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तस्वीरें बहुत कुछ कहती हैं
बुलाती हैं अपने पास - बहुत कुछ सुनाने को
तो चलते हैं न ...
खोई हुई एक चीज़
कविता
यहीं कहीं तो रख्खी थी
दिल के पलंग पर
यादों के सिरहाने के नीचे शायद
या फिर वक्त की
जंग लगी अलमारी के ऊपर
तनहाई की मेज पे या फिर
उदासियों की मुड़ी तुड़ी चादर के नीचे ?
यहीं कहीं तो रख्खी थी
कुछ तो रखकर भूल गया हूं
आंखिर क्या था
ये भी याद नहीं आता
कई दिनों से ढूंढ रहा हूं
वो बेनाम सी ,बेरंग
और बेशक्ल सी कोई चीज़
ऐसी चींजें खोकर वापस मिलती हैं क्या ?
एक-दूजे की ज़िंदगी में
हम दोनों भी ऐसी ही खोई हुई एक चीज़ हैं न ?
मैं फिर भी कोशिश करता हूं
तुम तो अब ढूंढना भी शायद भूल गई हो
ट्रेन के छूटने का वक्त
कुछ रिश्ते
जैसे बहुत जल्दी बहुत पास आ जाते हैं
आते हैं लेकर
जरा सी फिक्र, जरा सा प्यार, जरा जरा अपनापन भी
कुछ रिश्ते जैसे उन एक दिन के मेहमानों के से होते हैं
जिनको छोड़ आते हैं हम स्टेशन
जो चढ चुके होते हैं ट्रेन में
जिनसे कह चुके होते हैं हम अलविदा
ना चाहने के बावजूद हो चुका होता है
जिनकी ट्रेन के छूटने का वक्त
घुल जाता है हथेली की रेखाओं में कहीं
जिनके हाथों का स्पर्श
रह जाती है आंखो में अलविदा कहती मुस्कान
छूट जाती हैं पीछे दो खाली पटरियां
तकती हुई जिनकी वापसी की राह
कुछ रिश्ते
जैसे बहुत जल्दी दूर चले जाते हैं
छोड़ जाते हैं पीछे
जरा सी कसक, जरा सा इंतजार, जरा जरा अधूरापन भी
4 टिप्पणियाँ:
अच्छी लगी दोनों कविताएँ।
आभार एक सुन्दर ब्लॉग से परिचय करवाने के लिये।
शुभ संध्या...
बेहतरीन कविकाएँ
साधुवाद
कुछ रिश्ते होते हैं ऐसे ही ...... अनुपम प्रस्तुति
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