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रविवार, 2 जुलाई 2017

मेरी रूहानी यात्रा ... ब्लॉग से प्रियंका गुप्ता


मैं
प्रियंका - छह-सात साल की उम्र से बालकथा लेखन से शुरुआत करके उम्र के साथ बड़ी कहानियाँ लिखी-छपी, देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में...पाँच संग्रहों में से दो पुरस्कृत...मातृभाषा हिन्दी में मुख्यतया लिखने के साथ अंगरेजी में भी कुछ लिखा है, उर्दू में कुछ अदत, हिन्दी-अंगरेजी के साथ उर्दू और फ्रेंच भी आती है...|."

कही-अनकही

जीवन में बहुत सी बातें , हम कहना चाहें भी तो , अनकही ही रह जाती हैं...। उन्हीं अनकही-अनजानी बातों को आपके साथ बाँटने का जरिया है - यह ब्लॉग...।

मानना होता है जीवन में कई बार कि होनहार बिरवान के होत चिकने पात 
और मैंने तो ब्लॉग की परिक्रमा करते हुए कितनी बार माना है 
आप भी मानिये, सही बात में देर क्या सबेर क्या !!!

अतिथि देवो...न भवो...
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कहते हैं हमारा भारत देश संस्कारों और परम्पराओं का देश है...| समय बदला, लोग बदले... पर अपने देश पर हमारा ये गर्व नहीं बदला...| किसी ज़माने में पश्चिमी देशों को हिक़ारत से देखने वाले हम आधुनिकता के नाम पर धीरे-धीरे खुद को भी उसी ढर्रे में ढालते चले गए | अपनी परम्पराओं और मान्यताओं से दूर होते जाना `सभ्य से सभ्यतर’ होने की निशानी मानी जाने लगी...| यूँ लगता है मानो जब तक हमने पश्चिमी देशों की नक़ल नहीं की थी, हम `असभ्य और जंगली’ ही थे...| भाषा, पहनावे, खान-पान और बाकी के भी तौर-तरीकों में हम ग्लोबल क्या हुए, आज अपने ही देश में अपने जैसे नहीं रह गए...|
मुझे याद है, जब मैं छोटी थी तो अक्सर यह सुन कर बेहद आश्चर्य होता था कि विदेशों में बच्चे अट्ठारह साल के होने पर घर से दूर चले जाते हैं...| उनकी अपनी दुनिया हो जाती है| माता-पिता या भाई-बहन से उनके रिश्ते बस क्रिसमस और थैंक्स-गिविंग पर मिलने या फिर फोन पर हाय-हैलो कहने तक ही सिमटे होते हैं...| तब अपने घर-परिवार और नाते-रिश्तेदारों के गाहे-बगाहे लगने वाले जमावड़ों, गर्मी की छुट्टियों में दो महीने तक सारे बच्चों के साथ दादी-नानी के घरों में मचने वाली हुल्लड़ के मद्देनज़र ये सब बातें किसी दूसरी दुनिया की किस्से-कहानियों सरीखी लगती थी...| माँ-बाप की बंदिशों के बीच साँस लेते हम बच्चों की कल्पनाओं में उन विदेशी बच्चों की थोड़ी सी ज़िंदगी जी लेने की ललक भी कभी-कभी शामिल हो जाती थी, जहाँ वो अपनी मर्जी के मालिक हुआ करते थे...|
धीरे-धीरे वक़्त बीता, हम बच्चे से बड़े हुए और फिर एक दिन खुद माँ-बाप के किरदार निभाने को तैयार हो गए| जैसे जैसे तकनीकी रूप से सारी दुनिया से जुड़ते गए, बाकी दुनिया हमारे आसपास सिमटने लगी| जो बातें उस समय कल्पनाओं में चोरी से आकर कभी खुश करती थी, तो कभी उदास...उन कल्पनाओं ने हकीक़त का जामा पहनना शुरू कर दिया| हम खुद तो घर-परिवार के बीच रह कर अपने परिवार के सपनों को पूरा करते रहे, पर अपने बच्चों को उड़ने के लिए हमने पूरा आसमां दे दिया...| जिन बातों से कभी हम हैरान होते थे, उन बातों ने अब बिलकुल रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन के सामने आना शुरू कर दिया| अब पहले की तरह छुट्टियों में न तो दादी-नानी के घर से मामी-चाची की बुलाहट होती है, न अब बच्चों के अन्दर अपने चचेरे-ममेरे (पढ़ी-लिखी ज़ुबान में बोले तो- कज़िन) से मिलने की ललक उठती है...| खुद हम भी नहीं चाहते कि हमारे घर में हर समय कोई भी मुँह उठाए चला आए...| अब किसी की याद आने पर हम बेधड़क उसका दरवाज़ा नहीं खटखटाते, बल्कि वाट्सएप पर थोड़ा टाइम निकाल कर बस `मिस यू’ बोल देते हैं...| हम भी खुश, वो भी खुश...! अपने घर में लैपटॉप और मोबाइल संग गूँगी बातचीत में हम इतने बिज़ी हैं कि किसी से न तो जाकर मिलने की इच्छा होती है, न किसी को अपने घर बुलाने की फुर्सत...|
`घर’ के नाम पर याद आया...| हमारे ये घरनुमा मकान अब पहले के मुकाबले बेहद सुरुचिपूर्ण  और भव्य तरीके से सजते हैं, महँगे-महँगे सामानों से कोना-कोना दमकता है, पर उन्हें देखने वाले...उन पर गर्व से फूले न समाने वाले हम अकेले ही उनके बीच बैठे रहते हैं...| पहले की तरह एक साधारण से सोफे या खटिया बिछा कर बैठने वाले दोस्तों के ठहाके अब इतने सुसज्जित ड्राइंग रूम में नहीं गूंजते...| हम अमीर तो होते जा रहे हैं, पर रिश्तों के मामले में बेहद गरीब हो चुके हैं, और हमे इसका अंदाजा तक नहीं है...|
हाल ही में अपनी रिश्तेदारी में ऐसे ही एक सुसज्जित ड्राइंग रूम में जाने का मौक़ा मिला...| दस मिनट की उस संक्षिप्त मुलाक़ात में ही पता चल गया, ड्राइंग रूम की सारी सार-सजावट बदल दी गई है, उसे और भी खूबसूरत बनाने के लिए...| मेजबान खुश दिखा, क्योंकि मैंने उसके ड्राइंग रूम की तारीफ कर दी थी| बस एक बात खटकी, उनका नया सोफा सेट महँगा होने के बावजूद बहुत असुविधाजनक था...| गद्दियाँ ऐसी सख्त कि दस मिनट में शरीर दुखने लगा...| खुद को रोकते-रोकते भी मैं ये बात बोल पड़ी| सुन कर मेरी मेजबान पहले तो हँसी, फिर बेहद खुफिया अंदाज़ में उन्होंने इसका राज़ खोला...आरामदायक सोफा होगा तो जो मेहमान आएगा, वो आधा घंटे की बजाये दो घंटा वहीं जम जाएगा...| तकलीफ़ से बैठेगा तो अगर एक घंटा भी सोच कर आया होगा तो दस मिनट में भाग जाएगा...|
मुझे हैरान देख कर बेहद इमानदारी से उन्होंने स्वीकार कर लिया, ये लॉजिक उनके अपने दिमाग़ की उपज नहीं थी, बल्कि दुकान के सेल्समैन ने उन्हें यह ज्ञान दिया था...| सिर्फ उन्हें ही नहीं, बल्कि अपने कई खरीददारों को उसने उससे भी ज़्यादा सख्त सोफ़े इसी मुफ्त ज्ञान के साथ ऊँची कीमतों पर बेचे थे...| मुफ्त में ही उस दिन ऐसा ज्ञान पाकर मानो मैं भी धन्य हो गई...| दस मिनट में उनसे विदा लेकर चलते समय समझ नहीं आ रहा था कि किसी ज़माने में विदेशों में घर आए आगंतुक को दरवाज़े से ही विदा करने के चलन को बुरा मानने वाले मेरे जैसे लोगों को इस ज्ञान का क्या करना चाहिए...? आज हमारे लिए भी `अतिथि देवो भवो...’ नहीं रह गया है, बल्कि एक अनचाहा, बिन माँगा बोझ हो गया है...| 
सच है न, अपने ही हाथों अपनी ज़िंदगी में इस तरह के अकेलेपन के ज़हर को घोल कर भी हम कितने खुश हो रहे...| क्या एक बार भी हमने ये सोचने की जहमत उठाई है कि दिन-ब-दिन होती जा रही इस तकनीकी उन्नति ने दुनिया सचमुच हमारी मुठ्ठी में तो कर दी, पर हमारी हथेली खाली हो चुकी है...|


