मैंने..
दस साल हो गए, लेकिन प्लास्टिक अभी भी वही है..
किनारे से थोड़ी फट गयी है, ऊपर से कुछ पुरानी भी हो गयी है..
लेकिन लेटर के ऊपर कभी धुल नहीं जमने दिया उस प्लास्टिक ने..
वो लेटर आज भी उतना ही नया है जैसे दस साल पहले..
जब भी वो लेटर पढ़ता हूँ, तुम्हारी बातों की महक महसूस करता हूँ,
कल भी दिन में पांच दफे उस लेटर को पढ़ा था..
पता नहीं क्यों, हर बार पढ़ने के बाद सर भारी सा लगा..
ऑफिस में, ४ कप चाय भी पिया, सोचा कुछ तो हैंगओवर उतरेगा,
पर ये तुम्हारी यादों का हैंगओवर है..कैसे उतरता इतनी जल्दी...
वनवास कठिन होता है.
और होता है कुछ ज़्यादा ही
जब स्वनिर्णित होता है.
क्योंकि किसी ने कहा अगर
वनवास पे जाने को,
तो तुम चले भी जाओगे.
धर्म की, कर्त्तव्य की
मजबूरियों पर
तोहमत लगाओगे.
लेकिन जब
बिना किसी आग्रह
स्वयं ही जाना हो,
तो मन में कैकेयी, मंथरा
या फिर कौरव, शकुनी
कहाँ से लाओगे?
किसी ने बाँध दी
सीमायें अगर
तो चुप रह जाना भी
सहज होता है.
जो स्वयं को स्वयं ही
बांधना पड़े,
तो वो असीम बल,
वो आत्म-विश्वास
कहाँ से लाओगे?
वनवास कठिन होता है.
और होता है कुछ ज़्यादा ही
जब स्वनिर्णित होता है.
.............................. .............................. ........
विस्मित,विस्मृत ठिठकी मैं
एहसासों से बनाया है अपना घोंसला
वृक्ष के पत्तों से की है दोस्ती
एक टोकरी चाँदनी का कंदील जलाया है
और कलम की सूई से
भावनाओं की धरती पर
शब्द टांक रही हूँ.... तब तक............जब तक यात्रा है...
क्रमशः
15 टिप्पणियाँ:
विस्मित,विस्मृत एहसास:)
अब मेरे सवालों को जवाब की जरुरत नहीं हैं ... लाखों सवालों का जवाब बस एक बूंद ने दे दिया।........behad bhav pooran rachna
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उमड़ते बादलों सा
तेरा चेहरा
कुछ पत्तियों के
आँख खुलने जैसी
तुम्हारी बातें...
अधखुली..अनकही ...wah ...........bahut khoobsurat upmaye paryog ki gyi hain
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तुम्हारी यादों का हैंगओवर उतरा नहीं था......supebbbbbbbbb aksar hota yahi hain jab ham samjh nhi paate kya likhe tabhi man ke sachche bhav ubhar aate hain .
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किसी ने बाँध दी
सीमायें अगर
तो चुप रह जाना भी
सहज होता है.
जो स्वयं को स्वयं ही
बांधना पड़े,
तो वो असीम बल,
वो आत्म-विश्वास
कहाँ से लाओगे?...........sochne par vivash karti aapki kavita
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शब्द टांक रही हूँ.... तब तक............जब तक यात्रा है...
aap shaabd takte rahiye or ham us jhil mil sitaro wali chadar mai sukoon ke pal talashte rahenge .
bahut achcha laga sabko yaha ek sath parhna ...........hats off you all
भावनाओं की धरती पर
शब्द टांक रही हूँ.... तब तक............जब तक यात्रा है... बहुत सुन्दर..
अनमोल अहसासों से लबरेज़
भूमिका की सांकलों के साथ..... एहसासों का निवाला तृप्ति का बोध कराते ये शब्द निश्चित रूप से नि:शब्द कर देते हैं आपको पढ़ना बेहद सुखद ...
bahut sunder sunder post utha kar laayi hain aaj aap. rahul aur abhi ji k blogs par jakar ye poem padhna chaahi to nahi mili bas follow kar ke aa gayi hun.
चुन चुनकर सजाये पुष्प।
मज़ा आ गया!!
अहसास ही अहसास..
sunder phulon se saji post
rachana
आप कमाल कर देती हैं.....मतलब सीधे हमें टाईम ट्रैवेल करवा देती हैं....अपनी उस कविता को शायद उस दिन लिखने के बाद आज पहली बार पढ़ा....
बाकी के सभी ब्लॉग मस्त हैं...मैंने इनमे से एक भी नहीं पढ़ा था...!!
आप का जादू ... और असर न हो ... हो ही नहीं सकता !
शिवम जी की बात दुहराती हूँ दी...
आप का जादू ... और असर न हो ... हो ही नहीं सकता !
आभार
अनु
सब कुछ अच्छा। रचनायें भी और प्रस्तुतिकरण भी।
सुंदर रचना
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