Subscribe:

Ads 468x60px

कुल पेज दृश्य

बुधवार, 22 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 8





Search Results

मेरा फोटो


वर्षा...यहां सुनाई देते हैं स्त्रियों की ... - blogger


यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर, बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह  ... 

कहीं कोई टिप्पणी नहीं, ज़रूरत भी नहीं - जिनकी कलम निर्बाध चलने का संकल्प उठाती है, वह रुककर किसी का इंतज़ार नहीं करती।  
वजूद खुद तराशना होता है, निशान अपने पैरों के हों तो रास्ते बताये जा सकते हैं  ... 


शहर शहर


हर वो शहर जिससे होकर हम कभी गुजरते हैं, जहां कुछ पल ठहरते हैं, जहां की सड़कें-बाज़ार-इमारतें देखते हैं, उससे एक नाता सा बना लेते हैं। हमारी स्मृतियों के जंगल में उस शहर के लिए एक कोना तैयार हो जाता है। कई बार तो ट्रेन के सफर में मंजिल के पड़ावों में जिन स्टेशनों पर ट्रेन ठहरती है, वहां पी गई चाय, वहां की ख़ास चीज का ज़ायका भी उस जगह के ख़ास अनुभव सहेज कर रख देता है।

संडीला की रेवड़ी, आगरे का पेठा, मेरठ की गुड़ पट्टी, लखनऊ के कबाब, वाराणसी की जलेबियां, देहरादून के मोमोज, मसूरी का मैगी प्वाइंट, जयपुर के मिर्चवाले पकौड़े, मुंबई का बटाटा वड़ा और ऐसे तमाम छोटे मगर कीमती जायके अपने शहर का स्वाद बनाते हैं और उनसे हमारा रिश्ता मजबूत करते हैं। लखनऊ का भूलभुलैया किसने भी बनवाया, लेकिन लखनऊ में रहनेवाले हर किसी का उस पर हक़ है कि वो यहां का बाशिंदा है। वो जब अपने घर से कोसों दूर होता है तो अपने शहर को याद करते हुए वहां की गलियों, चौराहों, बाजार में पहुंच जाता है, वहां की ऐतिहासिक इमारतों से अपना रिश्ता जोड़ लेता है। किसी की स्मृतियां अपने शहर के घंटाघर, वहां की बारादरी के ईर्दगिर्द घूमती हैं। जिन सड़कों पर कितनी सुबह-शामों को आते-जाते,उतरते-डूबते, यूं ही गुजरते देखा, वो उनकी स्मृतियों की पूंजी में जमा हो जाती हैं। अलग-अलग शहरों के बाजारों की चहलपहल की गूंज हमारे कानों में कहीं रम जाती है। राजस्थानी बंधेजी साड़ियां, जयपुर की चूड़ियां, कन्नौज का इत्र, फर्रुख़ाबाद की दालमोठ, इनके साथ इन शहरों की तस्वीर जेहन में उतराती चली जाती है। उस शहर से हमारा ख़ास रिश्ता जोड़ देती है। 

नदियों के किनारे बसे शहर के लोग तो अपनी नदियों से ख़ास लगाव रखते हैं। उनके मन में उनकी नदी अविरल-निर्मल अपने पूरे विस्तार के साथ बहती है। कोई गंगा की धार से अपने मन को सींचता है तो कोई अपने घर के आसपास बने पोखर-कुएं से ही नमी हासिल करता है। नदी के जल में ढलता कोई सूरज सालों के लिए हमारे मन में भी ढल जाता है। गोमती के किनारे उगे चटक जंगली फूल की अनुभूति भी नदी के साथ हमारे यादों से जुड़ जाती है। वो पोखर- कुएं, उनके ईर्दगिर्द घटित घटनाएं कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ते। अपनी नदी, अपने पोखर, अपनी झील, अपने गदन, अपनी नयार से दूर बैठे व्यक्ति को कभी अकेले में याद आती है उसकी तरल ध्वनि। मई-जून की किसी बौरायी सी दोपहर में चिहुंकती नदी की तपन से गालों पर गर्म हवा के थपेड़े पड़े होंगे। हम सब की यादों में बसी हैं ऐसी कई दोपहरें। सूखी पत्तियों के झुंड का चिड़ियों सा उड़ना हम सब के मन में कहीं बसा है। हमारे स्मृतियों के जंगल की बसावट को जो और करीने से काढ़ता है। 

