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गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016

कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं - ब्लॉग बुलेटिन

नमस्कार दोस्तो,
आज के हालात पर स्व-रचित कविता आपके समक्ष.

पड़े थे खण्डहर में पत्थर की मानिन्द 
उठाकर हमने सजाया है,
हाथ छलनी किये अपने मगर
देवता उनको बनाया है।
पत्थर के ये तराशे बुत
हम को ही आँखें दिखा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।

बदन पर लिपटी है कालिख
सफेदी तो बस दिखावा है,
भूखे को रोटी, हर हाथ को काम
इनका ये प्रिय नारा है।
भरने को पेट अपना ये
मुँह से रोटी छिना रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।

सियासत का बाजार रहे गर्म
कोशिश में लगे रहते हैं,
राम-रहीम के नाम पर उजाड़े हैं जो
उन घरों को गिनते रहते हैं।
नौनिहालों की लाशों पर गुजर कर
ये अपनी कुर्सी बचा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।

आइये ऐसे माहौल में आनंद उठाने की कोशिश करें, आज की बुलेटिन का.

++++++++++














4 टिप्पणियाँ:

कविता रावत ने कहा…

सियासत ही बहुत की रोजी रोटी है
सटीक रचना के साथ सार्थक बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता और सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति सेंगर जी ।

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

बहुत बढ़िया बुलेटिन ..जय हिन्द

ऋता शेखर 'मधु' ने कहा…

कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं...चिंतनशील कविता| सार्थक सूत्रों की बधाई के साथ आभार !

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