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गुरुवार, 22 जून 2017

मेरी रूहानी यात्रा ... ब्लॉग से वंदना अवस्थी





वन्दना अवस्थी दुबे



कुछ खास नहीं....वक्त के साथ चलने की कोशिश कर रही हूं.........

मैं वक़्त हूँ 
देखता हूँ कोशिशों को 
थाम लेता हूँ उन कहानियों को 
उन एहसासों को 
जो समंदर होने का दम रखती हैं  ... 
जो मेरे साथ चले, वह समंदर है - जो निःसंदेह खारा है तो मीठा भी, चखो तो हर बार 

किस्सा-कहानी


क्या फ़र्क पड़ता है ?
===============

सर्दियों की
गुनगुनी धूप सेंकतीं औरतें,
उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
किसी घोटाले से,
करोड़ों के घोटाले से,
या उससे भी ज़्यादा के.
गर्मियों की दोपहर में
गपियाती ,
फ़ुरसत से एड़ियां रगड़ती औरतें,
वे नहीं जानतीं
ओबामा और ओसामा के बीच का फ़र्क,
जानना भी नहीं चाहतीं.
उन्हें उत्तेजित नहीं करता
अन्ना का अनशन पर बैठना,
या लोगों का रैली निकालना.
किसी घोटाले के पर्दाफ़ाश होने
या किसी मिशन में
एक आतंकी के मारे जाने से
उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है?
या किसी को भी क्या फ़र्क पड़ता है?
ये कि अब आतंकी नहीं होंगे?
कि अब भ्रष्टाचार नहीं होगा?
कि अब घोटाले नहीं होंगे?
इसीलिये क्या फ़र्क पड़ता है,
यदि चंद औरतें
देश-दुनिया की खबरों में
दिलचस्पी न लें तो?
कम स कम इस मुग़ालते में तो हैं,
कि सब कुछ कितना अच्छा है!


प्रिया की डायरी
===========


"प्रिया...रूमाल कहां रख दिये? एक भी नहीं मिल रहा."
" अरे! मेरा चश्मा कहाँ है? कहा रख दिया उठा के?"
" टेबल पर मेरी एक फ़ाइल रखी थी, कहाँ रख दी सहेज के?"
दौड़ के रूमाल दिया प्रिया ने.
गिरते-पड़ते चश्मा पकड़ाया प्रिया ने.
सामने रखी फ़ाइल उठा के दी प्रिया ने.
" ये क्या बना के रख दिया? पता नहीं क्या करती रहती हो तुम? कायदे का नाश्ता तक बना के नहीं दे सकतीं...."
रुआंसी हो आई प्रिया.

अनंत के ऑफ़िस जाते ही धम्म से सोफ़े पर बैठ गई . सुबह पांच बजे से शुरु होने वाली प्रिया की भाग-दौड़, अनन्त के ऑफ़िस जाने के बाद ही थमती थी. सुबह अलार्म बजते ही प्रिया बिस्तर छोड़ देती है. आंखें बाद में खोलती है, चाय पहले चढा देती है. उसके बाद दोनों बच्चों का टिफ़िन बनाने, यूनिफ़ॉर्म पहनाने,बस स्टॉप तक
छोड़ने, फिर अनन्त की तमाम ज़रूरतें पूरी करने उन्हें ऑफ़िस भेजने में नौ कब बज जाते, पता ही नहीं चलता. सुबह से प्रिय को चाय तक पीने का समय नहीं मिलता. नौ बजे प्रिया आराम से बैठ के चाय पीती है.

फिर शुरु होता सफ़ाई का काम. बच्चों का कमरा, अपना कमरा, ड्रॉंइंग रूम सब व्यवस्थित करती. साथ ही कपड़ा धुलाई भी चलती रहती. नहाते और खाना बनाते उसे एक बज जाता. फ़ुर्सत की सांस ले, उससे पहले ही बच्चों के आने का टाइम हो जाता, और स्टॉप की तरफ़ भागती प्रिया. दोनों बच्चों के कपड़े बदलते, खाना खिलाते-खिलाते ही अनन्त के आने का समय हो जाता. अनन्त का लंच दो बजे होता है.उन्हें खाना दे, खुद खाने बैठती. अनन्त के जाने के बाद पूरा किचन समेटती, बर्तन ख़ाली करती,घड़ी तब तक साढ़े तीन बजाने लगती.