शब्द
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कौन कहता है
शब्द बेजान होते हैं ?
दफ़न हों सीने में
तो
घुटती हैं साँसें
बाहर निकल भी अक्सर
वार करते है
और
मार देते हैं
किसी न किसी को
या फिर
जब घुटते रहते हैं भीतर ही
खुद मर जाते हैं
अपनी इच्छाओं/ भावनाओं समेत
उनकी मौत पर कोई नहीं रोता
सिवाय दिल के;
तो चलो, कागज़ पर उकेरें
कुछ आड़ी-तिरछी सी लकीरें
नाम दें उन्हें शब्दों का
उड़ेल दें उनमें थोड़ी प्राण वायु
ताकि फिर कभी
जब वो मरें
तो सनद रहे
कभी वो भी थे ज़िंदा...।

8 टिप्पणियाँ:

अनुपमा पाठक ने कहा…

"ताकि फिर कभी
जब वो मरें
तो सनद रहे
कभी वो भी थे ज़िंदा...।"

मर्मस्पर्शी!


सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह बहुत सुन्दर । एक और खूबसूरत पन्ना रूहानी यात्रा का।

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

शुक्रिया :)

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

आभार !

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

असल जिंदगी के रिश्ते भी आभासी दुनिया की बराबरी करने लगे हैं, बहुत शुभकामनाएं।
रामराम

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति

vandana gupta ने कहा…

बहुत खूब

Vimal Dikshit ने कहा…

अतिथि देवो...बहुत अच्छा लिखा है.हमें सोचना होगा कि ऐसा क्यूँ हो रहा है? राजनीतिक, आर्थिक और जीवन जीने की विवशता के कारण हम ऐसे समाज की ओर बढ़ते जा रहे हैं, जिसे रोक पाना हमारे वश की बात नहीं, या फिर खुद ब खुद दिखावे की और शीघ्र धनवान हो जाने की लिप्सा में अपने मूल्यों को खोते जा रहे हैं...लेखक, कवि एवं विचारकों की कलम में बहुत ताकत होती है..उन्हे समाज का चित्रण ( साहित्य समाज का दर्पण है ) करने के साथ साथ मार्गदर्शक भी बनना होगा शिक्षकों के साथ मिलकर..
शब्द..बहुत सुन्दर.

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