किसी शहर से गुजरते हुए उस शहर की एक ख़ास गंध हमारे भीतर रह जाती है। वहां की इमारतें हमारे ख्यालों में घर बना जाती हैं, उन सब से हम अपना एक ख़ास नाता जोड़ लेते हैं। अपने शहर से दूर रहनेवाले लोग जब वहां के किस्से सुनाते हैं तो जुबान नहीं रुकती, मीठी सी यादों का कारवां सा निकल पड़ता है, वो बांवरे से अपने शहर को याद करते हैं। जहां कभी वो रहे, रुके, जिये। लोगों की बातों में उनका शहर बहुत जीवंत होता है, वहां के कंकड़-पत्थर के लिए भी उनके दिल में प्यार उमड़ता है।

हमारी स्मृतियों के इन शहरों से ठीक उलट नये मिज़ाज के शहर भी तेजी से बन और बस रहे हैं, जिनसे चाह के भी कोई रिश्ता नहीं जुड़ पाता। उनकी चौड़ी सड़कों पर भागती बड़ी-लंबी गाड़ियों में हम हर वक़्त ठिठकते-ठिठकते चलते हैं। जैसे हर वक़्त किन्हीं हादसों से बच रहे हों। ऐसी शहरों की चिकनी सड़कों पर कितने साल गुजार के भी दिल का कोई तार यूं नहीं जुड़ता जैसे अपने मोहल्ले की टूटीफूटी सड़कों से जुड़ा करता था। इन तेज मिज़ाज हाईटेक शहरों में लकदक इमारते हैं, शीशे के महल जैसे मॉल हैं, बड़े-बड़े वाटर पार्क हैं लेकिन ये उस बाजार का हिस्सा हैं जहां हम सबसे बड़े प्रोडक्ट होते हैं। हम वो प्रोडक्ट होते हैं जिनके लिए कई सारे प्रोडक्ट बनाये जा रहे हैं। बढ़िया जींस, बढ़िया कपड़े की शर्ट, खुश्बूदार साबुन,डियो,परफ्यूम। हमारे खानेपीने के लिए एक से बढ़कर एक जायके, मैक्डोनल्ड का बर्गर, पिज्जाहट, शानदार कॉफी, हर शहर की मशहूर डिशेज-कुजीन। लेकिन एक ख़ास चीज की कमी होती है, एक ख़ास जायका कहीं छूटता है। कहते हैं हर शहर के पानी का स्वाद भी अलग होता है, उससे बनी चीजों का स्वाद भी अलग होता है।

हम तरक्की का, विकास का हम अपने जीवन में स्वागत करते हैं। पर कुछ तो ऐसा है जिसे हम खो रहे हैं, जिसके चलते हम हर वक़्त बेचैन रहते हैं, हम दिन रात खटते हैं, खूब काम किया करते हैं, मगर किसी काम के न रहे। ऐसे शहर को अपने जीवन के कई साल देकर भी अजनबी से ही रहे। ऐसा मोहपाश जिसमें रहा भी नहीं जाता, छोडा भी नहीं जाता। ऐसे शहर जो सिर्फ अजनबी बनाते हैं, अजनबियत को कायम रखते हैं और जिनसे कोई रिश्ता नहीं बुना जा पाता। ऐसे शहर में हर साल करोड़ों लोग आते हैं अजनबी की तरह और अजनबी ही रह जाते हैं।

1 टिप्पणियाँ:

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति

एक टिप्पणी भेजें

बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!

लेखागार