थोड़ी देर आराम करने की सोचती है प्रिया. अभी बिस्तर पर लेटी ही थी कि फोन घनघनाने लगा. रोज़ ही ऐसा होता है. कई बार तो बस टेलीफोन कम्पनियों के ही फोन होते हैं, लेकिन उठ के जाना तो पड़ता ही है न! कई बार सोचती है प्रिया, कि लैंड लाइन फोन कटवा दे, लेकिन बस सोचती ही है.

पाँच कब बज जाते हैं, उसे पता ही नहीं चलता. पाँच बजते ही फिर काम शुरु. बच्चों को दूध दिया, अपने लिये चाय बनाई. बच्चों को सामने वाले पार्क में खेलने भेज के खुद रात के खाने की तैयारी शुरु कर देती
है. अभी तैयारी कर के न रक्खे, तो बच्चों को पढाये कब? साढ़े छह बजे बच्चों को पढाने बैठती. उनका होमवर्क या टैस्ट जो भी होता, उसके तैयारी करवाती.साढ़े सात बजे अनन्त आ जाते. आते ही नहाते और पेपर ले के टी.वी. के सामने बैठ जाते. बच्चों का शोर पसंद नहीं उन्हें. बच्चे शोर करते तो झल्लाते प्रिया के ऊपर, जैसे इसके पीछे प्रिया का हाथ हो!

कभी बच्चों का झगड़ा निपटवाती , तो कभी रसोई में सब्जी चलाती , हलकान हो जाती है प्रिया.
रात का खाना होते , बच्चों को सुलाते , किचेन समेटते साढ़े दस बज जाते. मतलब सुबह पाँच बजे से लेकर रात साढ़े दस बजे तक जुटी रहती है प्रिया. अनन्त की ड्यूटी सुबह नौ बजे शुरु होती है,

और सात बजे खत्म, यानी दस घंटे. और प्रिया की? सुबह पांच बजे से रात साढ़े दस बजे तक! साढ़े सत्रह घंटे! उसके बाद भी सुनना यही पड़ता है, कि करती क्या हो??? दिन भर तो घर में रहती हो!!!

मतलब घर का काम, काम नहीं है? बाहर नौकरी करने पर ही कुछकरना कहलायेगा?

बहुत बुरा लगता है प्रिया को, जब अनन्त दूसरी कामकाजी महिलाओं से उसकी तुलना करते हैं, और कमतर आंकते हैं.

चाहे तो प्रिया भी नौकरी करने लगे. अच्छी भली एम.ए. बी.एड.है. किसे भी प्रायवेट स्कूल में नौकरी मिल ही जायेगी. पिछले साल तो डब्बू की प्रिंसिपल ने उससे कहा भी था, हिन्दी टीचर की जगह ख़ाली होने पर. उसने ही मना कर दिया था. अपनी सारी इच्छाएं, सारे शौक घर के काम के नाम कर दिये, और हाथ में
क्या आया? निठल्ले की उपाधि?

"करती क्या हो-करती क्या हो.." सुनते- सुनते प्रिया भी उकता गई है. सो इस बार जब डब्बू का रिज़ल्ट लेने गई तो अपना रिज़्यूम भी थमा आई प्रिंसिपल को. उन्होंने कहा- " मैने तो पहले ही आपसे कहा था. आपके जैसी ट्रेंड टीचर को अपने स्टाफ़ में शामिल कर के बहुत खुशी होगी हमें". एक अप्रैल से ही डैमो के लिये आने को कहा,. एक अप्रैल!! यानी तीन दिन बाद ही!

