बोधिसत्व यानी अखिलेश कुमार मिश्र
ब्लॉग रहा,
फेसबुक पर उनको पढ़ती रहती हूँ,
भोर के अँधेरे में रुक गई हूँ अम्मा की लालटेन के आगे, उनकी चाह, उनके अथक प्रयास में आकंठ डूबी हूँ, और लालटेन लिए अम्मा को यहाँ लेकर आई हूँ
माँ मेरे लिए एक जलती लालटेन सी है
माँ तीन बजे भोर में मुझे जगा देती। मैं जब तक हाथ मुंह और खास कर आँखें धोकर आता वह एक गिलास गरम दूध और जलती हुई लालटेन लेकर आ जाती। लालटेन का शीशा एकदम साफ किया हुआ होता। उसका प्रकाश भव्य तरीके से पढ़ने और जागने के लिए प्रेरित करता। मैं पढ़ाई की आवश्यकता से नहीं, माँ की इच्छा के लिए पढ़ने के लिए तैयार होने लगता। उसे किसी ने समझा दिया था कि भोर में जो पढ़ाई की जाती है वह सब की सब दिमाग में बैठ जाती है। भोर में मलयगिरि की हवा मलयानिल बहती है। ब्रह्म बेला में पढ़ने से अच्छे सेे समझ आती है ।
वह बिना नागा किए बिना अपनी नींद और आराम की परवाह किए 1976 से 1986 लगभग 10 साल तक भोर बेला में मुझे जगाकर पढ़ाती रही। मैं जब तक पढ़ता रहता वह अपलक मेरी आँखों में देखती रहती कि कहीं मैं सो न जाऊँ। अक्सर मैं झपकी मारने लगता और कभी कभी सो भी जाता। मेरे सो जाने पर वह जाग्रत माँ फिर से मुझे जगाती। मैं उससे कहता सो जाओ अब न सोऊँगा, लेकिन वो न सोती कि कहीं मैं उसे सोने को कह कर खुद न सो जाऊँ।
सूर्योदय होने के पहले वह प्रात स्नान करने जाती। फूल लोढ़ने जाती। पूजा करने जाती। बहुत कम मंत्र उसे याद थे उनको जोर-जोर गाती कि मैं सो न जाऊँ। छोटे से मंदिर की छोटी घंटियों को वह जोर-जोर बजाती। पूजा करना और ईश्वर को स्मरण करने से अधिक उसके मंत्र और घंटियाँ सब मुझे जगाने के लिए होते थे। थोड़ी ही देर में पूजा पूरी करके फिर पास आ बैठती। उसकी असली पूजा तो शायद मुझे पढ़ाना था। मुझे जगाना था। मेरी नींद भगाना था।
मैं कौन सा विषय और कौन सी किताब पढ़ रहा हूँ यह उसे समझ नहीं आता। बस पूछ लेती कि क्या पढ़ रहे हो। मैं जो बता देता वह मान लेती। उसे अपना नाम लिखना भर ही आता था। इतना ही उसे पढ़ाया गया था। वह एक तरह से अनपढ़ थी लेकिन पढ़ाई का मूल्य जानती थी।
थोड़ी देर में तीन बज जाएगा। मैं अभी जाग रहा हूँ। माँ बहुत दूर है। लगभग 1680 किलोमीटर। लेकिन मुझे हमेशा लगता है माँ सामने से लालटेन लेकर आ रही है। वह मुझे जगा रही है। उसके हाथ में गरम दूध का गिलास है। वह मेरी आँखों में झांक रही है। मेरी नींद दूर करने करने के लिए वह जोर-जोर दैवीय मंत्रों को पढ़ रही है। गा रही है। दरवाजे के मंदिर की घंटियाँ बजा रही है। कह रही है सो मत जाना। जागते रहे। पढ़ते रहो। उसके चेहरे को मैंने मेरा चेहरा देखते-देखते सूखते झुराते पाया है। हमें जगाते-जगाते वह सोने की उमर तक आ गई है। 91-92 साल की माँ का चेहरा मुझे सदैव मेरी आँखों में झांकता सा दिखता है। पूछता सा क्या पढ़ रहे हो। सो मत जाना।
मैं माँ का भक्त कभी नहीं रहा। हमेशा उससे लड़ता झगड़ता रहा। इस लड़ाई का एक कारण शायद यह रहा कि मैं उसकी अंतिम संतान था। जिसे वह पेट पोछना कहती। यानी मेरे बाद कोई उसके पेट से जन्मा नहीं। उससे झगड़ जाने का क्रम हमेशा हर यात्रा में हर मुलाकात में। हर बात में। बना रहा। लेकिन जब चलने का समय होता विदा का समय होता हम दोनों के आँसू हमारे झगड़े को धोते रहे हैं। हमारे आँसू एक दूसरे को माँ-बेटा बनाते रहे हैं। ओ माँ । तू जहाँ है चिंता मत कर। मैं जाग रहा हूँ। पढ़ रहा हूँ।
मां की याद
ऐसे याद आती है मां
जैसे
वह कहीं खो गयी हो
मेरे लिए ।
मैं उसे ऐसे याद आता हूं
जैसे मैं उसके लिए
खो गया हूं ।
उसे खोजने का इश्तहार छपाऊं
तो भी उस तक पहुंच न पाऊं ।
जबकि वह मुझमें बहती है
मैं उसमें बहता हूं
वह मुझमें रहती है
मैं उसमें रहता हूं ।
जग मेले की
आवन जावन में
हर मोड़ पर दिखती है
मेरे लिए कुछ करती
सांस सांस जीती मरती ।
हर जगह दिखती है
मिलती नहीं है ।
1 टिप्पणियाँ:
वाह बहुत सुन्दर।
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