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बुधवार, 15 नवंबर 2017

2017 का बुलेटिन अवलोकन आरम्भ




यह,वह,वह,यह  ..... कहते सुनते, कुछ शिकायतें लिए, कुछ सकारात्मकता लिए 2017 भी धीरे धीरे अपने बक्से सहेज रहा है, -जाने के लिए।  2018 के लिए रख देगा पूरब का सूरज, अस्त होता सूरज, पर्व-त्यौहार, कुछ गीत, कुछ संकल्प, कुछ अभियान, कुछ ज्ञान,  ... पुनः एक वार्षिक बजट !
        जनवरी के आते चल देगा यह 2017 दिसम्बर के आखिरी गीत गाते हुए ! अभी फिलहाल तो नवम्बर की भीनी सर्द आगोश में किसी अबोध बच्चे की तरह लिपटा है ठुनकता सा  .. कि मुझे नहीं जाना।  पर जाना तो है, जाने से पहले धीरे धीरे पूर्व की तरह ब्लॉग यात्रा हो जाए, वार्षिक अवलोकन हो जाए !

साल गुजरता है, उम्र भागती है या ज़िन्दगी  ... इसे समझते समझते जाना कि मोबाइल एक महत्वपूर्ण हिस्सा है ज़िन्दगी का, काम-बेकाम मोबाइल होता है हमेशा काम का  ... 



मोबाइल पर निर्भर ज़िंदगी...~
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आज के इस दौर में तकनीक के बिना जीवन सोचने में भी ऐसा लगता है मानो यह कोई असंभव सी बात हो, दिन प्रतिदिन हम तकनीक पर कितने निर्भर हो गए हैं कि उसका उपयोग करना हमारे लिए सांस लेने जितना ज़रूरी हो गया है। गैरों की तो मैं क्या बात करूँ, मेरा ही जीवन बिना किसी तकनीकी साधन के नहीं चलता क्यूंकि आज की जीवन शैली ही ऐसी हो गयी है कि हर छोटी बड़ी चीज़ किसी न किसी ऐसे प्रसाधन से जुड़ी है जो तकनीक के माध्यम से चलता है। घर की छोटी-मोटी जरूरतों से लेकर मनोरंजन और अहम जरूरतों की पूर्ति तक सब से पहले कोई न कोई तकनीकी साधन ही काम आता है। जैसे रसोई में मिक्सी, टोस्टर, माइक्रोवेव, इंडकशन चूल्हा, रसोई से बाहर निकलो तो सर्वप्रथम मोबाइल, टीवी, फ्रिज, सभी कुछ ज़िंदगी का इतना अहम हिस्सा बन गया है कि इन में से यदि एक भी चीज़ काम न करे तो ऐसा लगता है जैसे जीवन रुक सा गया है।

जिसमें सब से अत्यधिक आवश्यक है मोबाइल और कुछ काम करे या न करे किन्तु मोबाइल का काम करना सारी दुनिया के चलते रहने का सबूत है। मोबाइल ठीक तरह से काम कर रहा है अर्थात हम ज़िंदा है और यदि उसे जरा सा भी कुछ हुआ है तो मानो हम बीमार है और यदि पूरी तरह ही खराब हो गया है तब तो समझो ऐसा लगता है न कि हम मर ही गए हों जैसे, डॉक्टर ढूँढने से लेकर ख़रीददारी करने तक सब चीज़ के लिए मोबाइल का साथ रहना बहुत ज़रूरी है और अब तो लिखने पढ़ने से लेकर मनोरंजन तक के लिए भी मोबाइल होना ही चाहिए। अब न टीवी में मज़ा आता है, न रेडियो पर, न सिनेमा हाल में, सारी दुनिया सिमटकर मोबाइल में जो आ गयी है। रसोई में भी मोबाइल चाहिए क्यों ? क्यूंकि कुछ नया बनाना है या कोई पुरानी चीज़ भूल गए हैं तो वीडियो पर देखने के लिए मोबाइल साथ होना चाहिए न भाई...!