घर में नयी व्यवस्थाएं शुरु कर दीं उसने. सबसे पहले अनन्त को बताया- कि " लो. अब कुछ न करने की शिक़ायत दूर होगी तुम्हारी" अनन्त अवाक!!
"अरे! कैसे होगा?"
"होगा. जैसे और कामकाजी महिलाओं के घर होता है." प्रिया ने भी लापरवाही से जवाब दिया.
"तुम्हें भी काम में हाथ बंटाना होगा".
क्या कहते अनन्त? खुद ही तो सहकर्मी महिलाओं का उदाहरण देते थे.
घर के नये नियमों का बाक़ायदा लिखित प्रारूप तैयार किया प्रिया ने. अनन्त को पकड़ाया-
नियमावली-
सुबह पांच बजे उठना होगा.
अपने कपड़े खुद तैयार करने होंगे.
अपना सामान खुद व्यवस्थित रखना होगा.
बच्चों को छोड़ने स्टॉप तक जाना होगा.
टिफ़िन साथ में ले जाना होगा.
शाम को बच्चों का होमवर्क कराना होगा, क्योंकि उस वक्त प्रिया को सुबह के खाने की तैयारी करनी होगी.

" ये कौन से मुश्किल काम हैं? तुम्हें क्या लगता है, मैं नहीं कर पाउंगा?"
" न. कोई मुश्किल काम नहीं हैं. तुम कर पाओगे, मुझे पूरा भरोसा है" कहते हुए हंसी आ गई थी प्रिया को. जानती थी, कितना मुश्किल है अनन्त के लिये सुबह पांच बजे उठना. ये भी जानती थी, कि यदि वो शुरु से ही नौकरी कर रही होती, तो पूरा रुटीन उसी तरह बना होता सबका. अब जबकि सबकी निर्भरता प्रिया पर है, तब दिक्कत तो होगी न? लेकिन कोई ये कहां मानता है कि उसके नहीं होने से दिक्कत भी हो सकती है? यही तो साबित करना चाहती है प्रिया.

आज से प्रिया को स्कूल ज्वाइन करना था. तीन बार उठा चुकी अनन्त को, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं. अनन्त के चक्कर में स्कूल बस भी निकल गई. अनन्त अभी भी सो रहे थे. सैकेंड ट्रिप की बस में प्रिया को जाना था. जल्दी-जल्दी उसने नोट लिखा-

" तुम्हारे समय पर न उठने के कारण बच्चे स्कूल नहीं जा सके. अब अब तुम्हें लंच तक की छुट्टी लेनी होगी"

नोट टेबल पर दबा के रखा, और भागी प्रिया. उठने के बाद अनन्त पर क्या बीती, ये तो वही जानता है.
अगले तीन दिनों में सबकी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो गयी.अनन्त बच्चों को ठीक से पढा ही नहीं पा रहे थे. बच्चों ने एलान कर दिया कि वे पापा से नहीं पढ़ेंगे।

रात में अनन्त ने अनुनय भरे स्वर में कहा-
" प्रिया, ये घर तुम्हारे बिना नहीं चलने का. तुम्हारा घर में रहना कितना अहम है, ये मैं पहले भी जानता था, और अब तो बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा हूं. अभी तो तुम्हारा डैमो चल रहा है, तुम अगर सचमुच नौकरी करना चाहती हो, तो करो, लेकिन हम सबको तुम्हारी ज़रूरत है."
अंधेरे में भी अनन्त ने महसूस किया कि प्रिया मुस्कुरा रही है, विजयी मुस्कान, लेकिन अनन्त को प्रिया की यह जीत मंजूर थी। :)




8 टिप्पणियाँ:

Sadhana Vaid ने कहा…

बहुत ही बढ़िया ! वन्दना जी के सशक्त लेखन की अद्भुत बानगी है दोनों रचनाओं में ! आपके चयन की दाद देनी पड़ेगी! हार्दिक शुभकामनाएं ! !

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

अरे कमाल है! खुद को यहां पा के बेहद खुश हूं। शुक्रिया रश्मि दी।

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत शुक्रिया साधना जी।

Archana Chaoji ने कहा…

बढ़िया लिखती हैं वंदना ,कविता और कहानी दोनों लाजवाब ,

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

हीरे तराशना कोई आप से सीखे :) बहुत बढ़िया।

Rishabh Shukla ने कहा…

bahoot sundar

सदा ने कहा…

Nmn hai aapke is sarahneey prayas ko ... Badhai vandna ji ko behtareen lekhan k liye

संजय भास्‍कर ने कहा…

बढ़िया लिखती हैं

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