कहानी नहीं रूकती, कविता भी नहीं रूकती
न कौमा, न ... पूर्णविराम लगा भी दो
क्रमशः की ऊँगली थामे रहता है !
आज यह तो कल वह ...
न समय रुकता है न विचार
लिखी जा रही कहानी हो या कविता
कितने मोड़ आते हैं -
|| कविता और कहानी के बीच ||
1.
कोई तो बताये,
कैसे जानूँ कि ये कहानियाँ किस रेगिस्तान की प्यास हैं,
कभी पूरी क्यों नहीं होतीं?
ये किस ब्रह्मांड का छोर हैं
कि जिसकी यात्रा अनंत, निस्सीम, निरंतर है ....
कैसे जानूँ कि ये कहानियाँ किस रेगिस्तान की प्यास हैं,
कभी पूरी क्यों नहीं होतीं?
ये किस ब्रह्मांड का छोर हैं
कि जिसकी यात्रा अनंत, निस्सीम, निरंतर है ....
2.
हर मोड़ पर बाँह पकड़ खींचती है कोई कहानी,
मचलती है, ठुनकती है, थमा देती है शिकायत भरी पर्ची,
"चलो, उठो न, आओ चलें
बढ़ाएं एक और कदम बेहतरी की ओर,
पूर्णता की ओर
आओ कि चलें संतुष्टि की ओर !!" ...
वह बुलाती है हर बार
अंत के बाद,
अक्सर स्वीकृति के बाद
और कभी कभी तो छपने के भी बाद...
मचलती है, ठुनकती है, थमा देती है शिकायत भरी पर्ची,
"चलो, उठो न, आओ चलें
बढ़ाएं एक और कदम बेहतरी की ओर,
पूर्णता की ओर
आओ कि चलें संतुष्टि की ओर !!" ...
वह बुलाती है हर बार
अंत के बाद,
अक्सर स्वीकृति के बाद
और कभी कभी तो छपने के भी बाद...
3.
फिर हर कहानी के बीच
कहाँ से आ जाती है एक कविता,
जैसे विरही यक्ष पुकारता है
अपनी प्रिया को
कभी कराहती, कभी नृत्यरत तो कभी शाश्वत बेचैनी लिए,
और मैं,
जैसे तीव्र सम्मोहन के असर में,
चल देती हूँ उसके पीछे,
छोड़कर पीछे एक बिसूरती, नाराज़, रूठती कहानी.....
कहाँ से आ जाती है एक कविता,
जैसे विरही यक्ष पुकारता है
अपनी प्रिया को
कभी कराहती, कभी नृत्यरत तो कभी शाश्वत बेचैनी लिए,
और मैं,
जैसे तीव्र सम्मोहन के असर में,
चल देती हूँ उसके पीछे,
छोड़कर पीछे एक बिसूरती, नाराज़, रूठती कहानी.....
4.
कभी-कभी लगता है ,
मैं बदल गई हूँ एक चौबीस घण्टा पेंडुलम में,
जिसके एक छोर पर है
फुसलाकर बुलाती एक नई कविता
और दूसरे पर कोई उदास अधूरी कहानी....
मैं बदल गई हूँ एक चौबीस घण्टा पेंडुलम में,
जिसके एक छोर पर है
फुसलाकर बुलाती एक नई कविता
और दूसरे पर कोई उदास अधूरी कहानी....
5.
दोनों के बीच संतुलन साधने से बेजार हो,
मैं कुट्टी कहती हूँ दोनों से,
ओढ़ लेती हूँ झूठी नाराज़गी,
दिखा देती हूँ अंगूठा,
सुनने लगती हूँ कोई निर्गुण,
और जान ही नहीं पाती कब बुनने लगती हूँ
शब्दों की झीनी-झीनी चादर....
मैं कुट्टी कहती हूँ दोनों से,
ओढ़ लेती हूँ झूठी नाराज़गी,
दिखा देती हूँ अंगूठा,
सुनने लगती हूँ कोई निर्गुण,
और जान ही नहीं पाती कब बुनने लगती हूँ
शब्दों की झीनी-झीनी चादर....
6.
जाने क्यों लगता है
कविता और कहानी दोनों में सौतिया डाह है,
दोनों को ही चाहिए कलम का बलम-रंगरसिया
और इनकी कलह मेरी रातों की लोरी है....
कविता और कहानी दोनों में सौतिया डाह है,
दोनों को ही चाहिए कलम का बलम-रंगरसिया
और इनकी कलह मेरी रातों की लोरी है....
5 टिप्पणियाँ:
बहुत ही सुंदर और भावप्रवण रचनाएं है, बहुत आभार और शुभकामनाएं।
रामराम
#हिन्दी_ब्लागिंग
बहुत सुन्दर। बाकि क्या कहें हम तो रोज ही आते हैं :)
nice post sir, me apke blog ke post padta hu. kaffi ache lagte hai ye muje.
http://askshirdisaibaba.in/
बहुत ही सुन्दर....
लाजवाब....
कविता और कहानी की कलह में अच्छी पोस्ट मिल गई हमको...
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