फिर हाथ के नाखून या मेनीक्यौर खराब नहीं होना चाहिए ना...तो फूड प्रोसेसर भी चाहिए, नहीं तो कौन हाथ से आटा गूँदे सब नेलपोलिश खराब हो जाती है। अपने यहाँ तो फिर भी लोग अब भी हाथ से काम कर लेते हैं। लेकिन विदेशों में तो अब फ़्रोजन रोटियों का चलन है, लाओ तवे पर गरम करो और खा लो न आटा गूँदने की कोई दिक्कत न एक-एक रोटी बनाने की कोई टेंशन। अब देख लीजिये महिलाओं का भी सर्वाधिक समय मोबाइल पर ही व्यतीत होता है। फिर चाहे बात करना हो या वीडियो देखकर कुछ सीखना हो या कुछ ढूँढना हो, यहाँ तक की बच्चों की पढ़ाई भी अब तो वीडियो पर उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त आजकल सब आराम पसंद भी हो गए हैं, तो सब्जी भाजी की खरीद फ़रोख्त हो या घर के लिए किराने का सामान या फिर कपड़े ही क्यूँ न खरीदने हो सब कुछ मोबाइल से ही तो होता है।

बाकी संसाधनों के लिए तो अन्य उपाय भी मिल जाते हैं लेकिन मोबाइल के लिए कोई और साधन नहीं मिलता कहने को एसटीडी/पीसीओ (STD PCO) बूथ अब भी हैं, लेकिन फिर भी जब तक कोई आपातकालीन समस्या न हो, कौन जाता है वहाँ उस से कॉल करने। अभी मैं एक कॉफी शॉप में बैठी हूँ तो मेरे जहन में जगजीत सिंग जी का गाया हुआ एक पुराना गीत घूम रहा है

“हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी”

जिसे सुनकर मुझे लग रहा है कि उस समय में ही लोगों को भीड़ में भी तन्हाइयों का एहसास होने लगा था, तो फिर आजकल की तो बात ही क्या है। आजकल तो संगी साथी, दोस्त यार, नाते रिश्तेदार, साथ होते हुए भी लोग तन्हा रहना ही ज्यादा पसंद करते हैं। एक वह ज़माना था जब सयुंक्त परिवार हुआ करते थे और लोग एकल ज़िंदगी की कल्पना करते हुए भी घबराते थे। आज ठीक इस का उल्टा है, आज लोग साथ रहने से कतराते हैं। ज़िंदगी भर का साथ तो छोड़िए, आज तो घंटे दो घंटे भी बिना मोबाइल के लोग एक दूजे के साथ समय नहीं बिता पाते या यह कहना ज्यादा ठीक होगा शायद कि बिता तो सकते हैं, परंतु बिताना नहीं चाहते। अभी मेरे सामने का नज़ारा ही ऐसा है कि चार दोस्त एक साथ एक कॉफी शॉप में आते हैं और चारों अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हैं क्या फायदा है ऐसे साथ घूमने फिरने का राम ही जाने।
  
यह सब देखकर लगता है अब तो दुनिया का सबसे सुंदर रिश्ता दोस्ती भी भावनात्मक ना रहते हुए दिखावे का पर्याय बन गया है। तकनीकी संसाधनों के साथ तेज़ी से बदलती ज़िंदगी ने जहाँ एक ओर लोग का जीवन सरल बनाया है वही दूसरी ओर उतनी ही तेज़ी से लोगों के मानसिक और आर्थिक स्तर पर भी गहरा प्रभाव छोड़ा है। जिसके आधीन होकर नित नए-नए साधनों के उपयोग के लालच में लोग बैंक द्वारा उधार ली गयी मोटी रकम के कर्जदार बन गए हैं और बैंक कों की चाँदी हो गयी है। शायद इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मोबाइल पर उपलब्ध सीधा बैंक से पैसा देने वाली सुविधा के चलते जब ऑनलाइन पैसा चला जाता है, तब वह हाथ से जाता हुआ दिखाई नहीं देता। इसलिए उस समय महसूस नहीं होता कि आपने ज़रा सी देर में कितना बड़ी धन राशि खर्च कर दी। फिर जब लम्बा बिल आता है तब आँखें खुलती है और तब तक बहुत देर हो चुकी होती है या फिर थोड़े दिन बाद जीवन उसी ढर्रे पर आ जाता है।


इस तरह बच्चों से लेकर बड़ों तक और बड़ों से लेकर बुज़ुर्गों तक हम सभी का जीवन मोबाइल पर कुछ इस तरह निर्भर हो गया है कि अब तो ऐसा लगता है मोबाइल के बिना जीवन संभव ही नहीं है।             

4 टिप्पणियाँ:

Pallavi saxena ने कहा…

मेरी पोस्ट को यहां स्थान देने के लिए धन्यवाद।

कविता रावत ने कहा…

सच आज मोबाइल के बिना अधूरा है दिन
बहुत अच्छी प्रस्तुति
ब्लॉग यात्रा वार्षिक अवलोकन हेतु शुभकामनाएं!

Admin ने कहा…

मोबाइल बिना सब सून।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

अच्छा महसूस हो रहा है कि मैने अभी तक मोबाइल नहीं लिया है ।

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